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पांडवों की स्वर्ग यात्रा: दुर्योधन को क्यों मिला स्वर्ग?

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ग्रंथ महाभारत का हर किरदार हर घटना अपने आप में एक खुली किताब की तरह है जिसमें झांककर आज का इंसान अपने जीवन की किसी भी कशमकश का हल निकाल सकता है।

भगवान श्री कृष्ण के मुखारविंद से गीता के रुप में निकलने वाला हर शब्द इस जीवन रुपी अथाह समुद्र की गहराई जानने में मनुष्य की सहायता करता है।

मगर जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार एक तरफ से खुली किताब नजर आने वाला यह विशाल‌ ग्रंथ कई रहस्यों और अनकही कथाओं को भी समेटे हुए है,  पांडवों की स्वर्ग यात्रा भी एक ऐसी ही कथा है।

18 दिनों तक चचेरे भाइयों और भारत के तत्कालीन महाराजाओं के बीच कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अनवरत रूप से चल रहा भीषण युद्ध आखिरकार धृतराष्ट्र के सबसे बड़े बेटे दुर्योधन की वीरगति के साथ ही खत्म हो गया था।

पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण और वीर अभिमन्यु सहित लाखों निरपराध सैनिकों के खून से लथपथ इस युद्ध को संसार के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध माना जाता है।

इस युद्ध के बाद अपने सौ पुत्रों के शवों पर आंसू बहाने वाले धृतराष्ट्र और गांधारी को राजमहल के ऐशो आराम रास नहीं आए, सभी सुख सुविधाओं के बावजूद भी उन्हें राजमहल की चारदीवारी में अकेलापन महसूस होने लगा था और इसी अकेलेपन को दूर करने के लिए इस दम्पत्ति ने राजमहल छोड़ दिया और अपने जीवन के आखिरी पलों तक वन में निवास किया।

दुसरी तरफ भगवान श्री कृष्ण का यदुवंश भी श्राप के प्रभाव से धीरे धीरे खत्म हो गया जिसके चलते श्रीकृष्ण भी पांव में एक तीर लगने के बहाने अपनी लीला समाप्त कर चले गए।

इसी बीच इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के नए सम्राट युधिष्ठिर ने भी अपने राज्य के विस्तार हेतु अश्वमेध यज्ञ करवाया और अपने भाईयों के साथ आनंदमय राजसी जीवन बीता रहे थे।

मगर लगभग 36  साल राजसी जीवन बिताने के बाद पांडवों को भी यह आभास होने लगा था कि धरती पर उनका काम भी पूर्ण हो गया है और अब पृथ्वीलोक छोड़ने का समय आ गया है।

युधिष्ठिर का स्वर्ग गमन-

युयुत्सु को सम्पूर्ण राज्य की देखभाल का जिम्मा सौंपने के बाद पांडवों ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को हस्तिनापुर का नया सम्राट घोषित किया और सुभद्रा को सबके लालन पालन की जिम्मेदारी देने के बाद महर्षि वेदव्यास से आज्ञा लेकर पांचों पांडव द्रोपदी सहित परलोक गमन की यात्रा पर चल पड़े।

Pandav Swarg Yatra Story

अर्जुन ने लोभवश अपने गांडीव धनुष और तरकश का त्याग नहीं किया था और इसीलिए पांचों पांडव कई नदियों, पहाड़ों और समुद्रों की यात्रा करते हुए लाल सागर पहुंचे तो वहां अग्निदेव प्रकट हुए और उन्होंने अर्जुन से गांडीव आदि का त्याग करने के लिए कहा क्योंकि उनका कार्य भी तब तक पुर्ण हो चुका था।

अग्निदेव को गांडीव और तरकश देने के बाद पांडव अपने मार्ग में आगे बढ़े जहां एक कुत्ता भी उनके साथ साथ चलने लगा था।

उत्तर दिशा से पृथ्वी की परिक्रमा करने के बाद केदारनाथ में पांडवों को भगवान शिव के दर्शन हुए जिन्होंने उनके लिए स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त कर आगे जाने की आज्ञा दी।

बालू से भरे समुद्र को पार करने के बाद पांडवों ने सुमेरु पर्वत के दर्शन किए और अपनी यात्रा में आगे बढ़ गए।

बद्रीनाथ के पास सरस्वती नदी को पार करना न

द्रौपदी के लिए कठिन था और इसीलिए भीम ने एक शिला को नदी के बीचों-बीच डाल दिया जिस पर चलकर द्रौपदी ने सरस्वती नदी को पार किया था।

क्यों हुई द्रौपदी की मृत्यु-

कहा जाता है कि माण गांव में सरस्वती नदी के उद्गम स्थल पर आज भी वह चट्टान मौजूद है जिसे वर्तमान में भीम पुल के नाम से जाना जाता है।

थोड़ी दूर चलने के बाद द्रौपदी एक जगह पर लड़खड़ाते हुए गिर गई जिसे देखकर भीम ने युधिष्ठिर से पुछा कि द्रौपदी ने आज तक कोई पाप नहीं किया फिर क्यों उसके साथ ऐसा हुआ?

इसके जवाब में युधिष्ठिर ने भीम से कहा कि द्रौपदी हम पांचों भाईयों में से सबसे ज्यादा प्यार अर्जुन से करती थी और इसीलिए वो यात्रा के बीच में ही लड़खड़ाकर गिर गई है, यह कहकर युधिष्ठिर ने द्रौपदी को देखें बिना अपनी यात्रा जारी रखी जिसमें उनके साथ चार भाई और वो कुत्ता भी चलने लगा।

थोड़ी देर चलने के बाद सहदेव ने भी अपने प्राण त्याग दिए तब भीम ने युधिष्ठिर से सहदेव के पाप के बारे में पुछा तो युधिष्ठिर ने कहा कि सहदेव को अपनी विद्वत्ता पर घमंड था जिसके चलते वो अपने बराबर किसीको नहीं समझता था, सहदेव की इस दशा का यही कारण है।

इसके बाद नकुल भी अपनी यात्रा पुर्ण नहीं कर पाए और बीच रास्ते में गिर गए, तब भीम के द्वारा इसका कारण पुछने पर युधिष्ठिर ने बताया कि नकुल को अपने रुपवान होने का अभिमान था।

नकुल के बाद धनुर्धर अर्जुन भी गिर पड़े जिसका कारण बताते हुए युधिष्ठिर ने कहा कि अर्जुन को अपने पराक्रम और युद्ध कौशल पर अभिमान था और उसने कहा था कि वह एक ही दिन में अपने शत्रुओं का अंत कर देगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ और यही कारण है कि उसको इस तरह की गति प्राप्त हुई है।

 सभी भाईयों के पापों का हिसाब देते हुए युधिष्ठिर उस कुत्ते और अपने भाई भीम के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे कि तभी एक जगह महाबली भीम भी गिर पड़े और सभी भाईयों की तरह अपनी गति कारण पुछने पर युधिष्ठिर ने भीम से कहा कि तुम खाते बहुत अधिक थे और अपने बल का झूठा प्रदर्शन करते थे यही कारण है कि तुम आज इस अवस्था को प्राप्त हुई है।

इसके बाद युधिष्ठिर अपनी यात्रा में आगे बढ़ते गए जिसमें उनके साथ अब सिर्फ वह कुत्ता था।

जब युधिष्ठिर को मिले कुत्ते के रूप में भगवान-

युधिष्ठिर थोड़ी दूर चले थे कि देवराज इन्द्र अपने रथ के साथ युधिष्ठिर को स्वर्ग ले जाने के इरादे से उनके सामने प्रकट हो गए।

देवराज इन्द्र को अपने सामने देखकर युधिष्ठिर ने उनसे कहा कि उनके चारों भाई और द्रौपदी यात्रा के बीच में ही गिर गए थे, उन्हें भी अपने साथ ले जाने कि व्यवस्था कीजिए।

Yudhisthira With Devraaj Indra

इसके जवाब में इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि उनके भाई और द्रौपदी शरीर त्यागकर पहले ही स्वर्ग पहुंच गए हैं और अब आपको शरीर सहित स्वर्ग जाने का मौका मिला है।

इसके बाद युधिष्ठिर ने इंद्र से कहा कि यह कुत्ता भी उनके साथ स्वर्ग जाएगा लेकिन इंद्र ने इसके लिए मना कर दिया, देवराज इन्द्र के बहुत समझाने पर भी जब युधिष्ठिर उस कुत्ते के बिना स्वर्ग चलने के लिए तैयार नहीं हुए तब कुत्ते के रूप में वहां उपस्थित यमराज अपने असली रूप में प्रकट हो गए।

युधिष्ठिर की शालीनता और सच्चाई को देखकर यमराज प्रसन्न हुए और उन्हें आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गए, जिसके बाद इंद्र और युधिष्ठिर रथ में बैठकर स्वर्ग की ओर चल पड़े।

जब दुर्योधन को भी मिला स्वर्ग-

स्वर्ग पहुंचकर युधिष्ठिर ने देखा कि दुर्योधन भी अन्य देवताओं के साथ स्वर्ग में एक दिव्य सिंहासन पर बैठा हुआ है, युधिष्ठिर ने जब इंद्र से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि दुर्योधन ने भले ही अपने जीवन में झूठ और अधर्म का साथ दिया था लेकिन अर्जुन और भीम जैसे योद्धाओं से हिचकिचाहट के बिना अपनी हार को सामने देखते हुए भी उसने जिस बहादुरी से युद्ध किया था उस पराक्रम और साहस की बदौलत आज उसे यह पद प्राप्त हुआ है।

देवराज इन्द्र की बात सुनकर युधिष्ठिर ने उनसे अपने भाईयों से मिलने की इच्छा जताते हुए कहा कि उनके भाई और द्रौपदी को जिस लोक में जगह मिली है  उन्हें भी उसी लोक में स्थान चाहिए, अपने भाईयों से बेहतर मुझे कुछ भी मंजूर नहीं है।

क्यों भोगना पड़ा था युधिष्ठिर को नर्क-

इसके उत्तर में इंद्र ने युधिष्ठिर को एक देवदूत का अनुकरण करने को कहा जो उन्हें उस लोक में ले जाने वाला था जहां उनके भाई और द्रौपदी मौजूद थे।

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देवदूत के साथ चलते चलते युधिष्ठिर एक ऐसे मार्ग पर पहुंच गए जहां बहुत अंधेरा था और चारों तरफ से बदबू आ रही थी, ऊपर गिध मंडरा रहे थे और उनके आसपास मुर्दे पड़े हुए थे।

रास्ते की मुश्किलों से तंग आकर युधिष्ठिर ने देवदूत से पुछा कि उन्हें इस मार्ग पर आगे और कितनी दूर चलना है इसके जवाब में देवदूत ने कहा कि दरअसल हम असिपत्र नामक नरक के किसी मार्ग का भ्रमण कर रहे हैं और देवताओं ने उन्हें यह आदेश दिया था कि जब आप चलते चलते तक जाएं तो मैं आपको वापस ले जाऊं, इसलिए अगर आप तक गए हैं तो तो हम वापस चलें?

युधिष्ठिर ने देवदूत की बात मानते हुए जैसे ही वापस जाने के लिए कदम बढ़ाए कि तभी उन्हें दुखी लोगों की आवाजे सुनाई दी जो युधिष्ठिर को रुकने का आग्रह कर रही थी।

युधिष्ठिर ने जब उनका परिचय पुछा तो उन्होंने अपना नाम

कर्ण, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और भीम बताया।

यह सुनकर युधिष्ठिर ने देवदूत से कहा कि तुम वापस चले जाओ मगर मैं अपने भाईयों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा।

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देवदूत ने यह बात स्वर्ग पहुंचकर इंद्र को बताई और कुछ समय बाद देवराज इन्द्र स्वयं उस स्थान पर पहुंच गए जहां युधिष्ठिर मौजूद थे।

इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान उन्होंने जिस झूठ का सहारा लेकर आचार्य द्रोण का वध किया था उसी की बदौलत उन्हें कुछ समय नरक में बिताना पड़ा है और अब उन्हें स्वर्ग चलना है जहां उनके भाई पहले से मौजूद हैं।

इसके बाद युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान कर मानव शरीर का त्याग कर दिव्य रुप धारण कर लिया और उसी रुप में स्वर्ग पहुंच गए जहां अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव उनका इंतजार कर रहे थे।

युधिष्ठिर ने देखा कि भीम वायु देवता के पास बैठे हुए हैं, कर्ण सुर्य के समान तेज धारण किए हुए बैठे हैं और नकुल सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ विराजमान हैं।

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इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि द्रौपदी का जन्म भगवती लक्ष्मी के अंश से हुआ था।

अंत में युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण के दर्शन किए और कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले हर योद्धा के बारे में उन्हें देवराज इन्द्र ने विस्तारपूर्वक बताया था।

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