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पूजा करते समय गन्दे विचार क्यो आते हैं

विचार

विचार : मित्रों, जैसा कि हम सभी इस बात को बहुत ही अच्छे से जानते ही हैं कि हमारे जीवन के निर्माण का आधार ईश्वर ही है। जो कुछ भी हमारे जीवन मे घटित होता है, उसके पीछे ईश्वर की कोई न कोई मर्जी छिपी होती है।

और इसलिए ये कहा जाता है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है क्योंकि हो सकता है ईश्वर ने इससे कुछ और अच्छा सोच रखा हो। हममे से ज्यादातर लोग इस बात को भलीभांति जानते भी हैं और इसलिए हम रोज सुबह उठकर ईश्वर की पूजा और आराधना करते हैं।

अलग अलग धर्मों के लोग अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान को याद करते हैं, क्योंकि हमारे धर्म शास्त्रों में भी इस बात का जिक्र कई बार आता है कि मनुष्य को चाहिए कि वो दिन में कम से कम एक बार प्रभु का ध्यान जरूर करे जिससे उसके मन मे शांति और सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। मन को एकाग्र करके ईश्वर की आराधना करने से मन के अंदर की जो अशांति है उसका नाश होता है, और मनुष्य का पूरा दिन बहुत ही अच्छा जाता है।

लेकिन आपने अक्सर इस बात पर गौर भी किआ होगा कि कभी कभी पूजा करते समय मन मे अजीब अजीब से ख्याल आते हैं, अक्सर नकारात्मक से विचार मन मे उठने लगते हैं, तो कभी अपने परिवार से सम्बन्धित या अन्य कोई व्यक्तिगत चिंता भी मन मे उसी समय उठने लगती है जब हम पूजा स्थल पर बैठे होते हैं। इसके अलावा पूजा करते समय मन मे कुछ बुरे विचार भी अपना सर उठाने लगते हैं, जो कि अक्सर लोगों के साथ होता है।

हमारे कुछ दर्शकों ने हमसे इस विषय पर अनेक प्रश्न भी किये और इसलिए आज की ये विशेष कड़ी इसी समस्या पर आधारित है, जिसके बारे में हम विस्तार से चर्चा करेंगे और इस समस्या के समाधान को हल करने का प्रयास करेंगे।

मित्रों, अक्सर देखा गया है कि जब भी आप कोई ऐसा कार्य करने जाते हैं जिसका उद्देश्य सकारात्मक होता है, जो समाज हित मे होता है तो ऐसे कार्य को करने के लिए आपके सामने बहुत सारी अड़चने आती हैं। कभी कभी तो इतनी बाधाएं सामने आ जाती हैं कि मनुष्य का मनोबल टूटने भी लगता है।

ठीक उसी तरह यदि आप कोई धार्मिक अनुष्ठान कर रहे हैं या एकाग्र होकर भगवान की पूजा करने की कोशिश करते हैं तो कुछ ऐसी बाधाएं है जो हमे प्रत्यक्ष रूप से तो नही दिखती लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से हमारे मन की एकाग्रता को भंग करने का प्रयास जरूर करती हैं। असल बात इस प्रकार की समस्या के दो मुख्य कारण हैं जिन्हें जानना हमारे लिए बहुत जरूरी है। पहला- हमारे आस पास के वातावरण में उपस्थित नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव। ये वो कारण है जिसका जिक्र अक्सर हमें अपने धर्म शास्त्रों में पढ़ने को मिलता है।

बहुत सारी कथाओं में ऐसे बहुत से उदाहरण भरे पड़े हैं जिसमे ये स्पष्ट तौर से लिखा है कि जब भी कोई धार्मिक अनुष्ठान होता है उसमें किसी न किसी बुरी शक्तियो द्वारा बाधा उत्पन्न किया जाता रहा है।

जैसे प्राचीन समय मे जब ऋषि मुनि धार्मिक यज्ञ-हवन किया करते थे तो बहुत से दुष्ट राक्षस आकर उनके हवन में विघ्न डाल दिया करते थे, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रामायण में मिलता है जिसमे महर्षि विश्वामित्र द्वारा कर रहे हवन और पूजन के समय रावण द्वारा भेजे गए राक्षस मारीच और अन्य राक्षसों द्वारा यज्ञ कुंड में मांस और मदिरा गिरा दिया जाता था, जिससे हवन कुंड अशुद्ध हो जाता था और यज्ञ अधूरा रह जाता था और फिर इसी की रक्षा के लिए मुनि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण को महाराज दशरथ से मांगा था।

रामायण में ही अरण्यकाण्ड भाग में भी जब श्री राम और लक्ष्मण देवी सीता की खोज में वन-वन भटक रहे थे, उस समय वो उन राक्षसों का संहार किया करते थे जो बड़े बड़े ऋषियो के धार्मिक अनुष्ठानों में बाधक होते थे।  ये तो रही उन बाधाओं की बात जो प्रत्यक्ष रूप से या भौतिक रूप से धार्मिक कार्यो के शत्रु हैं।

लेकिन अब हम उस दूसरे कारण को जानने का प्रयास करेंगे जिसके जिम्मेदार शायद हम खुद हैं। शायद शब्द का इस्तेमाल हमने इसलिए किया क्योंकि इस दूसरे कारण का जिम्मेदार हम पूरे तरह से नहीं भी हैं और वो कैसे आइए विस्तार से समझते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में मनुष्य के मन की चंचलता को लेकर बड़े ही विस्तार से वर्णन किया है। और ये वही मन है जो मनुष्य को अप्रत्यक्ष रूप से सही कार्य को करने में बाधा उत्पन्न करता है।

श्री कृष्ण कहते हैं कि मन मनुष्य के हृदय का एक ऐसा अंग है जिसके नियंत्रण में पूरा शरीर रहता है। वो इसलिए क्योंकि मन अक्सर मनुष्य की बुद्धि को अपने अधीन कर लेता है और उससे वो काम करवाता है जो मन को अच्छा लगे। इस मन की सबसे बड़ी खासियत ये भी है कि मन को ज्यादातर वही बाते पसन्द भी आती हैं जो बुरे होते हैं या जिसका सम्बन्ध ज्यादातर विलासिता से होता है।

मन कभी भी एक जगह स्थिर नहीं रहता, उसमे इतनी शक्ति होती है कि वो पूरे संसार और यहां तक कि स्वर्ग तक कि यात्रा कर सकता है। इसलिए मन को चंचल कहा गया है। पूजा अथवा ध्यान करते समय साधक के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है अपने मन को वश में करना और एकाग्र होकर प्रभु का ध्यान करना। लेकिन मन एक ऐसे बेलगाम घोड़े की तरह होता है जिसकी लगाम को कस के पकड़ने में बड़े बड़े हार जाते हैं। खास तौर से अगर आप कही शांत जगह बैठे हैं या आप अकेले हैं, उस समय आपका मन बहुत तरह की बातें सोचता है, आपने अभी तक क्या किआ और आगे क्या करने का मन हो रहा है, ऐसी बातें एक मनुष्य के मन मे उठती रहती हैं।

और इसलिए पुजा स्थल भी एक ऐसी जगह मानी गयी है, जहां बैठकर मनुष्य अपने आपको बहुत शांत महसूस करता है और फिर मनुष्य का मन अपना काम करना शुरू करने लगता है। इस बात को एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। माना कि हमने कोई शाम एक फ़िल्म देखी, और फिर दूसरे दिन हम स्नान करके पूजा करने बैठ गए। उस समय अचानक से हमारे मन मे उस फिल्म के अच्छे और बुरे दृश्यों के चित्र आने लगते हैं, या फिर मन मे उसी समय कुछ नकारात्मक विचार अपना पैर पसारने लगते हैं। और इन्ही वजहों से हम ये सोचने लगते है कि आखिर पूजा करते समय ही ऐसे विचार क्यों उठ रहे हैं।

लेकिन इसी बात पर आप और गौर करेंगे तो आप को महसूस होगा कि केवल पूजा पाठ ही नही  बल्कि आप अगर किसी शांत जगह पर बैठेंगे तो आपके मन मे भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के विचार आएंगे। मान लीजिए कि बीते कुछ दिनों पहले आपके साथ सब कुछ अच्छा ही हो रहा है तो जब भी आप ध्यान करने बैठेंगे तो आपके मन मे एक अलग सा उत्साह रहेगा, और वही बातें आपके मन मे उठती रहेगी । लेकिन ये भी एक प्रकार की बाधा ही है जो आपके मन से उठकर आपके मस्तिष्क को बार बार भ्रमित करती रहेगी।

ठीक वैसे ही अगर काफी समय से आपके साथ बुरा ही हो रहा है, या आपका मन हमेशा धन, वैभव या कामुखता जैसे सुखों के पीछे भाग रहा है तो जाहिर सी बात है कि ये सब विचार आपके मन मे उठते रहेंगे खास तौर से ईश्वर की आराधना के समय। और यही सबसे बड़ी चुनौती हो जाती है, की अपने मन को वश में रखकर एकाग्र रूप से पूजा कैसे की जाये।

इसके संदर्भ में एक बहुत ही प्रसिद्ध कथा जो कि अक्सर सुनने में आती है, और वो ये है कि जब एक बार महर्षि विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे तो उनकी इस तपस्या से देवराज इंद्र को चिंता होने लगी कि कहीं विश्वामित्र इंद्र पद के लिए तो तप नही कर रहे, और यही सोचकर इंद्र ने मेनका नाम की अप्सरा को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा। परिणाम ये हुआ कि मेनका ने अपने काम बाण से विश्वामित्र की तपस्या भंग कर दी, लेकिन कुछ समय बाद विश्वामित्र फिर से अपने तप में लीन हो गए और बहुत काल बाद जब उनकी भेंट श्रीराम से हुई तो उन्होंने इस विषय पर उन्हें विस्तार से समझाया कि- हे राम! ये जरूरी नही की साधारण मनुष्य ही मन के वश में हो सकता है, मेरे जैसे ऋषि मुनि भी कभी कभी मन के वश में होकर भ्रमित हो जाते हैं और ये एक प्रकार की परीक्षा भी है जो अक्सर ईश्वर अपने भक्तों की लिया करते हैं। लेकिन जो भी इस कठिन परीक्षा को अपनी योग साधना और एकाग्रता से जीत लेता है वही अपने मन पर विजय प्राप्त कर सकता है।

तो मित्रों, उम्मीद है आज की ये रोचक जानकारी आपको पसंद आयी होगी, आप अपनी राय हमें कमेंट बॉक्स के माध्यम से दे सकते हैं

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