Dharmik

हवन करते समय स्वाहा क्यों बोला जाता है ?

Why do some mantras end with Namah & Others end with Swaha?

मित्रों!  हमारा सनातन धर्म, अपनी परम्परा, रीती-रिवाज, और मुख्य रूप से अपने आध्यात्मिक और धार्मिक अनुष्ठानों के कारण ही एक विशेष और अलग स्थान रखता है, जिसके बारे में लगभग हर कोई जानता है| प्राचीन काल से ही हमारे समाज के बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए जप, तप, पूजा-पाठ और यज्ञ-हवन जैसी परम्पराओं की शुरुवात की, साथ ही साथ इन परम्पराओं का उल्लेख हमारे वेदों और शास्त्रों में भी बड़े ही विस्तार से किआ गया है|

देवताओं को प्रसन्न करके उनकी विशेष कृपा पाने के लिए प्रतिदिन यज्ञ करने का नियम वेदों में लिखा है, जिससे की हमारा परिवार और हम सब सकारात्मक ऊर्जा के साथ अपने जीवन की शुरुवात कर सकें, और इसलिए आज भी बड़े-बड़े संत प्रतिदिन यज्ञ-हवन करते हैं, ताकि हमारे देश और समाज में शांति बनी रहे, भले ही हम अपनी निजी व्यस्तता के कारण नियमित रूप से हवन न कर सकें| धार्मिक दृष्टि से यज्ञ करने का मुख्य कारण देवताओं को प्रसन्न करना होता है साथ ही साथ यज्ञ अथवा हवन करते समय हम जो भी पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वो देवताओं को प्राप्त होता है, जिससे देवता हम पर प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद देते हैं|

हवन करने का नियम आम तौर से लगभग सभी को पता रहता है, जैसे की हवन सामग्री को देशी घी के मिश्रण के साथ हवन में डाला जाता है और हवन में आहुति डालते समय स्वाहा का उच्चारण किया जाता है| इस बात पर हमारे बड़े बुजुर्ग अक्सर जोर देते हैं की जब भी हवन में आहुति डालो तो स्वाहा जरुर कहो, लेकिन क्या कभी आपने इस बात पर गौर किया है की आहुति डालते समय स्वाहा कहना क्यों जरुरी होता है? आखिर स्वाहा का यज्ञ करने से क्या सम्बन्ध हो सकता है? स्वाहा का मतलब क्या होता है? तो आइये आज  इसी तथ्य पर विस्तार से चर्चा करें ।

                                                                                                           Havan

 

मित्रों, हमारे सनातन धर्म में जो भी वैदिक रीती रिवाज प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, उसके पीछे कोई न कोई विशेष कारण अवश्य रहा है, क्योकि उन कारणों की विस्तृत जानकारी हमारे पुराणों और शास्त्रों में बहुत ही विस्तार से दी गयी है, जरुरत है तो बस उन रहस्यों को जानने की| ब्रम्ह्वैवर्त पुराण के प्रकृतिखंड के अनुसार- सृष्टि निर्माण के बाद जब सभी प्राणियों की उत्पत्ति हो गयी, तब एक बार सारे देवता परमपिता ब्रम्हा के पास पधारे| ब्रम्ह्लोक पहुचकर सभी देवताओं ने उनको प्रणाम किया और कहा-

“हे ब्रम्हदेव! भगवान् नारायण की आज्ञा से आपने सारे विश्व की रचना की, मृत्युलोक में मनुष्यों की रचना की और उनके भोजन का भी प्रबंध किया लेकिन हे ब्रम्हदेव! देवता भी आपकी कृपा से ही उत्पन्न हुए हैं, लेकिन हमारे भोजन का क्या प्रबंध है?, यही जानने के उदेश्य से हम आपके पास आये हैं|”

देवताओं की इन बातों को सुनकर ब्रम्हा जी ने कुछ विचार किया और फिर वो वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए और भगवान् नारायण के पास जा पहुचे| भगवान् नारायण से उन्होंने प्रार्थना की, कि- हे प्रभु! देवताओं के इस कष्ट को कैसे दूर किया जाये?” तब नारायण बोले की-

“हे ब्रम्हा ! आप मेरे ही अंश से उत्पन्न भगवती प्रकृति का ध्यान कीजिये, जिन्होंने इस सृष्टि निर्माण में अपना योगदान दिया था|”

इसके बाद ब्रम्हा जी ने ऐसा ही किया, काफी समय के लम्बे ध्यान के बाद भगवती प्रकृति अपनी कला द्वारा अग्नि की दाहिकाशक्ति स्वाहा के रूप में प्रकट हुई| तब भगवती स्वाहा ने ब्रम्हा से वरदान मांगने को कहा, इस पर ब्रम्हदेव बोले की- “हे भगवती स्वाहा! संसार में बनाये नियम के अनुसार- जिस तरह एक पुरुष का हर कार्य एक स्त्री के बिना अधूरा है, ठीक उसी तरह मैं चाहता हूँ की तुम अग्नि देव की पत्नी बनना स्वीकार करो, ताकि संसार में जो भी मनुष्य यज्ञ करते समय आहुति डाले वो आप दोनों को एक साथ प्राप्त हो, और तभी उनके द्वारा दी गयी आहुति देवताओं को भोजन के रूप में प्राप्त हो सकेगी|”

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ब्रम्हा जी की इन बातों को सुनकर देवी स्वाहा थोड़ी चिंता में पड़ गयीं, और कहने लगी की- “हे ब्रम्हदेव! मै तो केवल उन्ही परमात्मा भगवान् नारायण की भक्त हूँ जिन्होंने इस संसार को बनाया, जिनके द्वारा ही ब्रम्हा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई है, और इसलिए मै केवल उनके चरणों में ही रहना चाहती हूँ|” इतना कहकर देवी स्वाहा भगवान् नारायण की कठिन तपस्या करने लगी, कई वर्ष बीत गए लेकिन देवी स्वाहा एक पैर से खड़े-खड़े तपस्या करती रही ।

काफी समय बीतने के बाद नारायण प्रकट हुए और उन्होंने देवी स्वाहा से कहा की- “हे देवी! मै ये जानता हूँ की तुम मुझे प्राप्त करने के लिए ही तपस्या कर रही हो, लेकिन इस समय संसार के नियमो को संतुलित करने के लिए देवताओं को तुम्हारी आवश्यकता है, मेर्री ही आज्ञा से ब्रम्हा ने तुम्हारा ध्यान किया था, इसलिए तुम आज की परिस्थिति को देखते हुए अग्निदेव से विवाह कर लो ।

इसके बदले में मै तुम्हे ये वरदान देता हूँ की वाराह्कल्प में तुम मेरी प्रिया बनोगी और राजा नाग्रजित की पुत्री नाग्रजिती के नाम से प्रसिद्ध होगी|” प्रभु नारायण से वरदान प्राप्त करने के बाद देवी स्वाहा ब्रम्हलोक पहुची और अग्निदेव से विवाह करने की बात स्वीकार कर ली। ब्रम्हा जी ने उचित मुहूर्त जानकर अग्नि देव को बुलाया और देवी स्वाहा से उनका विवाह करवा दिया।

और साथ ही उन दोनों को ये आशीर्वाद भी दिया की संसार का जो भी व्यक्ति यज्ञ या हवन करने के दौरान मन्त्र के अंत में स्वाहा कहकर अग्नि में आहुति डालेगा, केवल उसी की आहुति स्वीकार की जायेगी अन्यथा बिना स्वाहा कहे आहुति डालने का कोई भी फल यजमान को प्राप्त नही होगा| जिस तरह बिना विष के सांप, बिना धर्म ज्ञान के ब्राम्हण, और बिना फल के पेड़ किसी काम के नहीं होते ठीक उसी तरह स्वाहाहीन मन्त्र बोलने का कोई मतलब नही है| तभी से संसार का हर प्राणी जो हवन करता है,उसे मन्त्र उच्चारण के अंत में स्वाहा जरुर बोलना होता है, जिससे हवन में डाली गयी आहूतिया देवताओं को प्राप्त होती है।

स्वाहा के अन्य नाम जैसे आद्या, मन्त्रफलदात्री, सिध्धा, संसाररूपा जैसे अन्य चौदह नाम और बताये गए हैं।

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