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कैसे किया अर्जुन ने रावण को पराजित Arjun Ravan Yudh

अर्जुन रावण युद्ध
कैसे किया अर्जुन ने रावण को पराजित

मित्रों, जैसा की हम सब जानते हैं कि रावण, राक्षस पुत्री केकसी और ब्राम्हण पुत्र ऋषि विश्र्वा का पुत्र था| इसी संयोग के कारण रावण में ब्राम्हण और राक्षस दोनों प्रकार के गुण मौजूद थे, लेकिन अगर ये कहा जाए की रावण में ब्राम्हण से ज्यादा राक्षस प्रवित्तियां हावी थीं तो ये कहना गलत न होगा| क्योकि रावण ने अपने पूरे जीवन काल में राक्षस कर्मो को ही मुख्य रखा, लेकिन इस बात को भी नही झुठलाया जा सकता की रावण वेद-शास्त्रों और संगीत का पूर्ण ज्ञाता तो था ही, साथ ही साथ महान शिव-भक्त भी था लेकिन दुर्भाग्य से उसके कर्म पूरी तरह राक्षसी थे और इसलिए एक समय ऐसा आया की उसका कुल समेत नाश हो गया| असल में रावण को वरदान में असीम शक्तियां प्राप्त हो चुकी थीं जिसके कारण उसका अहंकार उसके सर चढ़कर बोलने लगा था, और इसलिए उसने बेवजह बहुत से राजाओं पर आक्रमण किया और उन्हें हराकर उनके राज्यों को अपने आधीन कर लिया| रावण और अर्जुन की ये कथा भी कुछ ऐसी ही है लेकिन इस कथा का अंत बड़ा ही दिलचस्प है, तो आइये इस रोचक कथा को विस्तार से जानें|

वाल्मीकि रामायण के अनुसारपरमपिता ब्रम्हा और भगवान् शिव से वरदान प्राप्त करने के बाद, रावण की बुद्धि जैसे नष्ट सी हो गयी थी, और अपनी शक्ति के अहंकार में उसने स्वर्गलोक, यमलोक, यक्षनगरी और न जाने कितने ही लोकों को अपने अधिकार में कर लिया था| इसी के चलते एक बार रावण महिष्मति नाम की नगरी में जा पहुचा जिसकी सुन्दरता स्वर्गलोक के बराबर थी और जहां पर विशेष रूप से अग्निदेव अदृश्य रूप में विराजमान रहा करते थे| उसी नगर में अर्जुन नाम के बहुत ही प्रतापी राजा राज किया करते थे|

युद्ध करने के उद्देश्य से रावण जब महिष्मति पंहुचा तो वहाँ उसे राजा अर्जुन के मंत्री मिल गए, वहां उसने उन मंत्रियों से पूछा की- “तुम्हारा राजा अर्जुन कहाँ है? मै राक्षसराज रावण उससे युद्ध करने की उद्देश्य से यहाँ आया हूँ| जाओ जहां भी वो हो उसे मेरे आने की सूचना देदो|” ऐसा सुनकर राजा के मंत्रियों ने कहा- “हमारे राजा इस समय यहाँ पर नही हैं, वो किसी जरुरी कार्य से बाहर गए हुए हैं|” इतना सुनने के बाद रावण वहाँ से विन्ध्याचल पर्वत के निकट नर्मदा नदी के तट पर आ गया| वहाँ पहुचते ही रावण ने अपने मंत्रियों प्रहस्त, शुक, सारण, महोदर, धूम्राक्ष और बाकी सैनिकों के साथ नर्मदा नदी में स्नान किया| स्नान करने के बाद रावण ने महादेव शिव-शंकर की आराधना करने की इच्छा जाहिर की, और फिर सभी सैनिकों ने शिव-पूजा के लिए ढेर सारे पुष्प इकट्ठा किये इसके बाद रावण ने नर्मदा नदी के तट पर शिवपूजा शुरू कर दी| उधर कुछ दूरी पर नर्मदा नदी में ही महिष्मति के राजा अर्जुन अपनी स्त्रियों के साथ जल-विहार कर रहे थे, जल-विहार करते हुए अर्जुन इतने ज्यादा प्रसन्न हो गए थे की उन्होंने अपनी शक्ति से नर्मदा जल के वेग को रोककर अनजाने में उस दिशा में भेज दिया जहां रावण शिवपूजा कर रहा था| इस वजह से जल का वेग इतना ज्यादा हो गया था की रावण द्वारा चढ़ाये गए सारे पुष्प उसी जल की धारा में बहने लगे, लगभग आधी पूजा ही समाप्त हुई थी की रावण का ध्यान टूट गया और उसे लगा की जैसे नर्मदा नदी में बाढ़ आ गयी हो|

क्युकी रावण शिव-आराधना कर रहा था इसलिए उसने अपने मंत्री शुक और सारण को संकेत देकर इस बात का पता लगाने भेजा की आखिर नर्मदा में बाढ़ जैसी स्थिति क्यों आ गयी है| उसकी आज्ञा पाते ही शुक और सारण दोनों ही आकाश मार्ग से पश्चिम दिशा की ओर चल दिए, कुछ दूर आगे बढ़ते ही उन दोनों ने देखा की महिष्मति का राजा अर्जुन अपनी स्त्रियों के साथ नर्मदा में जल-विहार कर रहा है| ऐसा देखते ही शुक और सारण तुरंत ही रावण के पास सूचना लेकर पहुच गए, और रावण ने शिवपूजा ख़त्म करके अपने सभी मंत्री और सैनिकों को लेकर उस ओर जा पहुचा जहां अर्जुन जल विहार कर रहे थे| वहाँ पहुचते ही उसने देखा की बहुत से मंत्री और सैनिक अर्जुन की रक्षा के लिए आस पास खड़े हैं,

तब रावण ने उनसे कहा की- “तुम जाकर अर्जुन से कहो की रावण युद्ध करने के उद्देश्य से आया है, ऐसा सुनकर अर्जुन के सैनिकों को बड़ा क्रोध आया और उन सबने कहा की हे रावण! अगर तुम हमारे महाराज से लड़ना चाहते हो तो उससे पहले तुम्हे हम सबसे युद्ध करना पड़ेगा|” ऐसा सुनते ही रावण के सैनिक, अर्जुन के सैनिकों पर टूट पड़े, दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ, एक समय ऐसा आया की रावण के सैनिक, अर्जुन के सैनिकों पर भारी पड़ने लगे, तभी एक सैनिक ने जाकर अर्जुन को इस बारे में जानकारी दी की रावण आपसे युद्ध करने के लिए आया है और उसने हम सभी पर आक्रमण कर दिया है| इतना सुनते ही अर्जुन नर्मदा जल से बाहर निकले और बड़ी ही तेजी से रावण से युद्ध करने के लिए दौड़ पड़े| वहाँ पहुचते ही अर्जुन रावण के सैनिको पर यमराज की तरह टूट पड़े, अकेले ही उन्होंने हज्रारों सैनिको को मौत की नींद सुला दिया| अर्जुन के इस भयंकर रूप को देखकर शुक, सारण और बाकी सारे सैनिक वहाँ से भाग खड़े हुए और फिर अर्जुन और रावण में बहुत ही भयंकर युद्ध छिड़ गया, दोनों ने ही एक दुसरे पर गदा प्रहार करना शुरू कर दिया| युद्ध इतना लंबा होता जा रहा था की ऐसा लग रहा था की जैसे इस युद्ध का अंत कभी नही होगा| काफी लम्बे युद्ध के बाद अर्जुन ने सोचा की अब तो इस युद्ध का अंत करना ही होगा, इसलिए ऐसा सोचकर वो गरुण के तरह रावण पर झपट पड़े और उसे बंदी बनाकर अपनी नगरी महिष्मति जा पहुचे|

अर्जुन द्वारा, रावण को बंदी बनाए जाने का समाचार सारे विश्व में फ़ैल गया चुका था, यहाँ तक की स्वर्ग लोक के सारे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्ही के जरिये ये समाचार रावण के दादा महर्षि पुलत्स्य तक पंहुचा| आप सभी तो जानते ही हैं की दादा और पोते का रिश्ता बहुत ही खास होता है, एक दादा को अपने पोते के लिए इतना प्रेम होता है की वो हर स्थिति में अपने पोते का बचाव करना चाहते है| बस इसी प्रेम के चलते महर्षि पुलत्स्य भी तुरंत राजा अर्जुन की नगरी जा पहुचे| राजा के भवन में प्रवेश करते ही महर्षि पुलत्स्य का भव्य स्वागत किया गया, खुद अर्जुन ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और कहा- “हे महर्षि! आपके आने से हमारा ये नगर धन्य हो गया, शायद मैंने कोई बहुत पूण्य कर्म किये होंगे जिसके कारण आप जैसे सिद्ध ऋषि के दर्शन मुझे हुए| हे प्रभु! ये सारा राज्य आपका ही है, हम सभी आपके सेवक हैं, आप बिना संकोच आज्ञा दीजिये, मुझे क्या करना है?”

ऐसा सुनकर महर्षि पुलत्स्य बोले की- “हे राजन! तुम वाकई परम शक्तिशाली हो, जिसने रावण को हराकर बंदी बना लिया है, इस वजह से पूरी दुनिया में तुम्हारी जय-जयकार हो रही है और इसके साथ ही तुमने रावण के अहंकार को भी ठेस पहुचाई है| इसलिए मुझे अब ये लगता है की रावण को उसकी करनी का दंड मिल चुका है, इसलिए अर्जुन मेरी तुमसे ये विनती है की अब मेरे पोते को अपने कारागार से मुक्त कर दो, और उसे अपना मित्र बना लो, बस इतना ही मै तुमसे विनती करता हूँ|”

इतना सुनते ही राजा अर्जुन ने तुरंत ही रावण को अपने कारागार से मुक्त कर दिया और एक मित्र की तरह पूरे सम्मान के साथ उन्होंने रावण को महर्षि पुलत्स्य के हाथों सौप दिया| महर्षि पुलत्स्य, रावण को मुक्त देखकर बहुत प्रसन्न हुए और अर्जुन को आशीर्वाद देकर ब्रम्हलोक चले गए| लेकिन रावण तो आखिर रावण ही था, इतना सब होने के बाद भी उसके मन से शक्ति का अहंकार नही गया, महाराज अर्जुन की मित्रता पाने के बाद वो फिर से तीनों लोक घुमने लगा और उसके द्वारा राजाओ-महाराजो का संहार करके सत्ता हासिल करने का सिलसिला जारी रहा|

उम्मीद है आज की ये रोचक कथा आपको पसंद आयी होगी, आप अपनी राय हमें कमेंट बॉक्स के माध्यम से दे सकते हैं

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