यूँ तो अकेलापन कोई बीमारी नहीं है ,लेकिन कोई हाल पूछने वाला हो तो हाल, बेहाल होते हुए भी तबियत अच्छा हो जाती है | अक्सर अकेलेपन का नाम आते ही ,हमारे दिमाग़ में एक असफल ,निराश और लाचार इंसान का चित्र उभर आता है| लेकिन आज ऐसी गंभीर भूमिका जिसके के लिए हमें बाँधनी पड़ रही है,
वो ना सिर्फ बॉलीवुड की सफल अभिनेत्रियों में शुमार हैँ,बल्कि उन्होंने एक गायिका के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है|
बावजूद इसके ,जीवन के आखिरी सफर में इन्होंने खुद को अकेला ही पाया और साथ ही इस कड़वे सच को दिलेरी से स्वीकार्य भी किया | जिनके हुस्न के चर्चे उस ज़माने में लोगो के जुबाँ पर ख़त्म होने के नाम नहीं लेते थे । उनकी मधुर और सुरीली आवाज सुनने वाले लोग इन्हे कभी अपने ज़ेहन से निकाल नहीं पाए|
इनका शानदार अभिनय उस दौर की कई बॉलीवुड फिल्मों की जान थी तो इनकी जानदार प्ले बैक सिंगिंग कई फिल्मों की धड़कन| जी हाँ ,हम बात कर रहे हैँ सुर और अभिनय के अनोखे संगम सुरैया की |
अपने ज़माने की ये मशहूर अदाकारा और गायिका जिनके पीछे कभी जमाना पागल हुआ करता था, आखिर वो किसकी दीवानी थी? जिनके घर के बाहर प्रसंशको के भीड़ से सड़क जाम हो जाती थी आखिर वो अपने फ़िल्मी सफर के बाद इतनी अकेली क्यों पड़ गई?
सुरैया के जीवन के कुछ अनोखे पहलू
सुरैया जी का जन्म 15 जून 1929 को गुंजरवाला में हुआ था , जो वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त का हिस्सा है | इनका पूरा नाम सुरैया जमाल शेख था। अपने माँ बाप की इकलौती संतान होने के कारण सुरैया काफ़ी नाजो से पली बढ़ी ..इनके पिता एक साधारण बढ़ई और इनकी माँ एक गायिका थी |
बचपन में ही सुरैया जी को कुछ पारिवारिक कारणों से इनके ननिहाल ले आया गया।
और उनकी पढ़ाई भी मुंबई से पूरी हुई | चूँकि इनकी मां गायिका थी जिस वजह से इनकी भी रुचि संगीत में होती चली गयी | इसके आलावा इन्होने किसी भी तरह का संगीत प्रशिक्षण नहीं लिया था | बस छोटे मोटे नग्मे गुनगुना लिया करती थीं |
आइये अब बात करते हैं सुरैया जी के बचपन के बाद इनके फ़िल्मी सफर की…
यानि एक साधारण लड़की सुरैया का बॉलीवुड में पदार्पण….
सुरैया के चाचा ज़हूर अहमद उस दौर की फिल्मों में खलनायक हुआ करते थे । उन्ही की सिफारिश पर सुरैया को 1937 की फ़िल्म “उसने क्या सोचा ” में एक बाल कलाकार का किरदार मिला |
1941 में स्कूल की छुट्टियों के दौरान सुरैया मोहन स्टूडियो में फिल्म “ताजमहल ” की शूटिंग देखने गयी थीं , वहीँ निर्देशक नानूभाई वकील की नजर सुरैया पर पड़ी और उन्होंने एक ही नजर में 12 साल की सुरैया को मुमताज महल के बचपन के किरदार के लिए चुन लिया ।बस यही से शुरू हुआ सुरैया का फ़िल्मी सफर |
हालांकि उस वक्त सुरैया की उम्र काफी कम थीं , लेकिन वो इस फ़िल्म से कई फ़िल्म निर्देशकों के नजर में आ गई | कहा जाता है कि उस वक्त में जितना मशक्क़त अभिनेत्रियों को फ़िल्म ढूंढ़ने के लिए करना पड़ता था उससे कहीं ज्यादा मशक्क़त फ़िल्म निर्देशकों को अभिनेत्री ढूंढ़ने में करना पड़ता था |
जिस तरह सुरैया के अभिनय की शुरुआत हुई ,वैसे ही एक किस्सा इनके गायन का भी है|
एक बार उन्होंने अपने बचपन के मित्र राज कपूर और मदन मोहन के कहने पर आल इंडिया रेडिओ में गाने का मन बनाया | दरअसल उस वक्त राज कपूर और महान संगीतकार मदन मोहन भी अपने बचपन के दौर में ही थे | बस यही से सुरैया की आवाज रेडियो के माध्यम से उस ज़माने के मशहूर संगीतकार नौशाद साहब तक पहुंची | नौशाद साहब को सुरैया की आवाज काफ़ी पसंद आयी ।और उन्होंने सुरैया जी से फिल्म “शारदा ” में गीत गवाया | उस वक्त उनकी मात्र 13 साल की थी | इसके बाद सुरैया ने उस दौर की कई फिल्मों में अपनी आवाज दी ।
यूँ सुरैया के गानों की लम्बी लिस्ट कभी ख़त्म नहीं होती, लेकिन उनके सदाबहार नग्मों में ” तू मेरा चाँद ” “चार दिन की चांदनी ” और बेकरार हैं कोई ,जैसे दर्जनों गीत शामिल हैं,
साथ ही उनका एक गीत “वो पास रहें या दूर ” अभी भी उनके प्रसंशको के यादों में है जो सुरैया जी को बयां करती हैं | साल 1945 मे प्रदर्शित फिल्म तदबीर में के. एल. सहगल के साथ काम करने के बाद धीरे-धीरे उनकी पहचान फिल्म इंडस्ट्री में बनती गई। जिससे उन्हें फिल्मों में बतौर कलाकार भी काम मिलना शुरू हो गया |
Read this also-गीत ‘खइके पान बनारस वाला’ गाने के किस स्टेप को अमिताभ बच्चन ने अभिषेक बच्चन से कॉपी किया था
1946 मे इन्हें महबूब खान की “अनमोल घड़ी” में काम करने का मौका मिला। हांलाकि सुरैया को इस फिल्म मे सहअभिनेत्री के तौर पर बसंती का किरदार मिला था | लेकिन फिल्म के एक गीत ” सोचा था क्या ,क्या हो गया” से वह बतौर प्लेबैक सिंगर के रूप में अपनी पहचान बनाने में काफी हद तक सफल रही|
अब तक सुरैया को चाहने वालों की लम्बी भीड़ तो नहीं थी लेकिन अब उन्हें उनके नाम और चेहरे से जरूर पहचाना जाने लगा था | तभी 1947 में देश के बॅटवारे का वक्त आया |
देश की आजादी के बाद नूरजहां और खुर्शीद बानो जैसी गायिका ने पाकिस्तान की नागरिकता ली | लेकिन सुरैया ने यहीं रहने का फैसला लिया और सन 1948 से तो इन्होने नई इबादत लिखना शुरू कर दिया… यहाँ से उन्होंने सफलता की जबरदस्त रफ़्तार पकड़ी ली थी |
इसी साल इन्होने ” विद्या” और “प्यार की जीत” फ़िल्म में बतौर मुख्य अभिनेत्री काम किया और एक मुख्य अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचाना बनायीं |
साल 1949 से 51 तक सुरैया का फ़िल्मी करियर नयी ऊंचाइयों पर था , वो अपनी प्रतिद्वंदी अभिनेत्री नरगिस और कामिनी कौशल से भी काफ़ी आगे निकल गई थी | साथ ही सबसे ज्यादा फीस लेने वाली अभिनेत्री भी बन गईं, इन 3 सालो में बॉलीवुड में जिस अभिनेत्री की सबसे ज्यादा मांग थी वो सुरैया ही थी।
इस दौरान ही उन्होंने 14 फ़िल्में कर डाली |जिनमे प्यार की जीत, चार दिन, शाइनर, निली और 2 सितारे जैसी हिट फ़िल्में भी शामिल हैं । इनमे से 7 फ़िल्में तो सिर्फ रोमांटिक हीरो देव आनंद के साथ थी |
इस जोड़ी को दर्शक जितना पसंद करते थे उतना ही देव आनंद और सुरैया एक दूजे को भी |बताया जाता है कि ये दोनों अपनी पहली फ़िल्म विद्या से ही एक दूसरे को पसंद करने लगे थे |
और 1951 तक देव आनंद-सुरैया के प्यार की कहानियाँ नर्गिस-राजकपूर और दिलीप कुमार-मधुबाला के प्यार के किस्सों की तरह देशभर में फैल गईं | लेकिन दुर्भाग्यवश बेशुमार चाहत के बाद भी इनके मोहब्बत का किस्सा मुक़्क़मल नहीं हो सका और ना ही ये कभी शादी के बंधन में बंध सके |
यहाँ हम अपने दर्शकों को ये बात स्पष्ट कर दे कि इनके प्यार की ये दास्ताँ महज अफवाह नहीं थी क्योंकि अपने इस रिश्ते को देवानंद और सुरैया ने खुले तौर पर स्वीकार किया | देव आनंद ने इसे अपना पहला मासूम प्यार का नाम दिया | यहाँ आप ये जरूर सोच रहे होंगे की इतनी चाहत के बाद भी आखिर ये रिश्ता अधूरा क्यों रह गया?
तो इसकी वजह सुरैया की दादी थी जिन्हें देव आनंद फूटी आँख नहीं सुहाते थे |
कहते हैं ना… “प्यार का दुश्मन जमाना है
यहाँ हर आशिक का अपना अफसाना है |”
अपने फ़िल्मी करियर को आगे बढ़ाते हुए सुरैया ने 1954 में फ़िल्म मिर्जा ग़ालिब बनाई जो दर्शकों द्वारा खूब पसंद की गयी , आलम ये था की प्रधानमंत्री नेहरू भी इस फ़िल्म के बाद सुरैया के अभिनय के प्रशंसक बन गए थे | नेहरू ने कहा कि सुरैया ने मिर्जा ग़ालिब की शायरियों को अपना आवाज देकर उनकी रूह को जिन्दा कर दिया हैं |
फिल्म मिर्जा गालिब को राष्ट्रपति के गोल्ड मेडल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उस वक्त फिल्मों के लिए यही सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार हुआ करता था|लेकिन ये खुशहाल और सफल समय इनके जीवन का एक ही पहलू था ,अब खोलते हैं सुरैया के जीवन के उन गहरे पन्नों को जो चिराग तले अँधेरे जैसा हैं|
जैसा कि हमने शुरुआत में जिक्र कि ये अपने माता पिता की इकलौती संतान थी जिससे इन्हे बचपन से ही काफ़ी लाड प्यार मिला और अपने करियर के दौरान भी ये सबकी चहेती बनी रहीं |
बताया जाता हैं कि इनके घर के बाहर प्रसंशको के भीड़ से मुंबई की सड़के जाम हो जाया करती थी , लेकिन अपने जीवन आखिरी पड़ाव में ये उतनी ही अकेली पड़ गई थी | मानो ईश्वर ने इनके हिस्से की सारी ख़ुशी और प्यार इनके शुरूआती जीवन सफर में ही दे दिया था |
सुरैया फ़िल्म मिर्जा ग़ालिब के बाद फिल्मों और अपने चाहने वालो से दूरी बनाने लगी । |
ये इसकी वजह अपनी लो ब्लड प्रेशर को बताती थी |लेकिन इनके करीबियों के अनुसार सुरैया उस वक्त काफ़ी दुखी रहने लगी थी… इनके पिता के देहांत के बाद इनकी दादी भी देश छोड़ पाकिस्तान चली गई , जिससे वो काफ़ी अकेली पड़ गयीं |
Watch on You Tube-
1961 में आयी फ़िल्म शम्मा के बाद 1963 में इन्होने फिल्मों से सन्यास की औपचारिकता भी पूरी कर दी |
उनकी जिंदगी इस अकेलेपन के साये में गुजर ही रही थी कि 1987 में उनकी माँ भी इस दुनिया से रुख्सत हो गई | अब सुरैया अकेलेपन में डिप्रेशन की शिकार हो गई, वो अब ना किसी से मिलती थी और ना ही किसी को खुद से मिलने की इजाजत देती |
कुछ समय बाद सुरैया को अपने पुरानी यादों के साथ उस घर में रहना भी भारी लगने लगा… और वो अपना मुंबई के मरीन ड्राइव का घर छोड़कर पुणे चली गई और बाकि जीवन अकेले ही बिताया, कभी पुणे में तो कभी वल्ली में |तबस्सुम, निम्मी, निरुपा रॉय उनकी खास दोस्तों में शामिल थी, जिनसे पहले वो कभी कभार मिल लिया करती थी, लेकिन बाद में उन्होंने उनसे भी मिलना जुलना बंद कर दिया |
एक बार तबस्सुम उनके घर आयी लेकिन सुरैया ने उनके लिए घर का दरवाजा तक नहीं खोला |ये कोई अशिष्टता नहीं बल्कि एक घायल मन की व्यथा थी |उसके बाद एक दिन फोन पर तबस्सुम ने सुरैया से पूछा कि वो कैसी हैं |तो सुरैया ने जो जवाब दिया वो आज भी लोगो को भावुक का देती हैं।सुरैया ने कहा,
” कैसे गुजर रहीं हूँ ये सब पूछते हैं लेकिन कैसे गुजार रही हूँ वो कोई नहीं पूछता “
सुरैया को 1998 में लाइफ टाइम अचीवमेंट सहित एकेडमी पुरस्कार से भी नवाजा गया |धीरे धीरे बढ़ती उम्र के साथ 75 वर्षीय सुरैया ने 31 जनवरी 2004 को अपनी आखिरी सांस ली |
आज सुरैया जी के जीवन की कहानी हमें ये सिखाती हैं कि जीवन में रिश्ता, प्यार और अपनापन का मौल सफलता से कहीं ज्यादा हैं | मंजिल की चाहत में अगर अपने पीछे छूट गए तो उनकी कमी आजीवन खलेगी |