आधुनिक तुलसीदास रामानंद सागर, एक ऐसी शख्सियत जिन्होंने रामायण को पुनः इलेक्ट्रॉनिक मीडियम के लिए लिख कर घर घर तक राम नाम का प्रसार किया,
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार रामायण को 12 भाषाओं में दुनिया भर के तकरीबन 53 देशों के 65 करोड़ लोगों देखा गया है। जो कि अपने आप में एक बहुत बड़ी व अकल्पनीय उपलब्धि है।
पर क्या आप रामानंद सागर जी के जीवन सफर और संघर्षों के बारे में जानते हैं?
29 दिसंबर 1917 के दिन, घनघोर तूफ़ान के बीच लाहौर के समीप “असल-गुरुके” नाम के एक क़स्बे में एक चिरंतर दीपक जन्मा जिसको नाम दिया गया चंद्रमौली जो कि भगवान शिव के नाम का ही एक पर्याय है। उन्हें उनकी नानी ने गोद लिया इस बात के लिए उनके महज़ 16 साल के पिता उनसे पहले से ही वचनबद्ध थे।
उनकी सौतेली माँ, अक्सर उन्हें प्रताड़नाएँ देती रहती थीं और ज़बरन घर के सारे काम काज करने के लिए बाधित करतीं थीं। एक दिन गुस्से में आगबबूला उनकी सौतेली माँ ने उन्हें बर्तन सफाई से ना धुलने के लिए एक मटकी उनके सर पर दे मारी, जिसके कारण उनके माथे पर एक चंद्राकार घाव उभर आया।
उनकी माँ ने भारी दहेज के लालच में शीघ्र ही उनकी शादी कर दी पर प्रसूति के दौरान ही उनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो गयी साथ ही साथ उनका नवजात शिशु भी नहीं बच सका। नशे की लत के चलते उनकी असल माता का देहांत महज़ 26 वर्ष की अवस्था में हो गया था, तब चंद्रमौली यानी कि रामानंद जी सिर्फ 5 वर्ष के थे।
दरहसल उनकी नशे की लत के पीछे उनके कुछ भरोसेमंद नौकरों का हाथ था जिन्होंने ने उनके पुत्र के वियोग के दर्द को कम करने के बहाने उन्हें मादक पदार्थों के सेवन पर मजबूर किया।
रामानंद जी ने अपने मृतक पुत्र के प्रति निःस्वार्थ निष्ठा रखते हुए उसके अंतिम संस्कार की विधि पूरी होने के बाद हरिद्वार में अपनी मृतक पत्नी की बहन से विवाह कर लिया।
उनकी सौतेली माँ इस नवविवाहित जोड़े को घर में नहीं प्रवेश करने देना चाहतीं थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें कोई दहेज नहीं मिला था। फिर उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और वो एक साईकल रिपेयरिंग की दुकान में अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। उन्होंने कई छोटी मोटी नौकरियाँ करके अपना जीवनयापन शुरू किया, उन्होंने सफ़ाई कर्मी के तौर पर काम किया तो कभी सुनार की दुकान पर काम किया, कभी वे चपरासी के तौर पर काम करते तो कभी किसी किराने दुकान में काम करके गुजर बसर करने लगे।
रामानंद सागर जी ने अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत बतौर “क्लैपर बॉय” 1936 में आई फ़िल्म “राइडर्स टू द रेलरोड” से की।
उन्होंने जीवन यापन के साथ साथ अपने लेखन के हुनर को बरकरार रखने के लिए बतौर पत्रकार काम करना शुरू किया।
साल 1941 में 24 वर्ष की आयु में रामानंद जी को ट्यूबरक्लोसिस हो गया था और तब तक इस बीमारी का कोई इलाज उपलब्ध नहीं था, इसीलिए उन्हें किसी स्वास्थ्यालय में मृत्यु के इंतज़ार में छोड़ दिया गया।
और मृत्यु शैया पर पड़े रामानंद सागर ने वही से एक उर्दू पत्रिका “अदब-ए-मशरिक़” के लिए अपने लेख “मौत के बिस्तर से” लिखना शुरू किए।
रामानंद सागर के ये लेख उस वक़्त के साहित्यिक गलियारों में बहुत प्रसिद्ध हुए।
एक यूनानी डॉक्टर के प्रयासों और “साँप के ज़हर” से किये गए इलाजों ने रामानंद सागर को चमत्कृत ढंग से बिल्कुल स्वस्थ कर दिया।
रामानंद सागर ने भारत पाकिस्तान के बँटवारे के दर्द को भी बेहद करीब से महसूस किया, उस वक्त 30 वर्ष के रामानंद 5 बच्चों के पिता थे।
रामानंद सागर ने बंटवारे के दौर के अपने अनुभवों के मद्देनज़र अपना प्रसिद्ध उपन्यास “और इंसान मर गया” भी लिखा।
उसी दौरन वो रामानंद अपने परिवार के साथ अपनी मातृभूमि छोड़कर श्रीनगर आ गए नरसंहार के उस दौर में लाहौर-अमृतसर मार्ग बहुत भयावह और खतरनाक हुआ करता था,
पाक समर्थित मुजाहिद्दीन आर्मी ने उसी वक़्त श्रीनगर पर हमला किया तथा हवाई पट्टी को घेर लिया, रामानंद अपने परिवार के तकरीबन 13 सदस्यों के साथ 4 दिनों तक भूखे हवाई पट्टी के उसी खौफ़नाक मंज़र के बीच रहे।
बाद में एक छोटा जहाज सारे शरणरार्थियों को वहाँ से दिल्ली ले जाने के लिये पहुँचा।
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रामानंद जी ने एक बड़ा सा बक्सा अपने सर पर लादा हुआ था, जिसे देख जहाज के पायलट ने कहा “सामान नहीं, सिर्फ सवारियाँ ही जा सकती हैं” इतना कहकर चालक ने लात मारकर कागजों से भरे उस बक्से को नीचे गिरा दिया। रामानंद ने रोते हुए कहा “ये मेरी कहानियाँ थीं, जो कि मेरी एकलौती पूंजी थी” और आखिर में पायलट ने उन्हें पहचान लिया कि ये वो ही “रामानंद चोपड़ा” हैं जिन्होंने “मौत के बिस्तर से” लिखी थी।
पायलट ने तुरंत उनके पैर छुए और उन्हें गले लगा लिया साथ ही साथ उन्हें अपनी चल-अचल संपत्ति यानी कि उनकी रचनाओं को साथ ले जाने की अनुमति दे दी। दिल्ली में शरणरार्थियों के तौर पर उनके परिवार ने खरबूज के बीजों को बेंच कर छोटी सी आमदनी में अपना गुज़र बसर शुरू कर दिया।
बाद में उनकी प्रतिभा को देखते हुए उस दौर के मशहूर लेखकों जैसे “किशन चंदर” और “मंटो” ने उन्हें मुम्बई जाकर फिल्मकारों से मिलने की सलाह दी। उन्होंने मुंबई पहुंच कर समुद्र-तट पर बैठकर वरुण देवता से प्रार्थना की, कि “हे देव इस सपनों के शहर में मुझ अदने से जीव को भी स्थान प्रदान करें”।
तभी समुद्र की लहरों ने आकर रामानंद जी को चारों ओर से घेर लिया उन्हें उनका जवाब मिल चुका था, मानो वरुण देव ने उनकी प्रार्थना सुन ली थी और भविष्य में हुआ भी ऐसा मुम्बई समेत पूरे देश ने उन्हें अपने दिलों में स्थान दिया। रामानंद जी ने इसी घटना के बाद अपने नाम में “सागर” जोड़ लिया।
साल 1949 में रामानंद सागर जी ने अपनी पहली फ़िल्म “बरसात” लिखी। जोकि तकरीबन 100 हफ्ते सिनेमाघरों में चलती रही और एक बेहद सफल फ़िल्म साबित हुई, इस फ़िल्म ने ना सिर्फ रामानंद जी को बल्कि राजकपूर के आर.के. फिल्म्स को भी फ़िल्म जगत में स्थापित कर दिया।
उन्होंने कई लघुकथाएँ और 2 नाटक “गौरा” और “कलाकार” लिखे जिनका प्रदर्शन मुंबई के पृथ्वी थिएटर में हुआ।
ज़िंदगी के कई उतार चढ़ावों को झलते हुए अंततः रामानंद सागर जी ने साल 1950 में अपना खुद का प्रोडक्शन हाउस “सागर आर्ट्स” खोल लिया, जिसके तहत उन्होंने बतौर लेखक-निर्माता और निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म “मेहमान” बनाई पर दुर्भायवश ये फ़िल्म बहुत बड़ी फ्लॉप साबित हुई, जिसने एक बार फिर सागर परिवार के बढ़ते कदम वापस ले लिए।
उसके बाद जैसे तैसे रामानंद सागर ने एक छोटे बजट की फ़िल्म “बाज़ूबंद” का निर्माण किया पर वो भी एक बड़ी फ्लॉप साबित हुई। इसके बाद वो चेन्नई चले गए जहाँ उन्होंने जैमिनी स्टूडियोज़ के लिए कुछ वर्षों तक लेखक- निर्देशक के तौर पर काम करना शुरू किया।
उन्होंने कुछ मशहूर फ़िल्में लिखीं जैसे “इंसानियत, पैग़ाम और राजतिलक” इसके साथ साथ उन्होंने कुछ फिल्मों में बतौर लेखक-निर्माता-निर्देशक पर काम किया जैसे “घूंघट” और “ज़िंदगी”, ये सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं।
इन सभी सफलताओं ने रामानंद सागर जी का आत्मविश्वास बढ़ा दिया था और उन्होंने फिर से खुद के बैनर तले फिल्में निर्माण करने का मन बना लिया। आरज़ू, आँखें, गीत, ललकार, चरस और बग़ावत, उनकी ये 6 फ़िल्में एक के बाद एक सफ़ल साबित हुईं।
साल 1980 में उनकी केदारनाथ यात्रा के दौरान एक संत “महावतार बाबाजी” ने उन्हें चमत्कृत तौर पर दर्शन दिए,
रामानंद कुछ क्षण के लिए हतप्रभ रह गए क्योंकि साल 1972 में बाबाजी ने उन्हें गुवाहाटी के कामाख्या माता मंदिर में दर्शन दिए थे। बाद में एक संत ने उन्हें बाबा जी का संदेश दिया कि “रामायण धारावाहिक का निर्माण करो, ऐसा करने से तुम समग्र मानवजाति में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार कर सकोगे, साथ ही साथ ऐसा करने से विश्वव्यापी प्रसिद्धि के भागी भी बनोगे”।
इसके बाद रामानंद सागर ने ये घोषणा कर दी कि “मैं सिनेमा को छोड़ने जा रहा हूँ, और टेलीविज़न से जुड़ रहा हूँ” “मेरे जीवन का अब एकमात्र उद्देश्य है पौराणिक कथाओं को तथा मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम के आदर्शों को जन जन तक पहुंचाना”।
उन्होंने रामायण के कई संस्करण पढ़े कई अलग अलग भाषाओं की रामायण का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया।
इंडस्ट्री के लोगों को लगा कि ढलती उम्र के साथ रामानंद सागर का दिमाग फिर गया है और वो पागल हो चुके हैं।
उन्होंने दूरदर्शन को रामयण के प्रसारण का प्रस्ताव दिया, कुछ सालों तक उस वक़्त की सरकार ने “हिन्दू लहर” के भय से उनके प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया, पर इतने बड़े रामभक्त को भला कौन पराजित कर सकता था, बाद में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रामानंद सागर द्वारा रचित महान भारतीय महाकाव्य “रामायण” के प्रसारण पर मुहर लगा दी।
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और “रामायण” धारावाहिक लोगों के बीच इस कदर लोकप्रिय हुआ कि इसके दर्शकों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई, पहले 4 करोड़ दर्शकों तक पहुंचने वाला ये धारावाहिक 8 करोड़ फिर लगभग 65 करोड़ दर्शकों से अपना प्यार पाने वाला एक ऐतिहासिक धारावाहिक बना।
इसके बाद रामानंद सागर ने 1992 में “श्री कृष्णा” धारावाहिक का निर्माण किया इसके बाद वे “माँ दुर्गा” नाम के धारावाहिक का भी निर्माण करना चाहते थे पर किन्ही राजनैतिक व्यवधानों के चलते ऐसा ना हो सका।
भारतीय टेलिविज़न जगत में विगत 30 वर्षों से धर्मिक और कपोल कल्पित धारावाहिकों की शैली में सागर आर्ट्स का एकछत्र राज रहा है, जिसने अनेकोनेक प्रसिद्ध और सफल धार्मिक धारावाहिक भारतीय दर्शकों को दिए हैं।
12 दिसंबर 2005 को आधुनिक तुलसीदास श्रद्धेय रामानंद सागर जी देह त्याग कर बैकुंठ चले गए।
रामानंद सागर जिनके नाम में ही राम का संदेश बसा है राम- आंनद सागर अर्थात “प्रभु राम के आनंद से परिपूर्ण मानवता का असीम सागर”
सोंचने वाली बात है कि 70 वर्ष की अवस्था में जब बाकी लोग सेवा निवृत्त होकर बाकी का जीवन बिस्तर पर गुज़ारने की योजना बनाते हैं उस जीवन की उस अवस्था में “सागर” साहब प्रभु राम का संदेश घर-घर पहुंचा रहे थे।
तो “रामानंद सागर” जी के जीवन से हमें ये प्रेरणा मिलती है कि “कभी भी उम्मीद नहीं छोड़नी और अभी बहुत देर नहीं हुई है…..क्योंकि जब एक चपरासी, एक दुकानदार और सफाई कर्मचारी एक महान व ऐतिहासिक धारावाहिक “रामायण” बना सकता है तो आप चाहें तो क्या नहीं कर सकते?