पुत्र द्वारा ही पिंडदान करवाने का नियम क्यों ?
मित्रों, मृत्यु इस दुनिया का एक ऐसा सच है, जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता। इस दुनिया में जो भी आया है, उसका मरना बिलकुल निश्चित है। और ये बात भी तय है कि जो भी मरता है, उसका पुनर्जन्म भी होता है, जो की व्यक्ति के पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों पर निर्भर करता है। लेकिन एक व्यक्ति के मरने के बाद बहुत से जरुरी क्रिया-कर्म गरुण पुराण में बताये गएँ हैं, जिनको करना बेहद जरुरी है।
गरुण-पुराण
अगर गरुण-पुराण के अनुसार बात की जाए तो कोई व्यक्ति मरने के तुरंत बाद ही पुनर्जन्म को प्राप्त नही हो जाता, उसके लिए उसके पुत्र को उस व्यक्ति का अंतिम संस्कार से लेकर, पिंडदान जैसे और भी कर्म करने होते हैं, और फिर इन्ही सब प्रक्रिया से गुजरते हुए वो जीव पहले प्रेतयोनि में जाता है, फिर अपने कर्म के हिसाब से स्वर्ग या नरक जाकर अपना सुख या दुःख भोगता है।
अंतिम-संस्कार, पिंडदान या श्राद्धकर्म करने के लिए पुत्र का होना क्यों जरुरी है ?
जब एक निश्चित समय के बाद वो जीव सुख या दुःख भोग लेता है तो फिर से उसे इसी धरती पर आकर जन्म लेना पड़ता है। लेकिन इन सभी बातो में एक सवाल ये भी उठता है कि अंतिम-संस्कार, पिंडदान या श्राद्धकर्म करने के लिए पुत्र का होना क्यों जरुरी है? आज के इस विशेष अंक में हम आपको ऐसी ही एक ख़ास जानकारी के बारे में बताने जा रहे हैं।
गरुण-पुराण के सातवें अध्याय के अनुसार- पक्षिराज गरुण, भगवान् विष्णु से पूछते हैं कि- “हे प्रभु! कृपा करके ऐसा उपाय बताइए जिससे कि जो मनुष्य पापी है, या जो हमेशा पाप कर्म में ही लगा रहता है, ऐसे लोगों का उद्धार कैसे होगा?” इस पर श्रीहरि कहते हैं की-“ हे गरुण! जो व्यक्ति धर्मात्मा स्वभाव का है, या जिसकी संतान पुत्र है, उसकी आत्मा को कभी कष्ट भोगना नहीं पड़ता।
अगर उसके पिछले जन्म की कुछ गलतियों की वजह से पुत्र प्राप्ति नहीं हो रही है तो उसे चाहिए की कोई न कोई उपाय, या पूजा पाठ के जरिये पुत्र प्राप्ति के लिए कोशिश करे।
महादेव शिव
उसे चाहिए की नियमपूर्वक महादेव शिव-शंकर की पूजा करे और शतचंडी यज्ञ करवाए, जिससे उसे पुत्र की प्राप्ति हो। असल में पुत्र ही एक ऐसा है जो पितरों की पुम नाम के नर्क से रक्षा करता है, इसलिए खुद परमपिता ब्रम्हा ने उसे पुत्र नाम प्रदान किया है। अगर एक पुत्र धर्मात्मा स्वभाव का है, तो उसमे इतनी ताकत होती है कि वो अपने कुल का उद्धार कर सकता है।
वेदों में कहा गया है कि पुत्र का मुख देखकर इन्सान पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है, और यहाँ तक की अगर पौत्र यानि पोते का मुख देखने को मिल जाए तो एक व्यक्ति देव, ऋषि और पितृ तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है।
पुत्र द्वारा किये गए श्राद्ध से पिता को स्वर्ग प्राप्त होता है, श्राद्ध का भी अपना एक अलग महत्व है क्योकि किसी दुसरे व्यक्ति द्वारा किये गए श्राद्ध से भी जीवात्मा को प्रेत-योनी से मुक्ति मिल जाती है और वो स्वर्ग को चला जाता है। हे गरुण! इस बारे में और विस्तार से मैं तुम्हे एक घटना का उदाहरण देकर समझाता हूँ।
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त्रेतायुग
बात त्रेतायुग की है, उस समय महोदय नाम के सुन्दर नगर में एक बहुत ही शक्तिशाली और धर्मात्मा राजा रहा करते थे, जिनका नाम बभ्रूवाहन था। बभ्रूवाहन बहुत ही दानी, धन-धान्य से सम्पन्न, ब्राम्हणों का आदर करने वाले, अपनी प्रजा की रक्षा करने वाले और बहुत ही दयालु स्वभाव के थे।
एक समय की बात है, एक दिन राजा अपनी बहुत ही भारी सेना के साथ बड़े ही घोर जंगल में हिरन का शिकार करने के लिए निकल पड़े। अचानक ही उन्हें एक हिरन दिखाई दिया जिस पर उन्होंने बाण छोड़ दिया, वो बाण हिरन के पेट में जा लगा जिससे उसके पेट से खून निकलने लगा, लेकिन हिरन मरा नही बल्कि उसी घायल अवस्था में वो दूसरी तरफ भागने लगा।
राजा ने उस हिरन का पीछा किया और रस्ते में जो खून गिरा था उसी को देखते देखते आगे बढ़ते गए। पीछा करते-करते राजा एक जंगल से दुसरे जंगल जा पंहुचे, और वो इतना ज्यादा थक चुके थे की अचानक ही उन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। वहीँ उन्हें थोड़ी दूर पर एक जल से भरा सरोवर मिला, जहां राजा ने वहाँ पर स्नान किया और जल पिया।
स्नान करने के बाद राजा, पास ही एक पीपल के पेड़ के नीचे जाकर बैठ कर अपनी थकान मिटाने लगे। कुछ समय बाद ही अचानक एक भूखा-प्यासा और बहुत ही भयानक दिखने वाला एक प्रेत वहीँ पर आ गया। उस प्रेत को देखकर राजा घबरा गए और प्रेत भी सोचने लगा की इस घने जंगल में राजा यहाँ क्या कर रहा है।
तभी राजा बभ्रूवाहन ने प्रेतराज से पुछा की-“ हे प्रेतराज! तुम बहुत ही काले और भयानक दिखाई दे रहे हो, किस वजह से तुम्हे प्रेत-योनी की प्राप्ति हुई? क्या कोई उपाय ऐसा भी है जिससे तुम्हे प्रेत-योनी से मुक्ति मिल जाये?” इस पर प्रेतराज ने उत्तर दिया की-“ हे राजन! मै अपनी पूरी कथा आपको शुरू से बताता हूँ, और मै आपके ही जरिये इस प्रेत योनी से मुक्त होना चाहूँगा, उसका उपाय भी मैं आपको बताता हूँ।
मनुष्य योनी में, मेरा नाम सुदेव था और मैं वैदिश नाम के नगर में रहता था, जो बहुत ही संपन्न नगर था और वहाँ बहुत ही धनी लोग रहा करते थे। वहीँ पर मैं, भगवान् की पूजा, यज्ञ, हवन और पितरों का श्राद्ध भी किया करता था।
मैं गरीबों और जरुरतमंदों की मदद भी किया करता था और साथ ही साथ ब्राम्हणों को भी भरपूर दान दिया करता था। लेकिन मेरे कुछ पापों के चलते बदकिस्मती से मेरा सारा पुण्य नष्ट हो गया।
मेरी कोई संतान नही थी और न ही परिवार का कोई खास सदस्य इसके अलावा मेरा कोई मित्र भी नहीं था। मेरे मरने के बाद मेरा क्रिया-कर्म और श्राद्ध करने वाला भी कोई न था और इसलिए मैं अभी तक प्रेत योनी में भटक रहा हूँ। इसलिए हे राजन! मैं चाहता हूँ की आप मेरा पिंडदान करके मुझे प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाइये क्योंकि शास्त्रों में राजा को सभी का मित्र और बंधू कहा गया है।
मैं आपको, अपने प्रेत-मुक्ति का उपाय बताता हूँ उसे सुनिए, आप अच्छे तरीके से स्नान करके शुद्ध हो जाइए और फिर शास्त्र के अनुसार श्राद्ध कर्म करिए, इसके बाद ब्राम्हणों को तेरह तरह के वस्तुओं का दान करिए। इसके बाद शय्यादान करके प्रेत के लिए घट का दान भी कीजिये।
प्रेत-घट दान क्या होता है, इसके बारे में मैं आपको बताता हूँ जो कुछ इस तरह से है की- एक छोटे से सोने का घट यानि घड़ा बनवाकर उसे दूध और घी से भरकर ब्राम्हणों को दान करें, प्रेतघट दान सबसे महत्वपूर्ण दान होता है जिसे हर किसी को जरुर करना चाहिए क्योकि इस दान के बाद और किसी दान करने की जरुरत नही पड़ती।
ये सब उपाय बताने के बाद वो प्रेत राजा से अपने प्रेत योनी की मुक्ति की प्रार्थना करके वहाँ से गायब हो गया। इसके बाद, राजा बभ्रूवाहन ने अपने नगर पहुचकर, उस प्रेत को दिए हुए वचन का पालन किया और पूरे नियम के साथ उन्होंने उस प्रेत के लिए पिंडदान, घटदान और श्राद्ध जैसे कर्म किये। राजा द्वारा किये गए कर्मकांड की वजह से उस प्रेत को मुक्ति मिली और उसे स्वर्ग में स्थान मिला।
भगवान् विष्णु-
इस तरह भगवान् विष्णु फिर से गरुण को समझाते हुए कहते हैं की अगर किसी दुसरे के द्वारा किये गए पिंडदान से प्रेत को स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है तो फिर पुत्र के द्वारा किये श्राद्ध और पिंडदान से तो मनुष्य निश्चित ही स्वर्ग लोक को जायेगा।
तो इस कथा से एक बात तो साफ हो जाती है की अगर सुदेव का अपना कोई पुत्र होता तो उसे इतने सालों तक प्रेत योनी में न भटकना पड़ता, इसलिए शास्त्रों और पुराणों में किसी भी व्यक्ति की अंतिम क्रिया को उसके पुत्र के हाथों करवाना ही उत्तम माना गया है।
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