डालडा: एक विलायती घी के किचन में राज करने की कहानी
भारत, अनोखी परम्पराओं का देश। एक देश जिसकी संस्कृति को समूचे विश्व ने माना है। उस संस्कृति का सबसे बड़ा हिस्सा हमें आदर सिखाता है। आदर बड़ों का, आदर मेहमानों का, आदर अन्न का। ये हमारी संस्कृति ही है, जिसकी वजह से हम अपने गुज़रे हुए कल को आदर से मुस्कुराहट के साथ याद करते हैं।
इस याद के किसी कोने में दबा एक शब्द हर बार हमें हमारे बचपन में मिलने वाली खाने की थाली याद दिलाता है। जिस थाली में बहुत बड़ा हिस्सा था, उस शब्द का जिसने भारतीय बाज़ार को एक नयी शक्ल दी। वो शब्द जो आगे चलकर ब्रैंड बना। वो ब्रैंड जिसने कई विवादों को झूठा साबित कर, हर भारतीय की यादों में जगह बनाई।
वो ब्रैंड जिसे हम ‘डालडा’ कहते हैं। तो चलिये दोस्तों! बिज़ टॉक्स की ख़ास श्रंखला ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ में, हेरिटेज ब्रैंड ‘डालडा’ के अस्तित्व में आने से लेकर बाज़ार का राजा बनने तक और फिर बाज़ार से गायब होने के सफ़र को बारीक़ी से जानेंगे। हम जानेंगे किस तरह वनस्पति घी का एक ब्रैंड ‘डालडा’, उसका ही एक पर्याय बन गया।
हम जानेंगे किस तरह अफ़वाहो ने ‘डालडा’ को गुमनामी के अँधेरे में धकेल दिया। हम जानेंगे किस तरह ‘डालडा’ आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन, इन सबसे पहले हम इस कहानी की शुरुआत करेंगे
#कहाँ से आया डालडा शब्द ? (डालडा शब्द के अस्तित्व में आने की कहानी):-
दोस्तों, आज भले ही ‘डालडा’ शब्द की हमारे दिल में एक अलग छाप है। मगर, इस शब्द के अस्तित्व में आने की कहानी बड़ी अनूठी है। जिसकी शुरूआत साल 1930 में होती है। उस वक़्त तक निदरलैंड की एक कंपनी ‘डाडा’, भारत में वनस्पति तेल प्रोड्यूस करती और अन्य देशों को एक्सपोर्ट करती थी। इधर, भारत के बाज़ारों में शुद्ध देसी घी के दाम आसमान छू रहे थे।
एक ऐसे देश में जहाँ हर महीने बड़े त्यौहार आते हों और मिलने-झुलने का रिवाज हो। वहाँ के किचन में ख़ास पकवानो और मिठाईयों में देसी घी का इस्तेमाल आम आदमी का बजट बिगाड़ रहा था। भारतीय बाज़ार को देसी घी के विकल्प की तलाश थी। ये कंपनियों के लिये बहुत बड़ा मौका था। जिसे भुनाने की शुरूआत की ब्रिटिश कम्पनी लीवर ब्रदर्स ने, जिन्हे अब यूनिलीवर और भारत में हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड के नाम से जाना जाता है।
यूरोप की लीवर ब्रदर्स कम्पनी शुरुआत में होम और पर्सनल केयर प्रोडक्ट बनाती थी। 20वीं सदी की शुरुआत से ही लीवर ब्रदर्स फ़ूड प्रोडक्ट (खाद्य उत्पाद) क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी थी। यही वजह रही कि उन्होंने भारत में वनस्पति घी के उत्पादन की योजना को ज़मीन पर उतारा। जिसका पहला क़दम 1931 में हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी की स्थापना के रूप में पड़ा।
जबकि, दूसरा बड़ा और मज़बूत क़दम अगले साल 1932 में मुंबई में वनस्पति घी उत्पादन फैक्ट्री के साथ जमा। लीवर ब्रदर्स ने भारत में वनस्पति घी व्यापार के लिये नींव रख दी थी। लेकिन, इस कहानी में बड़ा मोड़ तब आया, जब लीवर ब्रदर्स ने भारत में ‘डाडा’ के अधिकार हासिल कर लिये। मगर, अभी एक ट्विस्ट और था।
‘डाडा’ को लीवर ब्रदर्स के हाथों बेचते वक़्त ये शर्त रखी गयी, कि प्रोडक्ट का नाम ‘डाडा’ ही रहेगा और कभी बदला नहीं जायेगा। मगर, लीवर ब्रदर्स का मानना था कि प्रोडक्ट पर कहीं तो मालिक कंपनी का निशान होना चाहिये। ऐसे में बाज़ार और ग्राहक की पैनी समझ रखने वाली लीवर ब्रदर्स ने एक अनोखा रास्ता खोजा। इस तरह लीवर शब्द का पहला अक्षर ‘एल’, ‘डाडा’ नाम के बीच में लगाया गया और 1937 में पहली बार ‘डालडा’ शब्द अस्तित्व में आया।
#क्या अंतर था ‘डालडा’ के वन्सपति घी और शुद्ध देसी घी में:-
दोस्तों, ‘डाडा’ को ‘डालडा’ करने से और वनस्पति तेल को हैड्रोजनेरटेड कर वनस्पति घी बनाने भर से ही, लिवर ब्रदर्स को उनके मकसद में क़ामयाबी नहीं मिलने वाली थी। ‘डालडा’ के सामने असली चुनौती भारतीयों के वनस्पति घी पर भरोसे को लेकर थी। इस बात पर आज भी भरोसा करना मुश्किल है कि कोई प्रोडक्ट देसी घी की जगह ले-सकता है और तब तो समाज आज की तुलना में इतना एडवांस भी नही था।
ऐसे में ‘डालडा’ के भारतीय बाज़ार फ़ेल होने की सम्भावनाये बढ़ गयीं। मगर, लिवर ब्रदर्स हार मानने वाले नहीं थी। ‘डालडा’ की मैन्युफैक्चरिंग पर काम किया गया। उसे दाने-दार, सुगंधित और एक अलग स्वाद वाला बनाया गया। हालाँकि, अब भी ‘डालडा’ देसी घी के मुक़ाबले कई गुणों में पीछे था। मगर, ‘डालडा’ की बहुत-सी खूबियों ने उसे मार्केट में बनाये रखा।
इतना सब होने के बाद ‘डालडा’ के सामने अगली समस्या ये थी। कि, ‘डालडा’ को घर-घर तक कैसे पहुंचाया जाये? तब ‘डालडा’ के लिये संकटमोचक बनकर लीवर की विज्ञापन एजेंसी लिंटास सामने आई।
#इतिहास का सबसे बड़ा विज्ञापन अभियान:-
लिंटास ने ‘डालडा’ की मार्केटिंग के लिये एक ऐसे एडवरटाइजिंग कैम्पेन की शुरुआत की, जिसकी भारतीय बाज़ार में कोई दूसरी मिसाल नहीं है। उस दौरान लिंटास मेंं डालडा के एडवरटाइजिंग हैड हार्वी डंकन ने 1939 में भारत का पहला मल्टी मीडिया विज्ञापन अभियान तैयार किया। जिसके अंतर्गत सबसे पहले एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई गई। जो थियेटरों में इंटरवल के दौरान चलाई गयी।
साथ ही लाखों पैम्फलेट बाँटे गये और अखबारों में विज्ञापन भी दिए गये। मगर, ये सभी एडवर्टाइज़मेन्ट समाज के पढ़े-लिखे तपके तक ही सीमित थे। आम लोगों तक पहुंचने के लिए एक अनोखा तरीका अपनाया गया। कनस्तर की तरह दिखने वाली गोल आकृति वाली वैन हर शहर में घूमने लगी। जिसने समाज के हर वर्ग का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसके अलावा कई स्टॉल लगाए गए।
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जहाँ ग्राहकों को ‘डालडा’ घी छूने, चखने और सूँघने की इजाज़त दी गयी। दूसरी तरफ़ ‘डालडा’ केवल अपने विज्ञापन अभियान पर निर्भर नहीं था। बाज़ार के हिसाब से भी ‘डालडा’ ने ख़ुद को ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दुकानों पर मिलने वाला ‘डालडा’ का पीले रंग का टिन का डिब्बा ग्राहकों को बहुत पसंद आया। बाक़ी कमाल डिब्बे पर खजूर के हरे रंग के पेड़ वाले लोगो ने कर दिया।
लीवर ने अपने डिस्ट्रीब्यूटर नेटवर्क के ज़रिए इन टिन के डिब्बों को देश के हर हिस्से में भिजवाया। इतना ही नहीं अलग उपभोक्ताओं को अलग आकार के पैक दिये गये। जैसे बड़े होटल-रेस्तरां के लिए टिन के बड़े और चौकोर डिब्बे यूज़ किये गए। जबकि, घरों के लिए टिन वाले छोटे डब्बे और प्लस्टिक के पीले रंग के गोल डिब्बे उपलब्ध कराये गये।
लीवर के इस इतिहासिक विज्ञापन अभियान का नतीजा ये रहा कि सस्ता ‘डालडा’ आम आदमी के किचन तक पहुंच गया और जल्द ही शुद्घ घी का भरोसेमंद विकल्प बन गया।
#जब लोकसभा में डालडा बना बहस का मुद्दा:-
दोस्तों, विज्ञापन की समझ रखने वालों की मानें तो क़रीब 30 सालों तक डालडा का लोकल और इंटरनेशनल लेवल पर फ़ूड आयल क्षेत्र में कोई सानी नहीं था। आसान लफ़्ज़ों में कहें तो डालडा ने 1980 के दशक तक बाज़ार पर अपनी मोनोपॉली (एकाधिकार) जमा रखी थी। मगर, ये सफ़र इतना आसान नहीं था, जितना दिखाई देता है। इस लम्बे सफ़र में डालडा को कई बार आरोप झेलने पड़े। उसे कोर्ट तक लाया गया।
बैन करने की बात होने लगीं और हद तब हुई जब डालडा लोकसभा में बहस की वजह बन गया। दरअसल, हुआ ये था कि 1940 में डालडा के मार्किट में आने के बाद भी भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा शुद्ध देसी घी के पक्ष में था और डालडा को ‘विलायती घी’ बताकर ज़बरदस्त विरोध कर रहा था।
इस विरोध का असर ये हुआ कि उन दिनों शादी-ब्याह में भोजन करने से पहले लोग पूछने लगे कि ‘रसोई में ‘विलायती घी’ (डालडा वनस्पति) प्रयोग हुआ है या गाय के दूध से बना देसी घी’। ‘डालडा’ का विरोध इतना बढ़ा कि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस मामले में जनमत सर्वेक्षण किया और एक समिति का भी गठन किया।
लेकिन, मिलावट का कोई हल सामने नहीं आया। इस बहस ने 50 के दशक में इतना तूल पकड़ा कि बात लोकसभा तक पहुंच गई। तत्कालीन सांसद ठाकुरदास भार्गव ने बिल पेश करते हुए मांग रखी कि ‘सरकार देश में वनस्पति घी के उत्पादन और बिक्री पर कानूनी प्रतिबंध लगाया जाये’।
संसद में बहस छिड़ी और कहा गया कि ‘वनस्पति घी के 47 कारखाने (तब के हिसाब से) हैं, जहां क़रीब 30 हज़ार लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। इस क़ानून के बाद वो बेरोज़गार हो जाएंगे’। हालाँकि, इस लंबी दिलचस्प बहस के बावजूद वनस्पति घी पर प्रतिबंध का प्रस्तावित बिल लोकसभा में पास नहीं हुआ और डालडा की क़ामयाबी का सिलसिला जारी रहा।
#….और फिर शुरू हुआ ‘डालडा‘ का अंत:-
दोस्तों, वैसे तो मार्किट में उतरने से लेकर 90 के दशक तक डालडा ने कई आरोपों, कई समस्यायों और कई चुनौतियों का करारा जवाब दिया। मगर, किसी ने सही कहा है ‘सदा वक़्त एक समान नहीं रहता है’। यही हुआ 90 के दशक में डालडा के साथ। दरअसल, साल 1990 में एक न्यूज़ एजेंसी ने आरोप लगाये कि वनस्पति घी को अधिक चिकना बनाने के लिए कम्पनियाँ निर्माण के समय उसमें जानवरों की चर्बी मिलाती है।
ये एक ऐसा आरोप था जिसको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा-सकता था। डालडा ने भारतीय ग्राहकों का भरोसा खो दिया। हालाँकि, डालडा ने वापसी की ढेरों कोशिशें की। लेकिन, उस समय तक डालडा का मुकाबला रिफाइन्ड वनस्पति तेलों से शुरू हो चुका था। अब मार्किट में सस्ते दामों पर मूंगफली का तेल, सोयाबीन ऑयल, सनफ्लॉवर ऑयल आदि उपलब्ध थे।
ग्राहकों के पास अनेक विकल्प थे। साथ ही रिफाइन्ड तेल को वनस्पति घी की तुलना में अधिक सेहतमंद सिद्ध किया गया। अब डालडा देश के रसोई घरों में अपनी पकड़ खो रहा था। शेयर मार्किट में ‘डालडा’ की क़ीमत गिर रही थी। कई सालों तक नुकसान उठाने के बाद आख़िरकार वर्ष 2003 में हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड ने लगभग 100 करोड़ रुपये में ‘डालडा’ के अधिकार अमेरिकी कंपनी बंज (बंगे) को बेच दिये।
बंज के लिए फ़ूड ऑयल के बाज़ार में ‘डालडा’ वनस्पति घी की यादों के चलते शुरुआत में परेशानियाँ पेश आयीं। लेकिन, 2013 के बाद से ‘डालडा‘ रिफाइंड ऑयल नयी ऊर्जा और नई मार्किट स्ट्रेटेजी के साथ मैदान में उतरा। जिसका नतीजा ये है कि ‘डालडा‘ का नाम आज भी भारतीय बाज़ार में ज़िंदा है।
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