
आलराउंडर, क्रिकेट की डिक्शनरी का एक ऐसा शब्द जो शायद ही किसी को पसंद ना हो। बात बड़े स्तर के मैच की हो या किसी देसी मैदान की, आलराउंडर को अलग ही इज़्ज़त मिलती है। तभी बचपन में हम गली क्रिकेट खेलते समय ख़ुद को एक आलराउंडर बताने में बहुत गर्व महसूस करते हैं। क्यूँकि, आलराउंडर को टीम की रीढ़ माना जाता है और तेज़ गेंदबाज़ी आलराउंडर होना तो सोने पे सुहागा जैसा है। लेकिन, भारतीय क्रिकेट में कपिल देव के बाद, ये हिस्सा हमेशा से ही कमज़ोर रहा। भारतीय क्रिकेट में कपिल जैसे आलराउंडर की तलाश की इस कहानी में रोबिन सिंह, इरफ़ान पठान, लक्ष्मी रतन शुक्ला, जोगिन्दर शर्मा , विजय शंकर जैसे खिलाडियों को याद किया जाता है।
लेकिन, एक ऐसा नाम है जो किसी लिस्ट, किसी ख़बर, किसी कहानी में नहीं मिलता है। लेकिन, कई दशकों से वो कभी खिलाड़ी, कभी कोच, तो कभी चयनकर्ता के रूप में भारतीय क्रिकेट में अपना योगदान दिये जा-रहा है। उस खिलाड़ी का नाम है जय प्रकाश यादव।
JP Yadav के शुरुआती जीवन का संघर्ष-
दोस्तों, ‘अनसंग हीरोज़ ऑफ़ इंडियन क्रिकेट’ के इस एपिसोड में हम जय प्रकाश यादव की ही ज़िन्दगी से जुड़े लम्बे संघर्ष के बाद मिलने वाली कामयाबी को करीब से जानेंगे।

दोस्तों, जय प्रकाश यादव जिनको हम में से 60% क्रिकेट प्रेमी जे.पी. यादव के नाम से जानते हैं। उनका जन्म भोपाल के एक माध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। साल 1974 में जन्मे जे.पी. यादव बढ़ती उम्र के साथ पढ़ाई से दूर होते जा रहे थे। तो, क्रिकेट के नज़दीक होते जा रहे थे।
क्रिकेट की दुनिया में पहला कदम-
जे.पी. यादव ने जी-जान लगाकर क्रिकेट खेला और सिर्फ़ 20 साल की उम्र में ही मध्य प्रदेश की रणजी टीम में आ-गये। हालाँकि, पहले सत्र में जे.पी. यादव का प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं रहा।
लेकिन, उनमें कामयाब क्रिकेटर बनने की सम्भावनाये नज़र आ-रही थी।इसलिए, मध्य प्रदेश टीम ने उनमें विशवास बनाये रखा। लेकिन, यहीं जे.पी. यादव की ज़िन्दगी में ऐसा वक़्त आया जिसने उन्हें तोड़कर रख दिया।
जब बीमारी बन गयी क्रिकेट में बाधा-
दरअसल 1995 साल की शुरुआत से ही जे.पी. यादव को पेट दर्द हो रहा था और खाना पचाने में भी परेशानी हो रही थी।
शुरू में तो जे.पी. ने इस तकलीफ़ को नज़रअंदाज़ किया और पेनकिलर लेकर काम चलाते रहे। बाद में जब वो मुंबई गये तो वहां डॉक्टर ने उनके पेट में ट्यूमर होने की पुष्टि की। साथ ही बताया कि सही होने के लिये 7 कीमोथेरेपी साइकल्स से गुज़रना होगा और कम से कम डेढ़ साल के लिये क्रिकेट को भूल जाना होगा।
कीमो साइकल्स शुरू हुए तो जे.पी. के बाल झड़ने लगे और वज़्न गिरने लगा। उस वक़्त को याद करते हुए जे.पी. ने कहा था “मैं हर वक़्त खुन्नस में रहता था और सोच में पढ़ा रहता था। कि मैंने किसी के साथ कभी कुछ गलत नहीं किया। तो, मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है। उस दौरान मेरा भगवान पर से विश्वास उठ चुका था।”

दोस्तों, उस मुश्किल वक़्त में मौत के मुहाने पर खड़े होने के बावजूद भी जे.पी. ने क्रिकेट से प्रेम कम नहीं होने दिया।ये जुनूनी खिलाड़ी डॉक्टर, परिवार और दोस्त सभी की सलाह को नकारते हुए, तीन कीमो साइकिल के बाद ही इंदौर कैंप में मध्य्प्रदेश टीम के साथ जुड़ गया। जे.पी. ने वहाँ किसी को नहीं बताया कि वो किस तकलीफ़ से गुज़र रहे हैं।
हालाँकि, उन्होंने तेज़ गेंदबाज़ी की जगह स्पिन करना शुरू कर दी और उस टूर्नामेंट में अच्छा प्रदर्शन भी किया। आख़िर उनकी बहादुरी के आगे बीमारी ने हार मान ली और 7 की जगह 15 कीमो साइकल्स के बाद जे.पी. को कैंसर ने फिर कभी नहीं सताया।अब जे.पी. मैदान में अपने बल्ले और गेंद दोनों से कमाल कर रहे थे।
JP Yadav का कैसे हुआ भारतीय टीम में चयन-
साल 1997-98 सत्र तक जे. पी. ने 20 लिस्ट ‘ए’ यानि घरेलु वनडे मैचों में 5 अर्धशतक और 2 शतक भी जमाये थे। उस दौरान घरेलू सर्किट कोई प्लेयर उनके आसपास भी नहीं था।
इस प्रदर्शन को देखते हुये साल 1998 में कनाडा में होने वाले सहारा कप के लिये जाने वाली भारतीय टीम में उनका चयन तय माना जा रहा था। लेकिन, जे.पी. की क़िस्मत ने अभी एक रंग और दिखाना था।
जे.पी. को एक ऐसी घटना का हिस्सा बनना था, जिसकी बस वो ही एकमात्र मिसाल हैं। दरअसल, हुआ यूँ कि सहारा कप के लिये टीम घोषित हुई और उसमे जे.पी. यादव यानि जय प्रकाश यादव का नाम नहीं था। लेकिन, चौकाने वाली बात ये थी कि उसमे अन्य जे.पी. यादव यानि ज्योति प्रसाद यादव का नाम था।
जिन्होंने उस समय तक सिर्फ़ एक ही अर्धशतक बनाया था। पूर्व कोच जॉन राइट ने अपनी किताब ‘इंडियन समर्स’ में लिखा था-“असल में हुआ ये कि जय प्रकाश यादव के आँकड़े देखकर चयनकर्ता उनका ही चयन करना चाह रहे थे।लेकिन, जे.पी. यादव नाम की कन्फ्यूज़न के चलते ड्राफ़्ट में ज्योति प्रसाद यादव का नाम आ-गया।” हालाँकि, ज्योति प्रसाद उस टूर पे बस बेंच पर बैठे रहे। लेकिन, जय प्रकाश यादव की क़िस्मत ने उन्हे फिर अपनी बारी का इंतेज़ार करने के लिये संघर्ष करते रहने को छोड़ दिया।
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मगर, जे.पी. यादव ने हार नहीं मानी और एक साधू की तरह क्रिकेट की तपस्या में फिर से जुट गये। जे.पी. ने पहले तो 1998-99 रणजी सत्र में मध्यप्रदेश के लिये खेलते हुए 640 रन बनाये और 20 विकेट लिये। उसके बाद 2001-02 सत्र में जब रेलवे ने रणजी ट्रॉफी उठायी तो जे.पी. ने उस साल 408 रन बनाये और 12 विकेट भी लिये।
रेलवे की जीत ने जे.पी. का प्रदर्शन सुर्ख़ियों में ला दिया। जिसका नतीजा ये रहा कि जे.पी. का चयन वेस्टइंडीज़ के विरुद्ध होने वाली वनडे सीरीज़ में हो गया। आख़िर 6 नवंबर 2002 वेस्टइंडीज़ के विरुद्ध डेब्यू के साथ जे.पी. का वो ख़्वाब पूरा हुआ। जिसके लिए उन्होंने अपनी ज़िन्दगी तक दाव पे लगा दी थी। लेकिन, वहाँ जे.पी. को सिर्फ़ 2 मैच खेलने के लिये मिलें।एक में पारी के आख़िरी क्षणों में उनकी बल्लेबाज़ी आयी और वो शून्य पर आउट हो गये।
जबकि, दूसरे मैच में उनकी बल्लेबाज़ी ही नहीं आयी। साथ ही गेंदबाज़ी में उन्हें सिर्फ़ 6 ओवर कराने का मौका मिला।इतने कम अवसर मिलने के बावजूद उन्हें क़रीब 2 साल के लिये टीम से बाहर कर दिया गया।
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जे.पी. ने एक बार फिर परिणाम की चिंता किये बिना मेहनत करना शुरू कर दी। जे.पी. ने 2004-05 रणजी सत्र में 584 रन बनाये एवं इस बार 36 विकेट भी लिये और रेलवे ने एक बार फिर रणजी ट्रॉफी जीत ली। जे.पी. यादव के इस लाजवाब आलराउंड प्रदर्शन को नज़रंदाज़ करना मुमकिन ही नहीं था। इस तरह 2005 में ज़िम्बाब्वे दौरे के लिए जे.पी. का भारतीय टीम में चयन हो गया।
वहाँ जे.पी. ने कमाल की वापसी की और पहले ही मैच में भारत की इज़्ज़त बचाने वाली पारी खेली। दरअसल न्यूज़ीलैंड से मिले 216 रनों के लक्ष्य के सामने सितारों से सजी भारतीय टीम शेन बांड के सामने बिखर गयी। सिर्फ़ 14वें ओवर में ही भारत के 8 विकेट गिर गये और स्कोरबोर्ड पर महज़ 44 रन थे।
शर्मनाक हार दस्तक दे रही थी। लेकिन, यहीं से इरफ़ान पठान के साथ जय प्रकाश यादव ने अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी पारी खेली। यादव ने पठान के साथ 9वें विकेट के लिये वनडे इतिहास की तीसरी सबसे बड़ी साझेदारी बनायी। यादव और पठान के बीच 118 रनों की साझेदारी से भारत के मैच जीतने के आसार बन रहे थे। लेकिन, पहले पठान 50 और फिर यादव 69 रन बनाकर आउट हो गये।
मगर, जे.पी. ने इतिहास में हमेशा के लिये अपनी जगह बना ली। इस शानदार बल्लेबाज़ी के बाद लगा कि अब यादव के लिये मौकों की कमी नहीं होगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। इस मैच के बाद यादव को सिर्फ़ 9 अन्य एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलने का मौका मिला। फिर, साल 2005 के बाद जे.पी. के लिए भारतीय टीम के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद ही रहे।
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आँकड़ें बताते हैं कि जे.पी. यादव ने 12 वनडे मैचों में बस 81 रन बनाये और सिर्फ़ 6 विकेट लिये। लेकिन, हक़ीक़त ये है कि उन्हें सिर्फ़ 7 पारियों में बल्लेबाज़ी का मौका मिला जिनमें से 3 बार वो नाबाद रहे।
बची 4 में बस एक मौका ऐसा था जब उनके पास रन बनाने का समय था और वहीं उन्होंने 69 रन बनाये थे। फिर भी वो नाम मात्र मौकों के बाद टीम से हमेशा के लिये बाहर हो गये। लेकिन, जे.पी. की असल क़ाबिलियत जाननी है तो उनके घरेलू आँकड़ें देखें। उन्होंने 130 फर्स्ट क्लास मैचों में 7,334 रन बनाये और 296 विकेट भी लिये हैं। जिनमें 13 शतक और 36 अर्धशतक शामिल है।
जबकि, 134 लिस्ट ‘ए’ मैचों में 3,620 रन बनाये और 135 विकेट भी लिये। जिनमें 4 शतक और 23 अर्धशतक लगायें हैं। घरेलू क्रिकेट में इस तरह के करिश्माई आँकड़ें बड़े-बड़े दिग्गज खिलाड़ियों के नहीं हैं।
लेकिन, जे.पी. ने कभी भी इस बात का मलाल नहीं किया कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय टीम में मौके नहीं दिये जा-रहे हैं।बल्कि, वो तो 2013 तक घरेलु क्रिकेट खेलते रहे और आख़िर में शरीर जब थक गया। तो, क़रीब 25 साल के लम्बे सफ़र के बाद क्रिकेट के सभी प्रारूपों से संन्यास की घोषणा कर दी।
संन्यास के बाद जे.पी. कभी कोच, तो कभी रणजी टीम चयनकर्ता के रूप में क्रिकेट से जुड़े रहे और भारतीय क्रिकेट में बहुमूल्य योगदान देते रहे।
तो दोस्तों, ये थी भोपाल से आने वाले पहले क्रिकेटर जय प्रकाश यादव के सबके चहेते जे.पी. यादव बनने की कहानी।