ईर्ष्या और अभिमान- इन भावनाओं से मानव तो क्या देवी-देवता भी अछूते न रह सके हैं।
शास्त्रों के अनुसार नारियों में ईर्ष्या की भावना आना बड़ी ही स्वाभाविक बात है फिर चाहे वह कोई साधारण नारी हो या त्रिदेवों की पत्नियां यानि देवी लक्ष्मी, देवी पार्वती और माँ सरस्वती।
कैसे टूटा तीनों देवियों का अभिमान-
तीनों देवियों को इस बात का अभिमान था कि समस्त लोकों में उनके समान पतिव्रता कोई नारी हो ही नहीं सकती।
ऐसे में तीनों देवियों के अभिमान को नष्ट करने तथा समस्त लोकों में पतिव्रता धर्मचारिणी सती अनसूया का मान बढ़ाने हेतु स्वयं भगवान ने नारद जी को एक खेल रचने के लिये प्रेरित किया।
जिसके तहत नारद देवी लक्ष्मी जी के पास पहुँचे, नारद जी को देखकर देवी लक्ष्मी ने बड़े ही प्रसन्नता पूर्वक उनका अभिनंदन करते हुये कहा, “पधारिये, नारद जी! बहुत दिनों बाद माता से मिलने आये।
अवश्य कुछ विशेष बात होगी बताने के लिए।”
नारद जी बड़े ही उदासी के भाव से बोले, “अब क्या बताऊँ माता, कुछ बताते ही नहीं बनता। मैं पृथ्वी लोक का विचरण करते-करते चित्रकूट की ओर चला गया।
वहाँ महर्षि अत्रि का आश्रम है जहाँ वे अपनी पत्नी अनुसूया माता के साथ वास करते है।
मैं तो अनुसूया माता का दर्शन पाकर कृतार्थ हो गया। हे माता! तीनों लोकों में उनके समान पतिव्रता तो कोई हो ही नहीं सकता है।”
लक्ष्मी जी को नारद जी की बात पर विश्वास ही नहीं हुआ उन्होंने बड़े ही आश्चर्य से पूछा, “क्या सचमुच वह मुझसे भी बढ़कर पतिव्रता है? सत्य कहना नारद।”
नारद जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “हे माता! आप ही नहीं, समस्त लोकों में कोई भी ऐसी स्त्री नहीं जिसकी तुलना सती अनुसूया से की जा सकती हो।”
नारद जी की बातें सुनकर देवी लक्ष्मी बड़े ही सोच में पड़ गयीं और उनका मन सती अनुसूया के प्रति ईर्ष्याभाव से भर गया।
नारद जी वहाँ से निकलकर इसी प्रकार क्रमशः माता पार्वती एवं माता सरस्वती के पास पहुँचे और सती अनुसूया के पतिव्रता का बखान कर उनके प्रति दोनों ही देवियों के मन में वही भाव जगा दिया जो माता लक्ष्मी के मन में जगाया था।
तीनों देवियों ने विचार किया कि क्यों न अनुसूया की परीक्षा ली जाये और देखा जाये कि नारद की बातों में कितना सत्य है और कितना असत्य। उन्होंने त्रिदेवों से सती अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिये आग्रह किया।
बार-बार हठ करने पर अंतत: त्रिदेवों को उनकी बात माननी ही पड़ी।
एक निश्चित समय पर जब महर्षि अत्रि अपने आश्रम में नहीं होते थे उसी समय ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों देव मुनि वेष धारण किये हुए महर्षि अत्रि के आश्रम पहुँच गये।
अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनुसूया ने हाथ जोड़कर अभिनंदन किया तथा उनके सत्कार हेतु प्रसाद और जल परोसते हुये उन्हें विराजने को कहा, किन्तु त्रिदेवों ने इसे अस्वीकार कर दिया।
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सती अनुसूया ने बड़े ही चिंतित मन से पूछा? “हे मुनियों! क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, जो आप सब मेरे द्वारा किये इस सत्कार को अस्वीकार कर रहे हैं?
मुनियों ने कहा, “हे देवी! हम उसी स्त्री के हाथों से अन्न और जल ग्रहण करते हैं जो बिना वस्त्र धारण किये हमारा आतिथ्य करती है।
अगर तुम चाहती हो कि हम तुम्हारे आतिथ्य को स्वीकार करें तो तुम्हें भी वैसा ही करना होगा अन्यथा हम बिना कुछ ग्रहण किये यहाँ से चले जायेंगे।
जब त्रिदेव भी गए हार-
उन मुनियों की ऐसी विचित्र बातें सुनकर सती अनुसूया बड़े सोच में पड़ गयीं। उन्हें अंदेशा हुआ कि ऐसी बातें तो कोई मुनि कभी नहीं कर सकता अवश्य ही कुछ और बात है।
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उन्होंने उसी समय ध्यान लगाया और अपने सतीत्व की शक्ति से देख लिया कि मुनियों के भेष में आये ये तो त्रिदेव हैं। उनके आने का सारा रहस्य भी अब उनकी समझ में आ गया।
अनुसूया ने कहा, “रुकिये मुनिवर आप क्रोधित होकर न जायें। मैं आप लोगों के कहे अनुसार बिना वस्त्र धारण किये आप सबका आतिथ्य करूँगी।”
सती अनुसूया के मुख से यह सब सुनकर तीनों देव एक दुसरे की ओर घोर आश्चर्य से देखने लगे। तभी अनुसूया ने कहा, “हे मेरे ईष्टदेव! यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ तो आप तीनों ही इसी क्षण छ:-छ: माह के नन्हे शिशु बन जाएँ।”
माता अनसूइया के इतना कहते ही त्रिदेव नन्हे नन्हे शिशुओं के रूप में बदल गये और माता अनुसूया ने वस्त्र रहित होकर एक माँ की भांति उन्हें स्तनपान करा कर आश्रम में ही सुला दिया।
उधर जब कुछ दिन बीत गये और त्रिदेवों की कोई भी सूचना न मिली तो तीनों देवियाँ चिन्तित हो गयीं। उन्होंने अपनी चिंता देवर्षि नारद को बतायी।
तब नारद ने उन्हें बताया कि “त्रिदेव तो नन्हे-नन्हे बालक बनकर माता अनुसूया के आश्रम में खेल रहे हैं और यदि आप सबको मेरी बात का विश्वास न हो तो स्वयं चलकर अपनी आँखों से देख लें।”
तीनों देवियाँ उसी क्षण नारद के साथ त्रिदेवों का पता लगाने के लिये चित्रकूट की ओर चल पड़ी।
आश्रम पहुँचकर उन्होंने देखा कि सच में त्रिदेव तो नन्हे-नन्हे शिशु बने एक पालने में खेल रहे हैं। अनुसूया ने उन्हें देखकर पूछा, “हे देवियाँ आप कौन हैं?”
त्रिदेवियों ने आँखों में अश्रु लिये कहा, “माता! हम तीनों आपकी बहुएँ हैं। हम आपसे आपकी पतिव्रता की परीक्षा लेने की इस भूल के लिये क्षमा मांगते हैं कृपा कर हमारे पतियों को हमें लौटा दें।
यह सत्य है कि समस्त लोकों में आप सी पतिव्रता नारी कोई और नहींं।”
अनुसूया जी ने मुस्कुराते हुए अपनी सतीत्व की शक्ति से अपने ईषटदेव का ध्यान किया और उन शिशुओं पर जल छिड़ककर उन्हें उनका पूर्व रूप प्रदान किया।
देव रूप में आने के बाद सती अनुसूया ने त्रिदेवों सहित तीनों देवियों की भी पूजा-स्तुति की। सती अनुसूया के इस भक्तिभाव और पतिव्रता से प्रसन्न होकर त्रिदेवों ने अपने-अपने अंशों से मिश्रित दत्तात्रेय के रूप में एक पुत्र का वरदान दिया।