Film Review: Matto Ki Saikil-Prakash Jha ने कलेजा चीर दिया कसम से
Film Review: Matto Ki Saikil By Anurag Suryavanshi

“दर्द लिखूँ ,मर्ज़ लिखूँ , चिंताएं या क़र्ज़ लिखूँ
बेबसी अपनी कहूँ तो किससे ,कहो तो कुछ अर्ज़ लिखूँ।”
हिंदुस्तान ! 21 सदी का हिंदुस्तान ! जहाँ आज मंगल पर जीवन खोजने की बात चल रही है , टीम इंडिया के वर्ल्ड कप हारने के वजहों पर बात चल रही है , इंस्टग्राम पर पतली कमरिया चल रही है , राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा चल रही है ,शाहरुख़ खान की पठान हिट या फ्लॉप कराने की मुहीम चल रही है. उर्फी को नए कपडे में देखने की होड़ चल रही है। लेकिन इसी हिंदुस्तान में एक और हिंदुस्तान भी है। जहाँ बसती है , बेबसी , लाचारी , भुखमरी। एक ऐसा जन समूह , जिन्हें आम आदमी से भी नीचे की तरजीह दी जाती है। जिसे दिन भर ये फ़िक्र रहती है की शाम को 20 रुपये की सब्ज़ी कैसे आएगी ? जिसे ये चिंता रहती है की जवान बेटी की शादी के दहेज़ का इंतज़ाम कैसे होगा ? जिसको ये सोच कर रात में नीद नहीं आती की कल मज़दूरी के लिए काम मिलेगा या नहीं। जिसके महीने का पूरा बजट हिल जाता है अपनी साइकिल की टूटी चैन की मरम्मत करवाने में।
साइकिल से याद आया , आज मैंने एक फिल्म देखी है Matto Ki Saikil ..और इसी फिल्म की बात करने के लिए मैंने इतनी लम्बी चौड़ी भूमिका गढ़ दी। तो आज रिव्यु करेंगे फिल्म मट्टो की साइकिल का। वैसे तो ये फिल्म आज से करीब तीन महीने पहले ही यानी 16 सितम्बर 2022 को रिलीज़ हुई थी लेकिन ये फिल्म मैंने कल देखी जब ये OTT प्लेटफार्म Amazon Prime पर रिलीज़ हुई। फिल्म में ने मुझे इस हद तक प्रभावित किया की मैं इसकी बात किये बिना रह नहीं पाया।
कहानी –
ये फिल्म रोजही मज़दूरों की व्यथा पर प्रकाश डालती है। यानि वो मज़दूर जो अपना पेट पलने के लिए रोज घर से काम की तलाश में निकलते हैं। कहानी है मथुरा से सटे एक गाँव भरतिया की जहाँ रहता है मट्टो और उसका छोटा सा परिवार जिसमें हैं उसकी बीवी और दो बेटियां। मट्टो है ईंट गारा देने वाला एक रोजही मज़दूर। जिसके जीवन में तमाम परेशनियां हैं।बीवी की पथरी का इलाज , बेटी की शादी की चिंता , बनिए का उधार , साहूकार के क़र्ज़ की चिंता। यहाँ तक की सुबह सुबह जब वो खेतो में हल्का होने के लिए जाता है तो वहाँ भी आये दिन स्वक्ष भारत अभियान वाले आ धमकते हैं और बेचारे को सही से हल्का भी नहीं होने देते। लेकिन इन सभी परेशानियों में उसका साथ दे रही है उसकी एक टूटी फूटी साइकिल। लेकिन आये दिन इस साइकिल के साथ भी कोई न कोई पन्गा लगा ही रहता है । कभी मड गार्ड निकल जाता है तो कभी स्टैंड , कभी कोई कार वाला टक्कर मारकर पहिया टेढ़ा कर देता है। साइकिल भी क्या करे ? बीस साल पुरानी जो है। फिर भी वो किसी न किसी तरह साथ दे रही है। लेकिन मट्टो के ज़िंदगी में परेशानी और बढ़ जाती है जब उसकी साइकिल को एक ट्रेक्टर वाला कुचल देता है। मट्टो साइकिल के बिना अब काम पर कैसे जाये उसे खरीदनी है नई साइकिल। नई साइकिल खरीदने के लिए मट्टो को क्या क्या ज़द्दोज़हद करनी पड़ती है। क्या वो नई साइकिल ले भी पाता है या नहीं ये जानने के लिए आपको ये एक घंटे 35 मिनट की फिल्म देखनी पड़ेगी।
एक्टर और उनका अभिनय-
मट्टो के किरदार को निभाया है जाने माने फिल्म डायरेक्टर प्रकाश झा ने और निभाया नहीं बल्कि जिया है। पहली बार जब मैंने जय गंगा जल मूवी में इन्हे अभिनय करते हुए देखा था तो सोचा की प्रकाश झा ये एक्टिंग का कीड़ा क्यों लग गया. लेकिन मट्टो के किरदार ने ये साबित कर दिया की प्रकाश झा कुछ भी कर सकते हैं क्या एक्टिंग , क्या डायरेक्शन ? पूरी फिल्म में प्रकाश झा ही हैं जिनकी वजह से फिल्म में जान है । एक लाचार बाप, मुफलिसी में जीते एक मज़दूर को परदे पर इस तरह जीवंत किया है की देखते वक़्त आप ये बिलकुल भूल जायेंगे की आप प्रकाश झा को देख रहे हैं। झुके कंधे , आँखों में लाचारी , चेहरे पर दुर्बलता ऐसा । जब वो सड़क किनारे लगी हीरो साइकिल की होल्डिंग देखते हैं तो उनकी आँखों में उसे पाने की लालसा और न पा सकने की पीड़ा साफ़ झलकती है। बीड़ी का कश लेने के बाद खासते हुए सीने को पकड़ना उनके दर्द को खुद ब खुद बयां कर देता है। ट्रैक्टर वाला जब इनकी साइकिल कुचलकर भाग जाता है तो इनके दर्द के साथ दर्शकों का कलेजा भी छलनी हो जाता है। प्रकाश झा ने इस किरदार में ढलने के लिए कितनी मेहनत की होगी मुझे ये तो पता नहीं लेकिन कहीं से भी आप इनके काम में कमी नहीं निकाल पाएंगे। यहाँ तक की ब्रज भाषा पर भी इन्होने कमाल की पकड़ दिखाई है। फिल्म के अंतिम बीस मिनट में प्रकाश झा कुछ ऐसा करते हैं की आपकी रूह काँप जाएगी।बाकी के किरदारों में नज़र आये मनोज शर्मा , डिम्पी मिश्रा अनीता चौधरी , आरोही शर्मा जैसे कलाकारों ने अपना काम बखूबी किया है।
डायरेक्शन-
फिल्म का लेखन और निर्देशन किया है m gani ने। इंटरनेट के मुताबिक ये इनकी दूसरी फिल्म है इसलिए मैं इनके काम को ज्यादा नहीं जनता की ये किस तरह की फ़िल्में बनाते हैं। फिर भी इनके काम की तारीफ़ बनती है। एक गाँव के परिवेश को परदे पर दिखाने के लिए ये बहुत हद तक सफल हुए हैं। गाँव में किस तरह की राजनीती होती है , वहाँ के लोगों को कितनी आसानी से लोग बेवकूफ बना लेते हैं , गाँव में एक प्रेम कहानी कैसे पनपती है इसका सटीक चित्रण इन्होने किया है। क्यूंकि मैं भी एक गाँव से बिलोंग करता हूँ इसलिए ये कहूंगा की gani ने इस काम को सत प्रतिशत अंजाम दिया है। सिनेमेट्रोग्राफी थोड़ी लचर रही शायद इसका कारण रहा हो फिल्म का बजट। कहानी कहीं कहीं बोर करती और पटरी से उतरती हुई दिखती है फिर प्रकाश झा इसे अपने अभिनय से संभाल लेते हैं। पूरी फिल्म में टेंशन ही टेंशन है। निराशा ही निराशा है कहीं भी ऐसा मौका नहीं आता जिससे आपके चेहरे पर हंसी आये। लेकिन कुल मिलाकर फिल्म जो दिखाना चाहती है उसमें सफल रही है। रोजही मज़दूरों की पीड़ा दिखाती ये फिल्म आपको इतना प्रभावित कर सकती है की अगली बार जब आप सड़क पर निकलेंगे तो वहां घूमते एक मज़दूर के अंदर आपको मट्टो ही दिखाई देगा।
अगर आप साहित्य के शौक़ीन हैं और मुंशी प्रेमचंद की कहानियां पढ़ते हैं तो ऐसा लगेगा की आप मुंशी प्रेमचंद की किसी कहानी को देख रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं इसमें गनी के निर्देशन की जीत हुई है। वैसे इस सब्जेक्ट को इतनी छोटी कहानी में समेटना थोड़ा अच्छा आईडिया नहीं है इसे बड़ा किया जा सकता था। फिर भी इस सब्जेक्ट को उठाने और प्रकाश झा के बेहतरीन अभिनय के लिए मैं इस फिल्म को दूंगा 5 में से 4 स्टार।
अब मैं अपनी बात अदम गोंडवी जी के एक शेर से खत्म करना चाहूंगा-
वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है ।
उसी के दम से रौनक़ आपके बँगलों में आई है ।इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गाँधी जी के चेलों की कमाई है।रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी,
कि जिसने जिस्म गिरवी रखके ये क़ीमत चुकाई है।