निरमा: एक पिता की ज़िद्द, जिसने उसकी बेटी को अमर कर दिया।
निरमा: एक पिता की ज़िद्द, जिसने उसकी बेटी को अमर कर दिया।
याद, किसी अपने को खोने के ग़म को कम करने का एकमात्र (इकलौता) रास्ता। वो रास्ता जो तन्हाई मिटाने के बाद आगे बढ़ने का ऐसा हौसला देता है। जिसका दामन थामकर कोई ‘मांझी’ का रूप लेकर पर्वत तोड़ डालता है। तो, कोई ताजमहल जैसे ख़ूबसूरत अजूबे की नींव रखता है। एक ऐसी ही जज़्बातों से भरी याद की देन है,
भारतीय इतिहास की सबसे पुरानी वॉशिंग पाउडर कंपनियों में से एक ‘निरमा’। वो निरमा जिसने आम आदमी की जेब पर असर डाले बिना कपड़ों को दूध की तरह साफ़ किया। वो निरमा जिसका जिंगल आज भी शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। वो निरमा जिसका भारतीय मार्किट में स्थान वैसा ही है, जैसा आकाश में ध्रुव तारे का।
एक सरकारी नौकरी वाले गुजराती की कारोबारी सोच।
दोस्तों, आज के दिन भारतीय मार्किट में टॉप पर चल रही कम्पनीयों के इतिहास पर नज़र डालें। तो आपको ये जानकर हैरानी होगी कि, भारत में क़रीब 60% कंपनियां ऐसी हैं। जो किसी एक आदमी के आइडिये पर शुरू हुई, वो आदमी कई मुश्किलों के बावजूद अपनी ज़िद पर अड़ा रहा और आज उसकी सोच से सिर्फ़ भारत को ही नहीं पूरी दुनिया को फ़ायदा हो रहा है।
एक ऐसी ही सोच थी 1944 में गुजरात के अहमदाबाद में जन्मे करसनभाई पटेल की। करसनभाई पेशे से गुजरात के एक सरकारी महकमे (संस्था) में केमिस्ट थे। केमिस्ट्री में बी.एस.सी. कर चुके करसनभाई नौकरी के बाद घर पर भी अपना ज़्यादातर वक़्त केमिकल्स के साथ ही गुज़ारते थे। इस दौरान ही करसनभाई के सर पर फॉस्फेट फ़्री सस्ता वॉशिंग पाउडर बनाने की धुन सवार हो गयी। इस धुन का ही नतीजा रहा कि साल 1969 में एक दिन घर के अहाते (पीछे के हिस्से) में करसनभाई को फॉस्फेट फ़्री डिटर्जेंट का सफ़ल फार्मूला मिल गया।
करसनभाई को अपने इस पीले रंग के डिटर्जेंट पाउडर पर इतना भरोसा था। कि, उन्होंने इसके प्रोडक्शन का मन बना लिया। इस तरह आज 14,000 लोगों को रोज़गार देने वाली निरमा का उत्पादन 1969 में सिर्फ़ एक आदमी की ज़िद्द के कारण शुरू हुआ।
जब पाउडर बेचने के लिये करसनभाई ने सरकारी नौकरी छोड़ दी।
फार्मूला मिलने के बाद करसनभाई घर के 10 बाइ 10 कमरे में पाउडर (तो!) बनाने लगे। मगर, करसनभाई के सामने सबसे बड़ी परेशानी ये थी कि, इस पाउडर को ग्राहकों तक कैसे पहुँचाया जाये? कुछ वक़्त गुज़रने के बाद इस परेशानी का हल करसनभाई की ज़िद्द से निकला। शुरुआत में करसनभाई ऑफिस जाते वक़्त घर-घर जाकर ये पाउडर बेचा करता थे। फिर, उन्होंने ऑफ़िस से घर आने के बाद साईकिल पर चलकर अपने पाउडर को शहर के दूसरे हिस्सों में भी पहुँचाना शुरू किया।
शुरू-शुरू में करसनभाई पूरे दिन 15 किलोमीटर तय करने के बाद भी सिर्फ़ 15-20 पैकेट पाउडर ही बेच पाते थे। इतने ख़राब रिस्पॉन्स के बावजूद करसनभाई ने हार नहीं मानी और अपने पाउडर की सैल (बिक्री) बढ़ाने के लिये नई-नई तरकीबें अपनायी। करसनभाई पाउडर ख़रीदने वाले ग्राहक के सामने शर्त रखते थे कि अगर कपड़े साफ़ नहीं हुए तो पैसे वापस। साथ ही उनके पाउडर की क़ीमत प्रति किलो बस 3 रूपये थी।
जबकि, बाज़ार में सबसे सस्ता डिटर्जेंट पाउडर भी 13 रूपये किलो मिलता था। ऐसे में ग्राहकों ने करसनभाई के पाउडर को आज़माना शुरू किया। फिर क्या था! करसनभाई के पाउडर की माँग उनके शहर ‘रूपुर’ में बढ़ गयी। नौकरी और पाउडर बेचने के बीच चली क़रीब 3 साल की गुत्थम-गुत्था के बाद करसनभाई ने अपने पाउडर को देशभर में पहुँचाने के लिये कम्पनी की शुरआत करने की ठानी और एक आरामदेह सरकारी नौकरी छोड़ दी। करसनभाई ने जब कंपनी खोलने का विचार बनाया। तो, इसका सिर्फ़ एक ही ब्रैंड नेम उनके दिमाग़ में आया और वो नाम था ‘निरमा’। ‘निरमा’ आज की तारीख़ में ये बस एक डिटर्जेंट का नाम है। मगर, जब ‘निरमा’ की शुरुआत हुई तो ये एक पिता के जज़्बातों का समुन्दर समेटे हुए था।
जब एक बच्ची की मौत ने जन्म दिया ‘निरमा’ को।
80 का वो दशक जब भारत में बेटियों को ज़िंदा दफ़नाया (घूँघट के हवाले किया) जा-रहा था या कोख में मारा जा-रहा था। तब एक पिता ने अपने सपने को दुनिया से जा-चुकी बेटी का नाम दिया। वो पिता थे करसनभाई और वो नाम था ‘निरमा’। करसनभाई अपनी बेटी निरुपमा को प्यार से निरमा कहकर पुकारते थे। देवी का रूप समेटे उस बच्ची से करसनभाई को बहुत उम्मीदें थी।
करसनभाई की चाहत थी कि निरमा पढ़-लिखकर उनका नाम रोशन करे। मगर, क़ुदरत को ये मंज़ूर नहीं था। एक सड़क हादसे में ‘निरमा’ ने छोटी सी उम्र में ही दुनिया को अलविदा कह दिया। इस हादसे ने करसनभाई को अंदर से तोड़ दिया था। यही वजह रही कि अपनी बेटी और सपनों की मौत की टीस सीने में लिये जी रहे करसनभाई ने डिटर्जेंट का नाम निरमा रखा। इस तरह एक बेटी को दूसरा जन्म मिला और भारतीय ग्राहकों को अपने घर के सदस्य जैसा लगने वाला डिटर्जेंट ‘निरमा’ मिला।
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जब बाज़ार से गायब हो गया निरमा।
एक लम्बे इंतज़ार और संघर्ष के बाद 1973 में करसनभाई ने निरमा वॉशिंग पाउडर की शुरुआत की और पैकेट पर निरूपमा की झूमती हुई सुंदर-सी तस्वीर को जगह दी गई। सेल्समैनों की संख्या बढ़ाई गई। लेकिन, बाजार में तगड़े कंपीटिशन और नये होने के कारण निरमा की बिक्री नहीं हो रही थी। दूसरी तरफ़ दुकानदार उधारी पर माल (वॉशिंग पाउडर) उठाते और जब पैसे देने का समय आता तो आना-कानी करते।
ऐसे में निरमा को घाटा होने लगा। करसनभाई समझ नहीं पा-रहे थे कि अब क्या करें? उस दौरान ऐसा लगा कि निरमा हार जायेगी। लेकिन, परेशानियों से जमकर लड़ने वाले करसनभाई ने हार नहीं मानी और तय किया कि अब निरमा के लिये एक टी.वी. विज्ञापन बनवाएंगे। ऐड दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया गया और सिम्पल रखा गया। इसलिये, मॉडल संगीता बिजलानी के कपड़ों को स्टाइलिश रखने की जगह चमकदार रखा गया। क्योंकि, उस दौर में ब्लैक एंड वाइट टी.वी. ही होते थे।
इसलिए, सफ़ेद रंग की चमक ने पाउडर की क्वालिटी के प्रमाण (सबूत) का काम किया। और फिर! बाक़ी कमाल किया भारतीय एडवर्टाइज़मेंट इतिहास के सबसे मशहूर जिंगल “सीमा, रेखा, जाया, और सुषमा, सबकी पसंद निरमा” ने। इसी दौरान करसनभाई ने एक ऐसा पैतरा फेंका जिसने भारत में वॉशिंग पाउडर के कॉम्पीटीशन को लगभग एकतरफ़ा कर दिया।
दरअसल हुआ ये कि, जिस दौरान निरमा का एडवर्टाइज़मेंट कैंपेन ज़ोरो पर था। उस दौरान करसनभाई ने चालाकी दिखाते हुए बाज़ार में मौजूद 90% स्टॉक वापस ले लिए। एक महीने तक ग्राहक केवल निरमा को टी.वी. विज्ञापन में ही देख पाए। क्योंकि, ग्राहक जब बाज़ार से निरमा खरीदने जाते तो उन्हें ख़ाली हाथ लौटना पड़ता। बाद में खुदरा विक्रेताओं ने जब करसन भाई से अनुरोध किया। तब एक महीने बाद बाज़ार में निरमा आया।
इस देरी से निरमा को ये फायदा हुआ कि सर्फ़ की मांग बढ़ने के कारण बाजार में आते ही निरमा ने बड़े अंतर से डिटर्जेंट के अन्य ब्रांड्स को पीछे छोड़ दिया। निरमा की ये कामयाबी अगले कुछ सालों तक बरकरार रही। उस दौरान आलम ये था कि एक दशक तक कोई अन्य ब्रैन्ड निरमा के आसपास भी नहीं भटक सका। इस तरह एक समय समाप्त होती लग रही निरमा कम्पनी भारतीय बाज़ार की शान बन गयी।
निरमा ही क्यों बना सबकी पसंद ?
दोस्तों, इस सवाल के यूँ तो बहुत से टैक्निकल और लॉजिकल जवाब हैं। मगर, सबसे सटीक जवाब है, निरमा की सादगी। निरमा का ऐड हो या उसका नाम। भारतीय मिडिल क्लास वर्ग ने इस कम्पनी से एक अलग ही जुड़ाव महसूस किया। इसके अलावा निरमा के मशहूर होने की सबसे बड़ी वजह थी, इसके रेट (दाम)। जैसा हमने पहले भी बताया कि निरमा उस दौरान बाज़ार में मौजूद अन्य सर्फ़ ब्रैंड्स की तुलना में काफ़ी सस्ता था।
जबकि, उस दौरान सर्फ़ सेगमेंट में हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड के महँगे ब्रैंड्स का राज हुआ करता था। हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड की मार्किट में मोनोपॉली होने के बावजूद जब निरमा ने तरक्की शुरू की तो, वो सबको पीछे छोड़ता चला गया। आलम ये था कि, हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड जैसे बड़े ग्रुप को भी निरमा से आगे निकलने के लिए एक ख़ास प्रोग्राम ‘स्टिंग’ लाना पड़ा।
इस प्रोग्राम की वजह से ही व्हील डिटर्जेंट भारतीय मार्किट को मिला। मगर, निरमा तब तक बुलन्दियों की नई इबारत (कहानी) लिख चुका था। वो इबारत जो आज भी भारतीय बाज़ार में मील का पत्थर है। तो दोस्तों, अब अंत में जानते हैं।
निरमा की वर्तमान स्थिति और बाज़ार में स्थान।
दोस्तों, निरमा कम्पनी जब कामयाबी की सीढ़ी चढ़ रही थी। तो, करसनभाई ने उसके विस्तार में देरी नहीं की। यही वजह है कि आज भारत में निरमा के 400 से ज़्यादा डिस्ट्रीब्यूटर और 10 लाख क़रीब रिटेलर हैं। साथ ही 1994 में करसनभाई ने निरमा ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ की स्थापना भी की। निरमा ने अपने इस करिश्माई सफ़र में यूँ तो बहुत से रिकॉर्ड तोड़े और नये कीर्तिमान रचे। मगर, साल 2004 में निरमा ने जो किया वो शायद ही कोई डिटर्जेंट ब्रैंड दोहरा पाये।
हुआ ये कि, साल 2000 तक डिटर्जेंट सेगमेंट के 30% मार्किट शेयर अपने नाम कर चुकी निरमा ने 2004 8 लाख टन डिटर्जेंट सैल किया और विश्व में सिंगल ब्रैंड नीरमा सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्ट शामिल हुआ। हालाँकि, इतने कामयाब सफ़र के बावजूद आज निरमा की बाज़ार में स्थिति कुछ ख़ास नहीं है। जिसकी वजह रही, निरमा का वक़्त के साथ ना बदलना। निरमा ने बदलते वक़्त के साथ मार्केटिंग स्ट्रैटेजी में बदलाव नहीं किया।
जहाँ एकतरफ़ बाज़ार में निरमा का कंप्टीशिन बढ़ रहा था। वहीं निरमा के नये प्रोडक्ट फ्लॉप हो रहे थे। हालाँकि, हालिया सालों में निरमा ने वापसी करने की कोशिश की है और ऋतिक रोशन जैसे सेलिब्रिटी फ़ेस के साथनिरमा अब भी मार्किट में अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है।
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