माईकल बेवन : दोस्तों क्रिकेट में मैच को बनाने का काम गेंदबाज और बल्लेबाज करते हैं लेकिन अकसर मैच जिताने का काम फिनिशर का होता है, जो कई बार फसे/हारे हुए मैच का भी रुख पलट अपने दम पर जीता दिया करते हैं।आज के समय में हर टीम को एक ऐसे बल्लेबाज की जरूरत होती है जो कि उन्हें आखिरी मौके पर जीत दिला दें। फिनिशर बोलते/सोचते ही हमारे सामने केवल एक ही व्यक्ति की शक्ल और नाम आता है वो है महेंद्र सिंह धोनी। जो कि लाज़मी भी है, क्योंकि जो कुछ उन्होंने एक फिनिशर के तौर पर कर दिखाया, वो शायद कोई दूसरा न कर पाएगा। जिन्होंने कई बार विकट परिस्थितियों से भारत को निकालकर मैच जिताए हैं।लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि फिनिशिंग शब्द की खोज किसने की।दुनिया का पहला फिनिशर कौन था? यदि आपने 10–15 साल पहले क्रिकेट देखने शुरू किया तो आप शायद नहीं जानते होंगे।लेकिन 90’s के क्रिकेट प्रेमी, फैंस इस सवाल का जवाब जानते होंगे।वे उस खिलाड़ी को जानते होंगे जो न जाने कहां कहां से बिल्कुल हारे हुए मैच को अंत तक ले जाकर जीता दिया करता था। जिसे देखकर धोनी ने भी फिनिशिंग की कला सीखी,और तो और जहां आमतौर पर खिलाड़ी लंबे लंबे छक्के और चौकों पर निर्भर कर रन बनाते हैं,ये खिलाड़ी एक एक दो दो रन जोड़ जोड़कर विरोधियों से मैच छीन लिया करता और ग्राउंडेड शॉट्स खेल, गज़ब के गैप्स निकाल सिंगल को डबल में तब्दील किया करता। उनके क्रीज़ पर रहते कभी उनकी टीम हारी ही नहीं,और अपनी टीम को 1999,2003 का विश्व कप जीताने में उन्होंने अहम योगदान दिया। उन्होंने 45 बार अंत तक खड़े होकर अपनी टीम को जीत दिलाई। जी हां, हम बात कर रहे हैं विश्व के पहले फिनिशर ऑस्ट्रेलिया के पूर्व दिग्गज माइकल बेवन की। जिन्होंने दुनिया को फिनिशिंग शब्द से रूबरू कराया।आज हम आपको इनके जीवन से रूबरू कराते हैं,साथ ही जानते हैं कि कैसे फिनिशर शब्द बेवन के साथ जुड़ा और उनकी किस पारी से क्रिकेट के शब्दकोश /इतिहास में एक और पन्ना/अध्याय जुड़ गया।
माईकल बेवन का जन्म 8 मई 1970 को ऑस्ट्रेलिया की कैपिटल टेरिटरी के बेलकनन क्षेत्र में हुआ। उन्हें प्यार से बेवो भी कहा जाता है। बेवन शुरू से एक होनहार विद्यार्थी रहे जो पढ़ाई में मैधावी थे।साथ ही उनको बचपन से ही खेलों में काफ़ी रुचि थी।वे कई खेल खेला करते और टूर्नामेंट में भाग लेते । जिनमें से फुटबॉल और क्रिकेट में उन्हें सर्वाधिक रुचि थी।लेकिन उनका खेलों से प्यार उनकी पढ़ाई में रिजल्ट्स और मार्क्स पर प्रभाव डाल रहा था।इसलिए जब बेवन 15 वर्ष के हुए तो उन्होंने क्रिकेट में अपना कैरियर बनाने की ठान ली।और ज्यादा से ज्यादा स्कूली एज ग्रुप के टूर्नामेंट खेलने शुरू किया।अपने बढ़िया प्रदर्शन और सिंगल्स को डबल में तब्दील करने की उनकी काबिलियत काफ़ी विख्यात हुई और उन्हें 1998 में ऑस्ट्रेलिया के अंडर 19 स्क्वाड में बेवन को स्थान मिला,और इसी वर्ष उन्होंने ऑस्ट्रेलियन अंडर 19 चैंपियनशिप में 459 रन बनाकर इस टूर्नामेंट के एक सीज़न में सर्वाधिक रन ठोकने का रिकॉर्ड भी अपने नाम किया।और उनके इस लाजवाब खेल के दम पर दरवाजे खुले प्रथम श्रेणी क्रिकेट के। जहां 1989 में उन्हें क्रिकेट स्कॉलरशिप भी मिली। इसी वर्ष उन्होंने साउथ ऑस्ट्रेलिया की टीम से अपने फर्स्ट क्लास करियर में पदार्पण करते हुए वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़ विश्व की सबसे बाउंसी/उछाल लेती पीच पर 114 रन की लाजवाब पारी खेल अपने टैलेंट का नज़राना पेश किया। हालांकि अगले वर्ष वे न्यू साउथ वेल्स की टीम से जुड़ गए जहां वे अपने कैरियर के अधिकतर समय खेले भी। बेवन लगातार एक के बाद एक बढ़िया पारियां खेलते गए, और चयनकर्ताओं को भी काफी प्रभावित किया।लेकिन अब क्योंकि उस वक्त ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट अपने उस सुनहरी दौर से गुज़र रहा था जहां एलन बॉर्डर, डीन जोन्स, डेविड बुन, ईयान हैली, मर्व ह्यूस, मार्क टेलर जैसे धुरंदरों से सजी इस टीम में जी तोड़ मेहनत कर रहे खिलाड़ी को मौका मिलना लगभग असम्भव सा था।और क्योंकि इस दीवार को भेदना काफी मुश्किल था, तो बेवन को एक्सेप्शनल/अप्रतिम होने के बावजूद 5 साल तक इंतज़ार करना पड़ा।और फिर आया साल 1994 जन ऑस्ट्रेलिया के दिग्गज और पूर्व कप्तान एलन बॉर्डर ने अपने क्रिकेट कैरियर को अलविदा कह दिया। और इसी वर्ष शारजाह में टूर्नामेंट भी होने वाला था।तो ऑस्ट्रेलिया को दरकार थी एक प्योर बल्लेबाज की, जिसमें टैलेंट के साथ साथ प्रेशर को एबसॉर्ब/दबाव में उभरकर आने का भी कैलीबर हो। और ये सारी खूबियां थी माईकल बेवन में, जो अब घरेलू क्रिकेट की भट्टी में तपकर इतना परिपक्व हो चुके थे कि बस एक मौके की दरकार में थे।तो 1994 में शारजाह में आयोजित ऑस्ट्रियल – एशिया कप में उन्हें पहली बार ऑस्ट्रेलियाई सीनियर टीम में शामिल किया गया।और दूसरे ही मैच में श्रीलंका के खिलाफ़ बेवो ने अपने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कैरियर में पहला कदम रखा।अब क्योंकि यह एक लॉ स्कोरिंग मुकाबला था, तो बेवन की बल्लेबाज़ी न आ सकी।लेकिन अपने अगले ही मैच में न्यूजीलैंड के खिलाफ़ 39* रन की उपयोगी पारी खेल टीम को जीत के द्वार पहुंचाया।आगे उनका चयन पाकिस्तान दौरे के लिए ऑस्ट्रेलियाई टैस्ट टीम में हुआ।और कराची टैस्ट में डेब्यू कर उन्होंने अपना रेड बॉल कैरियर में 82 रन की पारी खेल, धुआंदार आगाज़ किया। और आगे चलकर उस वक्त के खूंखार पाकिस्तानी तेज़ गेंदबाज़ी आक्रमण के सामने वसीम -वकार की कातिलाना जोड़ी को मैदान के चारों ओर रन बटोर बेवन ने 3 टैस्ट मैच की केवल 4 पारियों में 243 रन जड़कर टीम में अपना स्थान और पुख्ता कर लिया।लेकिन ताजूब की बात तो ये है कि इतने शानदार प्रदर्शन के बावजूद बेवन को कभी टैस्ट में इतने मौके नहीं मिले और उन्हें चयनकर्ताओं ने रेड बॉल से दूर ही रखा। अपने पहले 15 ओडीआई में लगभग 55 की औसत से रन बटोरने के बावजूद उन्हें सिलेक्टर/चयनकर्ताओं ने टीम से बाहर कर दिया। अब क्योंकि जिस स्तर का कंपटीशन टीम में था और जिस प्रकार के ताबड़तोड टॉप के बल्लेबाज ,और एक से बढ़कर एक खिलाड़ी ऑस्ट्रेलियाई टीम का दरवाज़ा खटखटा रहे थे, तो कहीं न कहीं बेवन भी ये सब जानते थे और इसका हल केवल उनकी परफॉर्मेंस ही था। इसलिए अपने बल्ले से ही जवाब देते हुए वापिस घरेलू क्रिकेट में रनों का पहाड़ खड़ा कर सिलेक्टर को मजबूर कर दिया और लगभग एक साल टीम से बाहर रहने के बाद 1995-96 में हुई बेनसन एंड हेजेस क्रिकेट टूर्नामेंट में बेवन ने वापसी की। और वापसी करते ही वेस्टइंडीज के खिलाफ़ मैच में 44 रन के साथ 2 विकेट झटक अपनी टीम को जीत की रह काफी आसान कर दी।और अब आया वो मैच जिसने न बेवन केवल को रातों रात सुपरस्टार बनाया, अपितु उनकी उस ब्लॉकबस्टर पारी के दम पर क्रिकेट इतिहास में एक नया मोड़ भी आया जिसने आने वाले वर्षों की रोमांचक की बुनियाद भी रखी। जिस वृतांत की दास्तां बयान करते हुए आज भी एक अलग सा आनंद आता है।आगाज़ हुआ 1 जनवरी 1996, नए साल का जहां वेस्टइंडीज और ऑस्ट्रेलिया की वर्ल्ड क्लास टीमें आपस में भिड़े, दोनों टीमों में एक से बढ़कर एक मैच विनर शामिल था।और पहले बल्लेबाज़ी करते हुए निर्धारित 43 ओवरो में कार्ल हूपर के लाज़वाब 93 रन के बावजूद वेस्टइंडीज केवल 172 रन पर सिमट गई, लेकिन कर्टली एंब्रोस और वाल्श के नेतृत्व में खूंखार वेस्टइंडीज गेंदबाज़ी को देखकर ये लक्ष्य भी चूनौतीपूर्ण लग रहा था और लक्ष्य का पीछा करने उतरी कंगारुओं की फौज ने आसान से स्कोर के बावजूद वेस्टइंडीज के शातिर गेंदबाजों के सामने घुटने टेक दिए और महज 73/7 विकेट गवा दिए। यहां मुकाबला कैरिबिया के शेरों के हाथ में था। और जीत के लिए उन्हें केवल 3 विकेट की आवश्यकता थी। लेकिन उस दिन बेवन के कुछ और इरादे थे। उन्होंने मोर्चा संभालते हुए पुछले बल्लेबाजों संग मिलके स्कोर बोर्ड को चलाए रखा और पारी को एंकर करते हुए सिंगल डबल करते करते मैच को अंत तक ले गए और अब अंतिम गेंद पर जहां एक तरफ वेस्टइंडीज को एक विकेट की दरकार थी और ऑस्ट्रेलिया को 4 रन की, ऊंठ अभी भी किसी भी करवट बैठ सकता था। लेकिन बेवन ने बड़े आराम से अंतिम गेंद पर चौका जड़कर ऑस्ट्रेलिया को यादगार मुकाबले में एक विकेट से जीत दिलाई।जहां एक समय ऑस्ट्रेलिया 38/6 था, उस वक्त बेवन ने 150 मिनट तक क्रीज़ पर डटे रहकर संयमपूर्ण 78 रनों की इस मैच जीताऊ पारी के दम पर एक नई पहचान भी पाई। उन्होंने फिनिशिंग की कला को जन्म दिया। यहां से शुरू हुआ फिनिशिंग का एक नया अध्याय। जिसके विश्व भर के फैंस साक्षी बने। ये क्रिकेट के इतिहास का पहला वो मौका था, जहां हम सभी ने बेवन के रूप में एक फिनिशर की भूमिका को बखूबी निभाया जाते देखा। ये केवल एक शुरुआत थी।इस सीरीज की 10 में से 8 पारियों में नाबाद रहने वाले बेवन ने 194.5 की औसत से रन बनाए। और अब वे ऑस्ट्रेलियाई टीम के एक अभिन्न अंग और अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य बन गए जिन्हें बाहर करना असंभव था। अपने लाज़वाब खेल के दम पर उन्हें 1996 विश्व कप में खेलने का मौका मिला। और अपने पहले विश्व कप में उन्होंने पहले सेमीफाइनल में वेस्टइंडीज के खिलाफ़ महत्वपूर्ण 69 रन बनाकर ऑस्ट्रेलिया को फाइनल में पहुंचाया और फिर फाइनल में उपयोगी 36 रन बनाकर अपनी टीम का स्कोर 241 तक पहुंचाया। हालांकि उनकी टीम श्रीलंका से फाइनल हार गई।1998 में जब ऑस्ट्रेलियाई कॉमनवेल्थ गेम्स हुई तो उस समय एक और इतिहास रचा गया जब क्रिकेट को भी पहली बार इन।गेम्स में शामिल किया गया।और बेवन ने यहां पर भी शिरकत की।1999 विश्व कप में ऑस्ट्रेलिया दूसरी बार चैंपियन बनाने में बेवन का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा। दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ़ सेमीफाइनल में जब एक समय 68/4 विकेट गवाकर ऑस्ट्रेलिया मुश्किल में फसा नजर आ रहा था तो वो बेवन ही थे जिन्होंने कप्तान स्टीव वौ के साथ मिलकर टीम के स्कोर को 213 तक पहुंचाया था और सर्वाधिक 65 रन बनाए।2000 में बेवन ने अपने क्रिकेट के इस सुनहरी सफ़र में सबसे गजब की यादगार पारी खेलते हुए एशिया 11 के खिलाफ़ एक अनऑफिशियल मुकाबले में रेस्ट ऑफ वर्ल्ड 11 की ओर से खेलते हुए 321 रन का पीछा करते हुए केवल 132 गेंदों में 185 रन की ताबड़तोड पारी खेल लगभग मैच जीत ही लिया था।जब एक समय 37 ओवर में 196/7 के स्कोर पर रेस्ट ऑफ वर्ल्ड 11 एक बड़े अंतर से हारती नज़र आ रही थी, तब बेवन 19 चौके और 6 छक्कों से सजी अपनी पारी खेल, एंडी कैडिक संग 119 रन की साझेदारी कर स्कोर को काफी नज़दीक ले आए।लेकिन कैडिक के ब्रेन फेड के चलते वे रनआउट हो गए और उनकी टीम केवल एक रन से हार गई।पर क्योंकि यह मैच अनऑफिशियल था, जिसके चलते यह स्कोर न ही बेवन का सर्वाधिक लिस्ट ए और न ही ओडीआई स्कोर माना गया। 2002 में त्रिकोणीय श्रृंखला में न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ मैच में जब 246 रनों का पीछा करने उतरी ऑस्ट्रेलियाई टीम को शेन बॉन्ड ने हिलाकर रख दिया, तो 82/6 और 143/7 देख एक वक्त लगा कि ऑस्ट्रेलिया जल्द ही सिमट जाएगी। लेकिन महज 95 गेंदों में 102 रन जड़कर मैन ऑफ़ द मैच रहे बेवन ने अंतिम ओवर में 2 विकेट से जीत दिलाई।
एलन डोनाल्ड : एक रनआउट ने कैसे हीरो से जीरो बना दिया
2003 विश्व कप में माइकल बेवन चोटिल होने के बावजूद खेले। हालांकि शुरूआती 4 मैचों में उन्हें बल्लेबाज़ी का मौका नहीं मिला।लेकिन जब भी उनकी टीम समस्या में फसी होती तो वे संकटमोचन बनकर टीम को मुसीबत से बाहर निकाल लाते। और मैच नियंत्रण में ले आते। न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ ग्रुप स्टेज मुकाबले में जब शेन बॉन्ड की घातक गेंदबाजी के आगे सभी कंगारू बल्लेबाज धाराशाही दिखे तो वो बेवन ही थे जिन्होंने 56 रन की महत्वपूर्ण पारी खेल एंडी बिचेल(63) संग 8वें विकेट के लिए 97 रन की साझेदारी कर अपनी टीम का स्कोर 208 के सम्मानजनक टोटल तक पहुंचाया जिसके जवाब में कीवी महज़ 112 रन पर सिमट गए।
यही नहीं,इंग्लैंड के खिलाफ़ ग्रुप स्टेज के अंतिम मुकाबले में 205 रनों का पीछा करते हुए जब एक समय पहला ऑस्ट्रेलिया 48/4 था,और 135/8 तक पारी और लड़खड़ाती गई,तब एंडी बीचेल के साथ मिलकर 73 रन की साझेदारी कर बेवन ने 74 रन की पारी खेल अंतिम ओवर में ऑस्ट्रेलिया को जीत दिलाई। माइकल बेवन ही वो कारण थे कि कई मौकों पर बुरी तरह लड़खड़ाने के बाद भी उनकी टीम अजय रही और टूर्नामेंट भी जीती। लेकिन इस टूर्नामेंट के बाद इस हीरो का चार्म कहीं गुम सा होने लगा था, इस सितारे की चमक कम होने लगी थी।अब बेवन चोटों से काफ़ी परेशान रहने लगे, और उनका फ़ॉर्म भी वैसा नहीं रहा, और उनका टीम से अंदर बाहर होना लगा रहा।2004 के बाद उन्हें अंतरराष्ट्रीय टीम में कभी स्थान न मिला। और 3 साल घरेलू क्रिकेट में जूझते रहते बेवन ने क्रिकेट के सभी प्रारूपों से सन्यास ले लिया।
उन्होंने अपने करियर में खेले कुल 232 ओडीआई में 53.58 की लाज़वाब औसत से 6912, वहीं 18 टैस्ट में 785 रन बनाए। वहीं लिस्ट ए क्रिकेट में उनके नाम रिकॉर्ड 57.85 की औसत से 15103 रन हैं। जो कि उनके उच्च कोटि की क्लास को बयां करते हैं। यही नहीं, वे ओडीआई रैंकिंग में लगातार 1259 दिनों तक शीर्ष पर काबिज़ रहे, जो कि किसी भी ऑस्ट्रेलियन द्वारा सर्वाधिक और विश्व में तीसरे सर्वाधिक दिनों का रिकॉर्ड है ।मैच को फिनिश करने की कला बेवन ने ही दुनिया को सिखाई। उनके ग्राउंडेड शॉट्स और रिस्क फ्री अप्रोच ने सबको काफ़ी प्रभावित किया। वो बेवन ही थे जिन्होंने दुनिया को ये दिखाया कि रन बनाने के लिए ज़रूरी नहीं बड़े शॉट्स, गगनचुंबी छक्के ही जड़े जाएं। उन्होंने ये सिद्ध किया कि इक्के दुक्के और ग्राउंडेड शॉट्स खेलकर भी 10–12 रन प्रति ओवर निकाले जा सकते हैं। उनकी गैप भेदने की क्षमता अद्वितीय थी। यही कारण है कि क्रिकेट की दुनिया में उनके जैसा कोई और फिनिशर न आ सका। उनका नाम 2007 में ऑस्ट्रेलिया की ग्रेटेस्ट/सर्वकालीन महान ओडीआई टीम में भी था।
क्रिकेट की दुनिया में बेवन को पहला और सबसे शानदार फिनिशर माना जाता है. हालांकि बेवन की नजरों में भारत के पूर्व कप्तान और दिग्गज महेंद्र सिंह धोनी दुनिया के सबसे बड़े फिनिशर हैं. उन्होंने कई बार यह कहा कि वह धोनी को खुद से बेहतर फिनिशर मानते हैं। अब एक कहावत है न चोर कभी खुद नहीं कहता कि उसने चोरी की है।ठीक वैसी ही,एक महान व्यक्ति कभी खुद की तारीफ नहीं किया करता। जो गेंदबाजों का सामना करते हुए बेवन ने फिनिशिंग मास्टरक्लास पेश की, वो वाकई में काबिले तारीफ़ है।
तो दोस्तों ये थी कहानी दुनिया के सबसे खूंखार फिनिशर और गेम चेंजर माइकल बेवन की जो अपने दम पर मैच पलट दिया करते।और जब वे क्रीज पर होते उनकी टीम कभी न हारती।