स्वर कोकिला लता मंगेशकर के अनसुने किस्से
रविवार 6 फरवरी को 92 साल की उम्र में देश की स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। माँ सरस्वती का दूसरा रूप कही जाने वाली सुश्री लता मंगेशकर जी के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने वाली बात होगी फिर भी हम अपनी भावनाएं उन्हीं से जुड़ी बातों के ज़रिये व्यक्त कर रहे हैं साथ ही हम यह भी जानेंगे कि, जिन्हें पूरी दुनियाँ सम्मान से लता दीदी कहती है, उन्होंने क्यों ऐसा कहा था कि वे नहीं चाहतीं कि दोबारा लता मंगेशकर के रूप में उनका जन्म हो।
बचपन और लता जी की ज़िद-
लता जी ने एक इंटरव्यू के दौरान एक किस्सा शेयर किया था और बताया था बचपन में उन्हें उनकी शरारतों की वजह से एक सबक मिला था जिसे उन्होंने ताउम्र याद रखा। दोस्तों दरअसल जब लता जी काफी छोटी थीं तब वे बहुत शरारती और ज़िद्दी भी हुआ करती थीं।
वे अक्सर अपने माता-पिता से फरमाइशें किया करतीं और अगर उनकी कोई फरमाइश अधूरी रह जाती तो वे गुस्सा हो जातीं और कई बार तो ऐसा भी होता कि वे नाराज़ होकर अपना सामान एक गठरी में बांध कर घर के बाहर निकल जातीं। उनके घरवाले उन्हें आवाज़ देते रहते लेकिन वे पीछे मुड़कर भी नहीं देखतीं।
तब कोई भागकर लता जी को गोद में उठाकर वापस ले आता और उनको मनाने के लिए उनकी इच्छा भी पूरी की जाती। जब ऐसा कई बार हो गया तो उनके पिता ने उनकी ज़िद ख़त्म करने के लिये एक उपाय सोचा। एक दिन जब नन्हीं लता फिर गुस्सा होकर घर छोड़कर जा रही थीं तो इस बार किसी ने नहीं पुकारा।
जब चलते-चलते कुछ दूर निकल गईं और यह महसूस हुआ कि कोई उन्हें मनाने नहीं आ रहा है तो उनकी चाल धीमे पड़ने लगे। उन्हें डर सा लगने लगा और कुछ देर एक जगह पर रुकी रहीं, लेकिन तब भी कोई नहीं आया तो वे ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं। उनके पिता से रहा नहीं गया वे भागते हुए आये और लता को गोद में उठा लिया। उस दिन के बाद लता जी ने फिर कभी कोई ऐसी जिद नहीं की।
क्यों नहीं की शादी-
दोस्तों लताजी ने शादी नहीं की थी। वो अपनी ज़िम्मेदारियों से तो संतुष्ट थीं लेकिन अपने जीवन से संतुष्ट नहीं थीं शायद तभी जब एक बार एक इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा गया कि वे अगले जन्म में क्या बनना चाहेंगी तो उन्होंने कहा, “अगला जन्म न हो तो अच्छा है। अगर मुझे अगला जन्म मिला तो मैं कभी भी लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूंगी।
क्योंकि लता मंगेशकर होने की परेशानी सिर्फ मैं ही जानती हूं।” दोस्तों लता जी ने अपने जीवन में सब कुछ हासिल किया, लेकिन कभी उन्होंने ऐसा समय भी देखा था जब उनके परिवार को बहुत ही मुफलिसी का सामना करना पड़ा था। एक पुराने साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि कई बार ऐसा भी होता था जब उन्हें और उनके भाई बहनों को भूखा ही सोना पड़ता था।
उन्होंने बताया था कि, “हम पांच भाई-बहन थे और पिता की मृत्यु के बाद मुझे ही सबकी ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी थी, पुणे का हमारा घर भी बिक गया था और हमें किराए के घर में रहना पड़ा था।” आज तक को दिए एक इंटरव्यू में लता जी की बहन मीना मंगेशकर जी ने लता जी के शादी न करने को लेकर खुलासा किया था।
मीना जी ने बताया था कि “सबकुछ था लता दीदी के पास, लेकिन हम लोग भी तो थे ना। अगर वो शादी करतीं तो हम लोगो से दूर हो जातीं और दीदी ऐसा नहीं चाहतीं थीं इसलिए उन्होंने शादी नहीं की।”
बिना स्कूल-कॉलेज गये डाक्टरेट की उपाधि-
दोस्तों आपको यह जानकार ताज़्ज़ुब होगा कि लता जी स्कूल जाकर एक क्लास भी नहीं पढ़ सकी थीं, बावज़ूद इसके विश्व के 6 विश्वविद्यालयों से उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी गई है। हालांकि अन्य बच्चों की तरह लता जी भी पढ़ने के लिए स्कूल तो गई थीं लेकिन एक घटना के बाद उन्होंने फिर स्कूल जाना ही छोड़ दिया था।
बताया जाता है कि वे अपनी छोटी बहन आशा जी को भी कभी-कभी अपने साथ स्कूल ले जाया करती थीं जिसके लिये उनके टीचर ने भी उन्हें मना किया और घर वालों ने भी। जब उन्हें अपनी बहन को साथ स्कूल नहीं ले जाने दिया गया, तो उन्होंने अगले दिन स्कूल ही छोड़ दिया।
दोस्तों लता मंगेशकर कभी स्कूल क्यों नहीं गईं, इसकी एक कहानी यह भी बतायी जाती है कि स्कूल के पहले ही दिन लता अपनी क्लास के बच्चों को गायन सिखाने लगीं थीं और जब शिक्षक ने उन्हें ऐसा करने से रोका, तो उन्होंने स्कूल ही छोड़ दिया। ख़ैर कहानियाँ जो भी हों लेकिन जो सबसे बड़ी सच्चाई है वो यही है कि जब लता जी 13 साल की थीं तभी उनके पिताजी का देहांत हो गया था
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और उनके परिवार की सारी जिम्मेदारी उनके नाज़ुक कंधों पर पर आ गई थी। चूँकि लता जी परिवार में सबसे बड़ी बेटी थीं इसलिए उन्होंने स्कूली पढ़ाई से कहीं ज़्यादा अपने परिवार की देख-रेख में अपना जीवन समर्पित कर दिया।दोस्तों लता जी के स्कूल न जाने का कारण चाहे जो भी रहा हो और भले ही वे स्कूल की पढ़ाई नहीं कर सकीं थीं,
बावज़ूद इसके अपने संगीत-ज्ञान और समर्पण के लिये दुनिया के छह विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की डिग्री दी है और अपने पूरे करियर के दौरान, उन्हें ढेरों पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, न सिर्फ़ राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय भी।
दिलीप कुमार के मज़ाक से सीखी उर्दू-
मुंबई में शुरुआती संघर्ष के दौरान लता जी को लोकल ट्रेन से सफर करना पड़ता था और ट्रेन में ही उनकी मुलाकात दिलीप कुमार से भी हुई थी। एक इंटरव्यू में लता जी ने बताया था कि, ‘संगीतकार अनिल विश्वास भी हमारे साथ लोकल ट्रेन में जाया करते थे। उन्होंने मुझे दिलीप कुमार से मिलवाया और कहा कि ये लड़की बहुत अच्छा गाती है।
दिलीप साहब ने पूछा, ‘कौन है वो?’ तो अनिल विश्वास ने बताया कि मराठी लड़की हैं। दिलीप कुमार सब कुछ सुनते रहे और अचानक बोले- ‘वो मराठी है, तो वह अच्छी उर्दू कैसे बोलेगी?’ दिलीप कुमार ने मजाक में कहा कि ‘महाराष्ट्रीयन तो दाल चावल की तरह उर्दू बोलते हैं।’ दिलीप की इस बात से लता बड़े सोच में पड़ गईं और उन्होंने घर आकर उर्दू पढ़ने का फैसला किया और उर्दू भाषा सीखनी शुरू की।
मन मारकर करनी पड़ी ऐक्टिंग-
इंडिया टुडे के एक पुराने संस्करण में छपी एक स्टोरी में लता जी ने कहा था कि, “मुझे मेकअप करने से नफरत थी, मुझे रोशनी की चकाचौंध में खड़े होने में दिक्कत थी, लेकिन मेरे पास च्वाइस नहीं थी।” दोस्तों वर्ष 1942 में जब उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर की मृत्यु हुई तो इसके मात्र 8 दिन बाद ही लता मंगेशकर को एक मराठी फिल्म Pahili Manglagaw में काम करने जाना पड़ा था।
13 साल की लता को इस फिल्म में नायिका की बहन का किरदार मिला था, साथ ही इस फिल्म में उन्हें गाना भी गाना था। लता जी ने इसके अलावा भी कुछ फ़िल्मों में छोटी छोटी भूमिकायें कीं। हालांकि उन्होंने ऐक्टिंग करियर पर ध्यान न देकर सिंगिग के लिये ही ज़्यादा प्रयास किया, जो उनका सबसे सही फ़ैसला था। हालांकि धीरे-धीरे उन्हें गाने भी मिलने लगे लेकिन बतौर सिंगर काम पाने के लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़े।
रिजेक्ट हुई आवाज़-
लता जी के एक पारिवारिक मित्र सदाशिवराव नेवरेकर ने उन्हें ‘किट्टी नाक’ नामक मराठी फिल्म में पार्श्व गायन का पहला मौका दिया लेकिन वह फ़िल्म में नहीं रखा गया। लता जी ने उन दिनों को याद करते हुए कहा था कि, “मेरा पहला पार्श्व गीत वीडियो एडिटर की मेज पर काट दिया गया था।
” इंडिया टुडे को दिये एक इंटरव्यू में लता जी ने अपने संघर्षों को याद करते हुए आगे बताया कि मराठी फिल्म में उनका काम मास्टर विनायक को पसंद आया और उन्हें 60 रुपये की मासिक पगार पर रख लिया गया था जो बाद में बढ़कर 350 रुपये तक हो गया था। वर्ष 1947 तक लता जी को बतौर पार्श्व गायिका काम मिलने लगे थे।
इसी साल फिल्म ‘मजबूर’ के लिए उन्होंने एक गाना गाया था जिसके पीछे एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है। दरअसल एक बार लता जी को उस वक्त के मशहूर संगीतकार गुलाम हैदर, फिल्मिस्तान के ‘एस मुखर्जी’ के पास लेकर पहुंचे जो उस दौर के सबसे बड़े फिल्म मेकर्स में गिने जाते थे, उन्होंने लता जी की आवाज को पतली कहकर रिजेक्ट कर दिया।
तब गुलाम हैदर ने मुखर्जी से कहा कि, ‘मेरी बात याद रखना यह बच्ची जल्द ही नूरजहां समेत सभी को पीछे छोड़ देगी।’ ख़ैर उसी दिन गुलाम हैदर लता जी को साथ लेकर बॉम्बे टॉकीज जाने के लिये निकल पड़े लेकिन उसी दौरान गोरेगांव स्टेशन पर मूसलाधार बारिश होने लगी। समय गुज़ारने के लिये हैदर ने लता को वही गाना सुनाने को कहा जो उन्होंने मुखर्जी को सुनाया था।
लता वह गीत गाने लगीं, उस गीत के बोल थे ‘बुलबल मत रो’। गाना खत्म होने के बाद हैदर ने एक शब्द भी नहीं कहा लेकिन इसके एक घंटे बाद, लता जी यही गीत बॉम्बे टॉकीज में गा रही थीं, और उन्हें फिल्म ‘मजबूर’ में गाने के लिए चुन लिया गया था।
जब गाना रिकॉर्ड करते समय बेहोश हो गईं थीं लता जी–
जी हाँ दोस्तों यह सच है कि संगीतकार नौशाद के साथ एक गाना रिकॉर्ड करते समय लता जी एक बार बेहोश हो गई थीं। इस बात का ख़ुलासा ख़ुद लता जी ने ही एक इंटरव्यू में किया था। उन्होंने फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक इंटरव्यू में बताया था कि, “हम दोपहर में एक गाना रिकॉर्ड कर रहे थे। और आप जानते ही हैं कि गर्मियों में मुंबई कैसे हो जाती है, उन दिनों रिकॉर्डिंग स्टूडियो में एयर कंडीशनिंग नहीं थी और यहां तक कि अंतिम रिकॉर्डिंग के दौरान सीलिंग फैन को भी बंद कर दिया गया था। बस, मैं बेहोश हो गई।”
कमबख्त, कहीं बेसुरी नहीं होती-
दोस्तों लता मंगेशकर ने अनगिनत गाने गाए हैं लेकिन वह कभी अपने गाने नहीं सुनती थीं। दरअसल उन्हें अपना गाना सुनने से डर लगता था क्योंकि उन्हें अपने गानों में कुछ न कुछ कमी नज़र आने लगती थी। उनका मानना था कि वह अपने गाने को और अच्छे से गा सकती हैं।
हालांकि यह एक सच्चे कलाकार की ख़ासियत होती है कि उसे लगता है कि वो अपने काम को और बेहतर कर सकता था। दोस्तों आपको यह जानकर ताज़्ज़ुब होगा कि बड़े बड़े दिग्गज़ भी लता जी के गानों में ख़ामियां निकालने की कोशिश करते थे लेकिन असफल रहते थे। एक किस्सा बड़ा मशहूर हुआ था जो बड़े गुलाम अली खाँ जी से जुड़ा है।
बताया जाता है कि एक बार खाँ साहब रियाज़ कर रहे थे, तभी उनके कानों में लता जी का गाना सुनायी पड़ा और उन्होंने अपना रियाज़ रोककर ध्यान से लता जी का गाना सुनने लगे। जब पूरा गाना ख़त्म हो गया तो हँसते हुए बोले, “कमबख्त, कहीं बेसुरी नहीं होती।”
जब मेल सॉंग बना फीमेल सॉंग-
दोस्तों आपने फिल्म ‘खामोशी’ का गीत ‘हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू’ तो ज़रूर सुना होगा। इससे जुड़ा भी एक बेहद दिलचस्प किस्सा है। इस गाने में भी लता जी की ही आवाज़ है। गीतकार गुलजार कहते हैं कि “दरअसल ‘हमने देखी है’ गाना मेल सिंगर को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इस गाने में एक महबूब का अपनी महबूबा के लिए भाव को दिखाया गया है।
लेकिन हेमंत कुमार जी चाहते थे कि इस गाने को लता जी गाए। उन्होंने मुझसे कहा था कि ये गाना लता ही गाएंगी। उस वक्त मैं थोड़ा चिंता में था। मेरे मन में सवाल था कि कैसे पुरुष स्वर का गाना महिला गाएगी। लेकिन लता जी ने इस गाने को गाया।” दोस्तों यह गाना न सिर्फ़ लता जी के बेस्ट में से एक है बल्कि गुलज़ार के भी बेस्ट में गिना जाता है।
जब लता जी को लगा कि किशोर दा उनके पीछे पड़े हैं-
लता जी ने फिल्म ‘जिद्दी’ में पहली बार किशोर दा के साथ गीत “ये कौन आया रे’ गाया था और इस गाने की रिकॉर्डिंग के समय ही पहली बार दोनों महान गायकों की मुलाकात भी हुई थी। उस वक़्त दोनों लोकल ट्रेन पकड़कर स्टूडियो जाया करते थे। हुआ ये कि एक दिन महालक्ष्मी स्टेशन पर एक व्यक्ति कुर्ता पजामा पहने और छड़ी लिए उनके कंपार्टमेंट में चढ़ गया।
लता जी को लगा कि शायद उन्होंने उस शख़्स को पहले कहीं देखा है लेकिन उन्हें याद नहीं आ रहा था। ख़ैर जब उन्होंने लोकल ट्रेन से उतरकर तांगा लिया तो वो शख्स भी उनके तांगे के पीछे आने लगा। लता जी स्टूडियो के पास उतरीं तो वह शख़्स भी वहीं उतर गया। लता जी घबरा गईं और तेजी में स्टूडियो की तरफ चलने लगीं, उन्होंने देखा यहां भी वो शख्स पीछे चला आ रहा था।
स्टूडियो पहुंचकर उन्होंने संगीतकार खेमचंद्र के पास जाकर कहा, ये कौन है, कब से मेरा पीछा कर रहा है। खेमचंद्र ने जैसे ही उस शख़्स को देखा तो हंसने लगे और बताया कि ये तो किशोर कुमार है, अशोक कुमार का भाई जो तुम्हारे साथ गाने वाला है। प्लेबैक सिंगर के रूप में ये किशोर दा की पहली फिल्म थी। ऐसा ही एक दृश्य अमिताभ बच्चन और मौसमी चटर्जी के ऊपर भी फ़िल्म ‘मंज़िल’ में फ़िल्माया गया था जो पूरी तरह से इस घटना से ही प्रभावित लगता है।
जब राजेश रोशन के लिये अड़ गयीं लता जी-
दोस्तों आपने फ़िल्म काला पत्थर के गाने ज़रूर सुने होंगे। इस फ़िल्म के गीत ‘एक रास्ता है ज़िन्दगी’ ‘बाँहों में तेरी मस्ती के घेरे’ आज भी लोग ख़ूब पसंद करते हैं। फिल्म ‘काला पत्थर’ के गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही हिट हो गये थे। मज़े की बात कि एक वक्त ऐसा भी आया था जब फिल्म के संगीतकार राजेश रोशन को बदलने की बात होने लगी थी
लेकिन लता जी को ये बात सही नहीं लगी और वे राजेश रोशन को लेने के पक्ष में अड़ गईं और यह तक एलान कर दिया था कि अगर फिल्म से राजेश रोशन को निकाला गया तो वह भी इसमें गाने नहीं गाएंगी। लता जी की बात निर्माता को माननी पड़ी और राजेश रोशन ने ही संगीत दिया। दोस्तों इस फ़िल्म से कहीं ज़्यादा इसके गाने मशहूर हुए थे।
संगीतकार भी थीं लता मंगेशकर-
फिल्म ‘आनंद’ तो आपको याद ही होगी। लेकिन शायद ही किसी को यह पता होगा कि ऋषिकेश मुखर्जी इस फ़िल्म के गानों को सलिल चौधरी से पहले लता मंगेशकर से संगीतबद्ध कराना चाहते थे। जी हाँ दोस्तों उन दिनों किसी को ये पता नहीं था लेकिन ऋषि दा को इस बात की ख़बर लग गयी थी कि लता जी मराठी फिल्मों के लिए संगीत दे रही हैं
और वह भी आनंदघन के नाम से ताकि कोई जान न सके। हालांकि लता जी ने इस फिल्म में संगीत देने से मना कर दिया लेकिन इसके गाने गाए। दोस्तों लता जी के संगीतकार बनने का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है जो उनके सपोर्टिव नेचर को भी बताता है। दरअसल हुआ ये कि भालजी पेंढारकर जो कि मराठी फ़िल्मों के बड़े निर्माता-निर्देशक थे, लता जी के पिता दीनानाथ जी के नजदीकी मित्र भी थे।
वे एक बार शिवाजी महाराज की ऐतिहासिक कथा पर ‘मोहित्यांची मंजुला’ नाम की फ़िल्म बना रहे थे लेकिन जब संगीत देने की बारी आयी तो उनके पसंद का कोई भी संगीत निर्देशक उस दौरान ख़ाली नहीं था। इधर भालजी पेंढारकर के पास इतना वक़्त नहीं था कि वे अपनी इस फ़िल्म का निर्माण कुछ दिन रोक कर उनका इंतज़ार करें।
ऐसे में लता जी ने सुझाव दिया कि वे संगीत बनाने में उनका सहयोग कर सकती हैं। भाल जी को लगा कि अगर फिल्म चली नहीं, तो नाहक ही लता जी का नाम खराब हो जाएगा क्योंकि लता जी का तब तक काफी नाम हो चुका था। उन्होंने मना कर दिया तब लता जी ने उन्हें एक और सुझाव दिया कि वे किसी और के नाम से संगीत देंगी।
उसके बाद मराठी के चर्चित संत रामदास जी की कविता से ‘आनंदघन’ नाम खोजा गया और लता जी ने इस नाम के साथ बतौर संगीतकार काम किया।
1983 वर्ल्डकप और लता मंगेशकर कनेक्शन-
लता जी के क्रिकेट प्रेम से तो सभी वाक़िफ हैं। अक्सर वे टीम इंडिया के लिये कुछ न कुछ लिखा करती थीं और खिलाड़ियों का हौसला भी बढ़ाया करती थीं। दोस्तों लताजी 1983 का वर्ल्ड कप फाइनल देखने लॉर्ड्स भी गई थीं और वर्ल्ड कप फाइनल से पहले उन्होंने रात को भारतीय टीम को खाने पर भी आमंत्रित किया था।
जब भारत चैंपियन बना उसके बाद भी उन्होंने भारतीय टीम को फिर से खाने पर बुलाया था। एक इंटरव्यू में लता जी ने बताया था कि वर्ल्ड कप 1983 के फाइनल से पहले खिलाड़ी तनाव में थे, टीम के साथ मेरी मुलाकात हुई थी और मैंने टीम को कहा था कि ये मैच हम ही जीत रहें हैं। उस मैच में हमारे सभी खिलाड़ियों ने जी-जान लगा दी और भारत ने पहली बार वर्ल्ड कप जीता था।
” दोस्तों लता जी की असली भूमिका तो इसके बाद शुरू होती है क्योंकि जब पहली बार क्रिकेट का विश्वकप जीतकर आई भारतीय टीम के सदस्यों का सम्मान किये जाने की बात आयी तो इसके लिये भी लता जी ही आगे आयीं। दरअसल तब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानि BCCI उतना अमीर नहीं था जितना की अब है।
इसलिए बीसीसीआई ने राजसिंह डूंगरपुर के जरिए लता जी संपर्क किया। लता जी एक बार में ही उनकी मदद के लिये तैयार हो गईं क्योंकि वे उनकी मेहनत को अपनी आँखों से देखकर आयीं थीं इसलिए उनका हौसला तो बढ़ाना ही था। लता जी ने एक बार बीबीसी को दिए गए इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने उसी साल 17 अगस्त को दिल्ली में एक म्यूज़िक शो किया और 20 लाख रुपए का फंड जुटाकर बीसीसीआई को दे दिया। यह कॉन्सर्ट लगभग 4 घंटे चला था और इस फंड की मदद से भारतीय टीम के सभी खिलाड़ियों को 1-1 लाख रूपए दिए गए थे।
हालात ने देना सिखाया-
एक इंटरव्यू में जब लता जी से पूछा गया कि जीवन ने उन्हें क्या मूल्यवान सबक सिखाया है, तब उन्होंने कहा था कि, “जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया। उन लोगों को महत्व देना जो नीचे और बाहर हैं। दुनिया कमज़ोरों की उपेक्षा और दुर्व्यवहार करती है। मेरे माता-पिता ने मुझे हमेशा ज़रूरतमंदों की मदद करना सिखाया। हमने बहुत कठिन दिन देखे।
हमारे घर में हर आने वाले के लिए मुफ्त भोजन था, लेकिन जब हम मुश्किल समय से घिरे तो हमारे परिवार के लिए खाना नहीं था। ऐसे भी दिन देखे जब मैं और मेरे भाई-बहन पूरे दिन नहीं खाते थे। मेरे पास जो कुछ भी था उसे मैंने दूसरों के साथ साझा करना सीखा।” लता जी ने इंटरव्यू में बात करते हुए कहा था,
”मेरा विश्वास करो, जो आनंद आप देने में महसूस करते हैं, वह उस आनंद से कहीं अधिक है जो आप प्राप्त करने में महसूस करते हैं। इसलिए जब भी कोई मेरे पास मदद के लिए आता है तो मैं वह सब कुछ करती हूं जो मैं कर सकती हूं। हो सकता है कि लोग मुझे बेवकूफ बनाकर चले जाते हो। लेकिन मुझे जो मिला है मैं उसे देने में विश्वास करती हूं।”
जब रखना पड़ा मौन व्रत-
लता जी के भाई हृदयनाथ मंगेशकर जी ने वर्ष 2010 में इंदौर में आयोजित कार्यक्रम ‘मैं और दीदी’ में बताया था कि वर्ष 1960 के आस-पास एक बार ऊंचा सुर लगाते वक्त लता जी को उनके वोकल कार्ड में किसी परेशानी के चलते अपनी आवाज फटती महसूस हुई थी। लता के साथ यह वाकया पहली बार हुआ था
और उन्होंने अपनी परेशानी इंदौर के मशहूर शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां से बयान की, तब खां साहब ने लताजी को सलाह दी थी कि बेहतर होगा कि वह अपनी इस परेशानी के मद्देनजर कुछ समय तक मौन रहें और कोई गाना न गाएं। हृदयनाथ जी के मुताबिक ‘लता जी’ का करियर उस वक्त बुलंदियों पर था, बावज़ूद इसके उन्होंने खां साहब की सलाह पर अमल किया
और मुंबई से कुछ समय तक बाहर भी रही थीं। हृदयनाथ जी ने बताया था कि इस ‘मौनव्रत’ की समाप्ति के बाद पार्श्वगायन की दुनिया में लौटीं लता जी ने हेमंत कुमार जी के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘बीस साल बाद’ का गीत ‘कहीं दीप जले, कहीं दिल’ गाया था और इस गीत के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था।
फ़िल्मफेयर को बढ़ानी पड़ी अवाॅर्ड की कटेगरी-
लता जी ने बेस्ट फीमेल सिंगर के लिये कई बार राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते थे। लेकिन बात करें फिल्मफेयर पुरस्कारों की तो लगातार कई सालों तक यह पुरस्कार अपने नाम करने के बाद उन्होंने ये पुरस्कार इसलिए बाद में लेने से मना कर दिया ताकि नये गायकों को इसका मौका मिले।
दोस्तों क्या आपको यह पता है कि फिल्मफेयर पुरस्कारों में बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर का अवॉर्ड लता जी को फिल्म ‘गाइड’ के लिए पुरस्कार न मिल पाने के बाद से शुरू किया गया था? दरअसल उस साल संगीत श्रेणी के सारे पुस्कार फिल्म ‘सूरज’ को मिले थे। इसी फिल्म के गाने ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है’ के लिए मोहम्मद रफी को बेस्ट सिंगर का अवार्ड मिला
और लता मंगेशकर फिल्म ‘गाइड’ के गाने ‘कांटो से खींच के ये आंचल’ के लिए यह पुरस्कार न पा सकीं। तब महान गायक मोहम्मद रफी ने यह पुरस्कार लेने से ही मना कर दिया था। इस पुरस्कार को लेकर हुए विवाद को देखते हुये उसके अगले साल से फिल्मफेयर प्लेबैक सिंगर अवाॅर्ड में मेल और फीमेल की कटेगरी अलग-अलग बनायी गयी।
अपने अंत समय में भी पिता के करीब-
लता मंगेशकर अपने पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर जी से बेहद प्यार करती थीं, उनका मानना था कि उनके पिता के निधन के बाद भी वे उनके साथ रहते थे और अपना आशीर्वाद देते थे। दोस्तों लताजी ने अपने आखिरी समय में भी अपने पिता को बहुत याद किया था। इस बात की जानकारी वॉइस ओवर आर्टिस्ट हरीश भिमानी जी ने अपने एक इंटरव्यू में दी है।
उन्होंने बताया की अपने आखिरी समय में लता जी वेंटिलेटर पर भी अपने पिता के गाने सुन रही थीं। इसके लिए उन्होंने पिता की रिकॉर्डिंग और एक ईयरफोन अस्पताल में मंगवाया था। वे अपने पिता के गानों को सुनकर साथ-साथ उसे गाने की कोशिश भी कर रही थीं। क्योंकि तब वह ठीक महसूस कर रही थीं और अपने पिता के गानों में पूरी तरह डूब गई थीं।
हरीश भिमानी ने ये भी बताया कि वे गाना गाने के लिए मास्क हटा रही थीं और डॉक्टर उन्हें बार-बार आराम करने की सलाह दे रहे थे लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह अपने पिता से बात कर रही हैं। इसके बाद ही वह अचानक चुप हो गईं और फिर उन्होंने कुछ नहीं कहा।
दोस्तों एक एक करके सभी फ़रिश्ता स्वरूप महान गायक पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे, और हमारा मन यही कहता है कि शायद स्वर्ग के उन फ़रिश्तों को भी ‘स्वर की देवी’ लता जी की कमी खलती रही होगी जो उनके वहाँ जाने से अब पूरी हो गयी होगी। नारद टीवी अपनी टीम की ओर से लता जी की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से कामना करता है और प्रार्थना करता है कि श्रीहरि उन्हें अपने श्रीचरणों में उच्च स्थान दें। ओम शांति!
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