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कैसे एक बसा-बसाया नगर बन गया दंडकारण्य वन।

जैसा की हम सभी इस बात को बहुत अच्छे से जानते हैं कि त्रेतायुग में जब भगवान् विष्णु इस धरती पर श्रीराम के रूप में अवतार लिए थे तो उनका सबसे पहला लक्ष्य था, पापी रावण का वध करके धरती को उससे छुटकारा दिलाना।

इसके लिए उन्होंने बहुत सी लीलाएं भी की। हम ये भी जानते हैं की उन्हें चौदह वर्ष का वनवास भी भोगना पड़ा जिसमें वो अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ कई सालों तक वन-वन भटकते रहे, जहां उन्होंने बहुत से सिद्ध ऋषियों और मुनियों के दर्शन किये और साथ ही साथ बहुत से दुष्ट राक्षसों को भी अपने तीखे बाणों से मार गिराया।

ख़ास तौर से उन्होंने दंडकारण्य के जंगलों में छिपे बहुत से दुष्ट असुरों को मारकर वहा रह रहे ऋषियों की उनसे रक्षा की, जिसका प्रसंग हमें रामायण में मिलता है।

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वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड के अनुसार-

वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड के अनुसार श्रीराम और लक्ष्मण ने उसी दंडकारण्य में विराध नाम के बहुत भयंकर राक्षस का भी वध किया और वहाँ रह रहे ऋषियों को इस बात का आश्वासन भी दिया कि उनके रहते कोई भी राक्षस उन्हें किसी भी तरह का कष्ट नही पंहुचा सकेगा।

लेकिन एक ऐसा रहस्य भी है जिसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं की आखिर इस दंडकारण्य वन का इतिहास क्या था, कैसे एक बसा-बसाया नगर एक भयानक जंगल में बदल गया, पद्मपुराण के सृष्टिखंड के अनुसार- बात सतयुग की है , उस समय वैवस्वत मनु का इस पूरी पृथ्वी पर राज था, उनके सबसे बड़े बेटे का नाम इक्ष्वाकु था जो की बहुत पराक्रमी थे।

काफी साल बीतने पर जब वैवस्वत मनु काफी बूढ़े हो गए तो उन्होंने अपने आखिरी समय में इक्ष्वाकु को अपनी जगह राज-पाठ सौप दिया और कहा कि-“हे पुत्र! तुम कभी भी अपनी प्रजा पर अन्याय न करना, बिना किसी गलती के किसी को भी दंड मत देना लेकिन अगर कोई दोषी पाया जाता है तो उसके लिए शास्त्र में जो दंड लिखा गया है वो ही दंड उसे देना ताकि प्रजा में राजा के लिए विश्वास बना रहे”।

वैवस्वत मनु की मृत्यु के बाद इक्ष्वाकु राजा बन गए और राज्य की सारी बाग़-डोर उनके हाथ में आ गयी। बहुत समय बीतने के बाद राजा इक्ष्वाकु को कोई संतान नही हुई, इस पर वो अक्सर दुखी रहा करते थे, और उन्हें ये चिंता भी रहती थी की उनके बाद उनके राज्य का क्या होगा।

इस पर उन्होंने अपने राजगुरु और मंत्रियो की सलाह पर पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाए जिसके वजह से उन्हें कुछ समय बाद एक बहुत ही प्रतापी पुत्र प्राप्त हुआ।

राजा ने अपने उस पुत्र का नाम दंड रखा। बड़ा होकर दंड बहुत विद्वान बना जिसको प्रजा भी बहुत प्यार करती थी। समय बीता और राजा इक्ष्वाकु ने अपने पुत्र दंड को राज चलाने के लिए एक नगर सौप दिया, उस नगर का नाम मधुमत था जो की विन्ध्य पर्वत के दो शिखरों के बीच सौ योजन में फैला हुआ था। वहाँ उन्होंने काफी सालों तक राज्य किया।

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राजा दंड का शुक्राचार्य की पुत्री के साथ दुर्व्यवहार-

एक समय की बात है, राजा दंड किसी काम से भार्गव ऋषि के आश्रम जा पहुचे, जब वो आश्रम पहुचे तो उन्होंने देखा की उस आश्रम के पास एक बहुत ही सुंदर कन्या घूम रही थी, उसकी खूबसूरती बिलकुल स्वर्ग के अप्सरा जैसी थी जिसे देखकर राजा दंड उस पर मोहित हो गए।

राजा दंड ने उस कन्या का परिचय जानना चाहा और इसलिए वो खुद उस कन्या के पास जाकर उससे पूछे कि-“हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस आश्रम के पास क्या कर रही हो, मै तुम्हारी सुदरता को देखकर तुम्हारे पास खीचा चला आया हूँ अगर तुम मुझे स्वीकार कर लो तो मै जिन्दगी भर तुम्हारा दास बनकर रहूँगा”।

इस पर उस कन्या ने दंड से कहा कि-“हे राजन! मेरा नाम अरजा है, मै भार्गव वंश की हूँ और मेरे पिता शुक्राचार्य हैं। आपसे मै निवेदन करती हूँ की आप यहाँ से चले जाइये क्योकि मेरे पिता बहुत ही क्रोधी स्वभाव के हैं अगर उन्होंने आपको ये सब बातें करते देख या सुन भी लिया तो वो बहुत क्रोध करेंगे और हो सकता है की वो आपको शाप भी दे दें, इसलिए मेरी मानिये आप अभी यहाँ से चले जाइये।”

अरजा के बार-बार मना करने पर भी राजा दंड नही माने और उसका हरण करके बहुत दूर जंगल में ले गए, इसके बाद राजा ने अरजा के साथ बहुत ही गलत व्यवहार किया और फिर उसे छोड़ दिया। अरजा रोती हुई आश्रम में वापस आ गयी, और थोड़ी ही देर में गुरु शुक्राचार्य भी अपने शिष्यों के साथ आश्रम में आ गए।

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शुक्राचार्य का श्राप-

उन्होंने अपनी बेटी को उस हाल में देखा और अपनी दिव्य-दृष्टि से सारा हाल जान लिया। इसके बाद तो शुक्राचार्य का क्रोध बहुत ज्यादा बढ़ गया और उन्होंने हाथ में जल लेकर दंड को शाप दे दिया की-“हे राजा दंड! तूने बड़ी ही नीचता के साथ मेरी बेटी के साथ व्यवहार किया है इसलिए सौ योजन बड़ा तेरा जो राज्य है वो जल्दी ही नष्ट हो जायेगा, इंद्र तेरे राज्य पर लगातार सात दिनों तक धुल भरी वर्षा करेंगे जिससे तेरे राज्य में रहने वाले जितने भी लोग हैं और साथ में तू भी सब के सब नष्ट हो जायेंगे।”

और इस तरह गुरु शुक्राचार्य के शाप के कारण उस राज्य में बहुत भीषण आग लग गयी और साथ ही साथ वहा लगातार सात दिनों तक धुल की वर्षा होने लगी, और इन सब के वजह से एक सप्ताह के अन्दर पूरा राज्य जलकर ख़ाक हो गया।

Shriram Naaradtv21022022
त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण द्वारा दंडकारण्य के राक्षसो का नाश-

अब वहा झाड़ियो और जंगल के अलावा कुछ भी नही बचा इसलिए तभी से उसका नाम दंडकारण्य हो गया। हजारो साल बीतते गए और धीरे धीरे उसी दंडकारण्य में भयंकर राक्षस और जंगली जानवर रहने लगे, जिनका समय आने पर त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण ने नाश किया।

तो ये थी वो रहस्यमयी कथा, जिसके वजह से दंडकारण्य वन का निर्माण हुआ।

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