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कादर ख़ान कैसे की बॉलीवुड करियर की शरुआत : Kader Khan Biography

कादर खान कैसे बने बॉलीवुड के जोकर
कादर खान कैसे बने बॉलीवुड के जोकर

कादर ख़ान :- जब भी कभी हिंदी फिल्मों के हरफ़नमौला कलाकारों की चर्चा की जायेगी तो कादर ख़ान जी का नाम ज़रूर लिया जायेगा, जिन्होंने कभी विलेन बनकर डराने का काम किया, तो कभी कॉमेडियन बनकर सबको हँसाया भी, तो कभी सीरियस होकर पल भर में दर्शकों को रुला भी दिया। हर किरदार में अपने जीवन से जुड़े अनुभवों को मिलाकर नायाब बना देने वाले ऐक्टर, राइटर और डायरेक्टर कादर ख़ान का जीवन कितने संघर्षों से भरा था यह जानकार आपको ताज़्ज़ुब भी होगा और उन्हें सैल्यूट करने को भी दिल करेगा। एक बदनाम गली से निकलकर रूपहले परदे पर छा जाने वाले कादर ख़ान जी की कहानी वाकई में एक मिसाल है जिसके बारे में हमें जानना ही चाहिए।

प्रारंभिक जीवन-

कादर खान की कहानी
कादर खान

कादर ख़ान के पिता अब्दुल रेहमान ख़ान अफगानिस्तान के कंधार के रहने वाले थे और माँ इक़बाल बेग़म ब्रिटिश भारत के पिशिन से थीं, जो अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान का हिस्सा है। बाद में कादर ख़ान के पिता रोज़गार की तलाश में काबुल जाकर बस गये जहाँ उनके चार बेटे हुए लेकिन किसी अनजानी बीमारी से उनके बेटों की 8 साल की उम्र आते-आते मौत हो जाती थी। जब ऐसा हादसा एक के बाद एक तीन बेटों के साथ हुआ तो कादर ख़ान की माँ डर गयीं। 22 अक्टूबर 1937 में अफगानिस्तान के काबूल में जन्मे कादर ख़ान अपने माता-पिता की चौथी संतान थे, जिनके पैदा होने पर उनकी माँ ने फ़ैसला किया कि यहाँ की ज़मीन उनके व उनके बच्चे के लिये ठीक नहीं है, उन्होंने कादर ख़ान के पिता से काबुल छोड़ कहीं और रहने की ज़िद की। जिसके बाद वे मिलिट्री की एक गाड़ी से भारत आ गये और दर-ब-दर भटकते हुए आख़िरकार मुंबई पहुँच गये जिसे तब बॉम्बे कहा जाता था। मुंबई में कादर खान के परिवार को जहाँ ठिकाना मिला वो कभी दुनियाँ से सबसे गंदी बस्ती हुआ करती थी और उस बस्ती का नाम था कमाठीपुरा, जहाँ किसी तरह उन्हें किराए पर दो छोटे कमरे मिल गये। उस जगह की गंदगी का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उनके घर के एक तरफ वेश्यावृत्ति होती थी तो दूसरी तरफ शराब बना करती थी, कत्ल और गुण्डागर्दी तो वहाँ के लिये एक आम बात थी। कादर ख़ान ने अपने एक इंटरव्यू में उस जगह के बारे में बताया था कि “दुनिया की कौन सी ऐसी बुराई थी जो वहां नहीं थी। और ऐसे माहौल में बड़ा हुआ था।” उस दौरान उनके परिवार के हालात इतने बुरे थे कि कई बार उन्हें भूखा भी रहना पड़ता। दोस्तों कादर ख़ान जब महज़ एक साल के थे तो उनके पिता ने अपनी बेरोजगारी से तंग आकर उनकी मां को तलाक दे दिया। बाद में आस-पास के ख़राब माहौल को देखते हुये अपने पिता के दबाव में आकर कादर खान की मां ने दूसरी शादी कर ली। कादर ख़ान के दूसरे पिता जो कि एक कारपेंटर थे, वे भी अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाने में नाकाम साबित हुए। स्थिति ऐसी थी कि जिस दिन पैसे आते उस दिन पेट भर जाता वरना भूखा ही सोना पड़ता।

पढ़ाई, नौकरी और नाटक साथ-साथ –

कादर खान थोड़े बड़े हुए तो उनकी की माँ ने उनका दाख़िला नज़दीक के ही म्यूनिसिपल स्कूल में करवा दिया जहाँ वे पढ़ाई करने लगे। इधर घर के हालात कुछ ऐसे हो गये थे कि पैसे मांगने कादर खान कभी अपने पहले पिता के पास जाते तो कभी मुंबई के डोंगरी इलाके में स्थित एक मस्जिद के इमाम के पास चले जाते। पिता से तो कोई मदद न मिलती लेकिन इमाम साहब जो एक दो रुपए दिया करते उसी से उनके घर का चूल्हा जला करता था। बेहद कम उम्र में ही दोस्तों के कहने पर एक दिन कादर खान ने पढ़ाई छोड़ काम करने का मन बना लिया लेकिन उनकी माँ ने उन्हें रोकते हुए कहा कि “मैं जानती हूँ तुम कहाँ जा रहे हो। इस काम से तुम एक या दो रुपये कमा सकते हो लेकिन इससे हमारी मुसीबतें कभी कम नहीं होंगी। मुसीबतें दूर करनी ही हैं तो बस मन लगाकर पढ़। ‘तू पढ़’ बाकी सारी मुसीबतें मुझपर छोड़ दे।” कादर खान को अपनी माँ की बात ‘तू पढ़’ दिल तक उतर गयी, उन्होंने फौरन भागकर अपना बस्ता उठाया और स्कूल की तरफ दौड़ पड़े। कादर की माँ उन्हें हमेशा मस्जिद भेजा करती थी जहाँ से वे अक्सर बंक मार के पास के कब्रिस्तान चले जाया करते थे और वहाँ अपने दिल का बोझ हल्का करने के लिए ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते और वहीं घण्टों अपना वक्त गुज़ारते। चूँकि उस वक्त उनके पास पहनने के लिये चप्पल भी नहीं थी तो उनके गंदे पैरों को देखकर उनकी माँ समझ जाती थीं कि वे उस दिन मस्जिद नहीं गए थे। कादर अक्सर रात के वक्त भी  कब्रिस्तान चले जाया करते थे। एक रात जब वे ज़ोर ज़ोर कुछ बोल रहे थे तभी अचानक किसी ने उनके चेहरे पर टॉर्च से रोशनी की और पूछा कि “कब्रिस्तान में क्या कर रहे हो और ये क्या बोलते रहते हो।” कादर खान ने कहा, “दिनभर मैं जो कुछ भी देखता और सीखता हूँ उसी को दोहराता हूँ।” कादर की बात सुनकर वह शख़्स उनसे काफी प्रभावित हुआ और कहा कि “तुम नाटकों में काम क्यों नहीं करते?” दरअसल अशरफ खान नाम के वह शख़्स एक नाटककार थे और उन दिनों अपने नाटक के लिए एक छोटे बच्चे को ढूंढ रहे थे जो पढ़ा लिखा हो और जिसकी ज़ुबान भी साफ हो। ऐसे में किसी ने उनसे बताया कि एक लड़का है जो रोज़ कब्रिस्तान में पागलों की तरह चिल्लाता रहता है, शायद वह उनके काम का हो और वाकई कादर ख़ान उनके काम के ही निकले। कादर खान ने भी हां कर दिया और इस तरह से बतौर ऐक्टर उनकी शुरुआत हो गयी। बाद में कादर खान ने ऐसा ही एक सीन फिल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ के लिये लिखा था जिसे लोगों ने ख़ूब पसंद किया था। ख़ैर अपने पहले ही नाटक में कादर ख़ान ने इतनी ज़बरदस्त ऐक्टिंग की कि वहाँ मौजूद दर्शकों ने उन्हें कंधों पर बिठा लिया और नाचने लगे। नाटक के बाद एक बुजुर्ग दर्शक ने उन्हें सौ रूपए का नोट इनाम में दिया जो उस वक़्त एक छोटे लड़के के लिये बहुत बड़ी रक़म थी। कादर ख़ान ने उस सौ के नोट को हमेशा एक ट्रॉफी की तरह सँभाल कर रखा।

मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद कादर ख़ान इस्माइल युसूफ कॉलेज, जो कि मुम्बई युनिवर्सिटी से एफिलिएटेड थी वहाँ दाखिला ले लिया। एक दिन दोस्तों के कहने पर उन्होंने कॉलेज के एक नाटक का ऑडिशन दिया जहाँ उनके संवाद अदायगी से सभी बेहद प्रभावित हुए। उन्हें उस नाटक में एक फ़कीर का किरदार दिया गया। उस नाटक को पढ़ने के दौरान उन्हें उसमें कुछ ख़ामी नज़र आयी और एक दो दिन बाद उन्होंने बेझिझक यह बात अपने डायरेक्टर को बता दी। मज़े की बात कि डायरेक्टर ने भी कहा कि “हाँ मुझे भी कुछ तो गड़बड़ लगती है स्क्रिप्ट में। क्या तुम इसको ठीक कर सकते हो?” कादर ख़ान ने कहा कि “सर मैं कोशिश करता हूँ।” उसके बाद कादर ख़ान ने उस स्क्रिप्ट को कैंटीन में बैठकर 4 घण्टे के अंदर ठीक करके डायरेक्टर को सौंप दिया। डायरेक्टर को कादर ख़ान का लिखने का अंदाज़ इतना पसंद आया कि उन्होंने उस नाटक को कादर ख़ान के नाम कर दिया। ‘ताश के पत्ते’ नामक इस नाटक को कादर ख़ान अक्सर स्टेज़ पर किया करते थे।

होनहार कादर ख़ान ने इसके बाद एमएच साबू सिद्दीकी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन भी पूरी कर ली। दोस्तों मज़े की बात कि पढ़ाई पूरी होने के बाद कादर खान ने अपने ही कॉलेज में पढ़ाया भी था और वो भी उन सब्जेक्ट्स को जिसमें वे बेहद कमज़ोर थे। कादर ख़ान का अपने ही कॉलेज में टीचर बनने का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। अपने एक इंटरव्यू में कादर ख़ान ने बताया था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें शाह कंस्ट्रक्शन नाम की कम्पनी में छः-सात सौ रूपये महीने की सैलरी पर एक जॉब मिली थी लेकिन एक महीने बाद ही कादर को यह कहकर वहाँ से हटा दिया गया कि फिलहाल उनके पास कोई काम नहीं है इसलिए वे सैलरी नहीं दे पायेंगे। हैरान परेशान कादर अपने कॉलेज की सीढ़ियों पर आकर बैठ गये जहाँ उनके प्रिंसिपल साहब की नज़र उन पर पड़ गयी। उन्होंने कादर ख़ान को अपने ऑफिस में बुलाकर सारी बात पूछी और समझाया कि जॉब में ऐसा होता रहता है। उन्होंने कादर ख़ान को खाना खिलाया और 200 रूपये उनकी जेब में डाल दिये, साथ ही 11वीं कक्षा की क्लास लेने के लिये दो महीने की एक टेम्परेरी जॉब ऑफर कर दी जिसके लिये कादर ख़ान तैयार भी हो गये। ताज्जुब की बात ये कि जिन सब्जेक्ट्स को कादर पढ़ा रहे थे कभी उनमें वे ख़ुद फेल हो चुके थे, लेकिन उनके पढ़ाने का अंदाज़ इतना निराला था कि एक हफ्ते बाद ही उन्हें ‘बेस्ट टीचर ऑफ महाराष्ट्रा’ के अवॉर्ड से नवाज़ दिया गया। इसके बाद कादर ख़ान कॉलेज के सबसे चहेते प्रोफेसर बन गये और काफी दिनों तक पढ़ाते रहे। दोस्तों फ़िल्म लाइन में जाने के बाद भी कादर ख़ान रात-रात भर अपने स्टूडेंट्स को पढ़ाया करते थे और उनके द्वारा पढ़ाये गये सभी स्टूडेंट फस्ट क्लास नंबरों से पास भी होते थे। एक इंटरव्यू में में उन्होंने बताया था कि फ़िल्मों में काम करने के दौरान अपने स्टूडेंट्स के रिक्वेस्ट पर उन्होंने लगभग 3 महीनों तक रात को 12 बजे से सुबह 6 बजे तक बच्चों को पढ़ाया था। दोस्तों कादर ख़ान ने पढ़ाई और जॉब के दौरान नाटक लिखना कभी नहीं छोड़ा था। तब कादर ख़ान अपने लिखे नाटकों की रॉयल्टी के तौर पर 50 रुपये लिया करते थे जबकि दूसरे राइटर उस वक़्त 25 रूपये लिया करते थे। उस दौरान कादर ख़ान नाटकों को डायरेक्ट करने के लिये फीस के रूप में 200 रुपये लिया करते थे। हालांकि हर जगह जहाँ वे नहीं पहुँच पाते थे वहाँ उनके असिस्टेंट शफ़ी इनामदार, भरत कपूर और मुश्ताक मर्चेंट में से कोई एक जाकर नाटक डायरेक्ट कर दिया करते थे। ऐसे में वे मिलने वाले रुपये अपने असिस्टेंट से आधा-आधा बाँट लिया करते थे।

 

कैसे हुआ फ़िल्मों में आगमन-

एक बार कॉलेज के एनुअल फंक्शन में कादर खान का नाटक देखने के लिये ऐक्टर दिलीप कुमार ने अपनी इच्छा जताई। मज़े की बात कि फोन पर हुई बात के दौरान कादर ख़ान इसके लिए उनके आगे दो शर्त रख दी जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। कादर ख़ान ने दिलीप कुमार से कहा कि एक तो आपको समय पर आना होगा और दूसरा, अगर नाटक पसंद आया तो पूरा देखना होगा। इस पर दिलीप कुमार ने मज़ाक में पूछा कि “अगर कोई कॉन्ट्रेक्ट करना हो इसके लिये तो साइन कर दूँ?” ख़ैर दिलीप ने पूरा नाटक देखा और कादर खान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी अगली 2 फिल्मों के लिए उन्हें साइन भी कर लिया। उन फ़िल्मों के नाम थे “सगीना महतो” और “बैराग”। हालांकि बतौर ऐक्टर कादर ख़ान की शुरुआत साल 1973 में आयी राजेश खन्ना की फिल्म ‘दाग’ से हुई थी और ये दोनों फ़िल्में बाद में आयीं थीं।

दोस्तों कादर ख़ान एक बेहतरीन ऐक्टर थे लेकिन उन्हें बतौर राइटर लोगों ने पहले नोटिस किया था। एक बार मुंबई में एक ड्रामा कॉम्पिटिशन आयोजित हुआ जिसमें उनके कॉलेज के लड़कों ने उन्हें पार्टिसिपेट करने को कहा, हालांकि पहले तो कादर ख़ान ने करने से मना कर दिया लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि जीतने वाले को 1500 रूपये कैश इनाम में मिलने वाले हैं तब वे मान गये क्योंकि उस वक़्त उन्हें बतौर टीचर 300 रुपये मिला करते थे। उस कॉम्पिटिशन में कादर ख़ान के नाटक ‘लोकल ट्रेन’ को फस्ट प्राइज़ तो मिला ही साथ ही उन्हें बेस्ट राइटर, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर के सभी अवॉर्ड्स भी हासिल हुए। कादर ख़ान ने बताया था कि “उस वक्त मुझे 1500 रुपये नक़द इनाम के तौर पर मिले थे और तब मैंने जिंदगी में पहली बार एक साथ पंद्रह सौ रुपए देखे थे। कादर ख़ान ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि, “उस वक़्त तो मेरे पैर ही कांपने लगे थे। आप समझ सकते हैं अगर 300 रुपए पाने वाले के हाथ में 1500 रुपये आएं तो उसका क्या हाल होगा।” उस कॉम्पिटिशन में राइटर राजेन्द्र सिंह बेदी और उनके बेटे डायरेक्टर नरेंदर बेदी और ऐक्ट्रेस कामिनी कौशल जज के रूप में थे। नाटक ख़त्म होने के बाद डायरेक्टर नरेंद्र बेदी उनके पास आए और कहा कि मैं एक फिल्म बना रहा हूँ ‘जवानी दीवानी’ जिसमें रणधीर कपूर और जया भादुड़ी हैं। मैं चाहता हूं कि आप इसमें डायलॉग लिखें। कादर खान ने कहा कि सर मुझे नहीं पता कि फ़िल्मों में डायलॉग कैसे लिखे जाते हैं। इस पर नरेंद्र बेदी ने कहा कि “बस जैसे नाटकों के डॉयलॉग लिखते हो वैसे ही फिल्म के डायलॉग भी लिखने होते हैं।” अगले दिन कादर ख़ान को उन्होंने अपने ऑफिस बुलाकर फ़िल्म की स्टोरी वगैरह समझा दी और कहा कि एक महीने बाद फ़िल्म के इस पार्ट की शूटिंग है तब तक वे इसे लिखकर दे दें।  कादर ख़ान ने उसी वक़्त लोकल ट्रेन पकड़ी और मुंबई के ही फेमस क्रॉस मैदान में जाकर स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दी, उस दौरान उन्हें पास खेलते लड़कों की फूटबॉल भी बीच-बीच में आकर लग जाती। ख़ैर तीन चार घंटे के अंदर ही उन्होंने वह स्क्रिप्ट पूरी कर डाली और वापस नरेंद्र बेदी के ऑफिस पहुँच गये। नरेन्द्र बेदी को लगा कि कादर ख़ान को शायद कहानी समझ में नहीं आयी इसलिए वे कुछ पूछने आ रहे हैं, यह सोचकर झल्लाते हुए वे अपने आप में ही कुछ बुदबुदाने लगे जिसे कादर ख़ान ने नोटिस कर लिया। उन्होंने कहा “सर आपने मुझे गाली दी है मैं दूर से भी होंठ पढ़ सकता हूँ।” नरेन्द्र बेदी ने कहा, “यार तुझे इतने अच्छे से समझाया था लेकिन तू फिर पूछने चला आया?” इस पर कादर ख़ान ने उन्हें बताया कि मैं स्क्रिप्ट लिखकर लाया हूँ तो वहाँ मौजूद सभी लोग दंग रह गये। उनके डॉयलॉग्स को पढ़कर नरेंद्र बेदी ने उन्हें सीने से लगा लिया और जो शूटिंग एक महीने बाद शुरू होने वाली थी वो एक हफ्ते बाद ही शूरू कर दी गयी। कादर खान को इस फ़िल्म के लिये 1500 रूपये दिये गये। साल 1972 में आई इस फिल्म ने बतौर राइटर कादर ख़ान के रास्ते भी खोल दिए। कुछ और फ़िल्में लिखने के बाद साल 1974 में कादर ख़ान को सुपरस्टार राजेश खन्ना की फिल्म ‘रोटी’ के डायलॉग लिखने का मौका मिला, जो उनके करियर लिये एक टर्निंग प्वाइंट बना। मज़े की बात कि फ़िल्म के डायरेक्टर मनमोहन देसाई को तब कादर ख़ान पर कोई ख़ास भरोसा नहीं था, इसलिए उन्होंने पहले कादर ख़ान को अपनी फ़िल्म का क्लाइमेक्स लिखने को दिया और कहा कि “तुम मियाँ भाई लोग शेरो- शायरी और मुहावरे तो बढ़िया कर लेते हो लेकिन मुझे ऐसे डायलॉग चाहिए जिस पर दर्शक ताली बजाने पर मजबूर हो जाये।” कादर ख़ान स्क्रिप्ट लेकर घर आये और पूरी रात जागकर उसके डॉयलॉग लिख डाले और अगले दिन शाम को मनमोहन देसाई के घर पहुँच गये। मनमोहन उस वक़्त मोहल्ले के बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहे थे। कादर ख़ान को दूर से ही देखकर बड़बड़ाये कि “लगता है उल्लू के पठ्ठे को समझ में नहीं आया, फिर आ गया।” कादर ख़ान ने जो बात नरेन्द्र बेदी से कही थी वही मनमोहन देसाई से भी कही कि “आपने मुझे गाली दी है और मेरे बारे में ये लफ़्ज़ बोले हैं, सर मैं लिप रीडिंग कर सकता हूँ।” इस वाकये को बाद में फ़िल्म नसीब में उन्होंने एक सीन में इस्तेमाल भी किया था जब हीरोइन विलेन की बातें लिप रीडिंग से समझ लेती है। ख़ैर कादर ख़ान ने बताया कि वे डॉयलॉग लिखकर लाये हैं तो मनमोहन देसाई चकरा गये कि इतनी जल्दी कैसे लिख लिया। वे फौरन कादर ख़ान को लेकर घर के अंदर गये और कहा कि सुनाओ क्या लिखा है? कादर ने स्क्रिप्ट पढ़नी शुरू की और मनमोहन कभी उछलकर सोफे पर बैठते तो कभी बेड पे, उन्हें कादर ख़ान के डायलॉग इतने पसंद आए कि उन्होंने उसी समय कादर से कुल 10 बार उसे सुना। जिसके बाद वे घर के अंदर गए, अपना तोशिबा टीवी और ब्रेसलेट कादर ख़ान को उसी समय तोहफ़े में दे दिया। साथ ही पूछा कि “पेमेंट कितना लोगे क्योंकि मैं ज़्यादा नहीं दे पाऊंगा।” कादर ख़ान ने इससे पहले जो फ़िल्म साइन की थी उसके लिये उन्हें 21 हज़ार मिले थे, उन्होंने वही पेमेंट बता दिया, इस पर मनमोहन ने हँसते हुए कहा कि “मनमोहन देसाई का राइटर और 21 हज़ार? मैं तुम्हें एक लाख, इक्कीस हज़ार रुपए देता हूँ।” इसके बाद मनमोहन देसाई ने फ़िल्म इंडस्ट्री के सभी दिग्गजों को फोन लगाकर कादर ख़ान की तारीफ़ करते हुए कहा कि कादर ख़ान के रूप में एक ज़बरदस्त राइटर मिला है, राइटिंग क्या होती है वो इससे सीखनी चाहिए।

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अमिताभ से दोस्ती और ग़लतफ़हमी की कहानी-

कादर ख़ान और अमिताभ बच्चन दोनों एक दूसरे के क़ायल थे और एक दूसरे का ख़ूब सपोर्ट भी किया करते थे। जहाँ अमिताभ के लिये कादर ने एक से बढ़कर एक डॉयलॉग्स और सीन लिखे तो अमिताभ ने उनकी बेहतरीन ऐक्टिंग को देखते हुये साल 1976 में आयी फ़िल्म अदालत में एक दमदार किरदार दिलवाया। दरअसल कादर को पहले कोई भी बतौर ऐक्टर उतना सीरियस नहीं लेता था जिसके कि वे हकदार थे। जबकि अदालत के लिये उन्हें अवाॅर्ड भी मिले। उसी दौरान कुछ दिनों पहले ही अमिताभ के साथ उनकी एक और फ़िल्म रिलीज़ हुई थी जिसका नाम था ख़ून पसीना जिसके बाद वे हिंदी फिल्मों के एक दमदार विलेन बन गये। अमिताभ के लिये ढेरों फ़िल्में लिखने के साथ तब हर फ़िल्म में उनका रोल भी पक्का हो गया था। अदालत, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर, परवरिश’, ‘दो और दो पांच’, ‘याराना’, नसीब और कुली जैसी दर्जन भर कामयाब फिल्मों में दोनों ने लगातार साथ काम किया। ऐक्टिंग के अलावा कादर खान ने अमिताभ की अमर अकबर एंथनी, सत्ते पे सत्ता और शराबी जैसी फिल्मों के संवाद भी लिखे साथ ही अग्निपथ और नसीब जैसी फ़िल्मों के स्क्रीन-प्ले भी लिखे। उन दिनों मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा हिंदी फ़िल्मों के दो ऐसे खेमे थे जिनके लोग एक दूसरे के साथ काम नहीं करते थे लेकिन तब अमिताभ बच्चन के लिये पूरी छूट थी। जब कादर ख़ान पॉपुलर हुए तो वे प्रकाश मेहरा के खेमे में भी शामिल हो गये लेकिन इस बात की ख़बर मनमोहन देसाई को लग गई। उन्होंने कादर से पूछा तो कादर ने कहा कि, “वो मैं अमिताभ के साथ उनके कहने पे चला गया था।” तब मनमोहन देसाई ने कहा “अच्छा अमिताभ के कहने पे गये थे तो कोई बात नहीं।” दोस्तों कादर खान अमिताभ बच्चन को लेकर खुद भी एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनकी ये तमन्ना कभी पूरी नहीं हो पायी। बीबीसी से हुई एक खास बातचीत में उन्होंने बताया था कि, “मैं अमिताभ बच्चन, जया प्रदा और अमरीश पुरी को लेकर ‘जाहिल’ नाम की एक फ़िल्म बनाना चाहता था। उसका निर्देशन भी मैं ख़ुद करना चाहता था लेकिन ख़ुदा को शायद कुछ और ही मंजूर था। कादर खान ने बताया कि इसके फौरन बाद फिल्म कुली की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को जबरदस्त चोट लग गई और फिर वो महीनों अस्पताल में भर्ती रहे। अमिताभ के अस्पताल से वापस आने तक मैं अपनी दूसरी फिल्मों में व्यस्त हो गया और अमिताभ बच्चन राजनीति में आ गए।” दोनों के बीच आयी इस दूरी को और बढ़ाने का काम किया दक्षिण भारत के एक प्रोड्यूसर ने जिसकी एकतरफा बात ने कादर और अमिताभ को पूरी तरह अलग कर दिया। अपने एक इंटरव्यू के दौरान कादर ख़ान ने बताया था कि दक्षिण भारत के एक प्रोड्यूसर ने उन्हें अपनी फिल्म में डायलॉग राइटिंग पर बात करने के लिए बुलाया था। उसने कादर खान को कहा कि “आप जाकर सर जी से मिल लो।” इस पर कादर ख़ान ने पूछा कि “ये सर जी कौन है?” उस निर्माता ने अमिताभ बच्चन की ओर इशारा करते हुए कहा कि “क्या आप सर जी को नहीं जानते?” कादर खान ने ये सुनते ही उस निर्माता से पूछ लिया कि ‘ये सर जी कब से हो गए? मैं अमिताभ को अमित कहकर ही बुलाता हूं और दोस्तों को घरवालों को कभी भी इस तरह से संबोधित नहीं किया जाता है।” कादर ख़ान वहाँ से चले आये और इसके बाद दोनों की दोस्ती में दरार भी आ गई थी हालांकि यह दूरी कुछ ही दिनों की थी लेकिन लोग आज भी इस बात को मिर्च मसाला लगा के सुनाते हैं और कादर ख़ान के पुराने इंटरव्यूज़ दिखाकर इसे ताज़ा करते रहते हैं जबकि बाद में दोनों के बीच सब कुछ सामान्य हो गया था। तब अमिताभ की तारीफ करते हुए कादर खान ने कहा था कि “वे एक संपूर्ण कलाकार हैं। अल्लाह ने उनको अच्छी आवाज़, अच्छी ज़ुबान, अच्छी ऊंचाई और बोलती आंखों से नवाज़ा है।” जब कादर खान ने लंबे अंतराल के बाद अपनी वापसी की बात की थी तब अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर इसकी जानकारी देते हुए उनका स्वागत किया था और लिखा था कि, “कादर खान, अच्छे सहयोगी, लेखक, मेरी कई सफल फिल्मों में सहायक.. एक लंबे अंतराल के बाद फिल्मों में वापसी कर रहे हैं।”

 

करियर और अवाॅर्ड्स-

कादर ख़ान बतौर विलेन जितने हिट रहे उतने ही वे कॉमेडियन और कैरेक्टर ऐक्टर के तौर पर भी पसंद किये गये। कादर बताते हैं कि विलेन के रोल न करने का फैसला उन्होंने अपने परिवार और अपने स्टूडेंट्स की वज़ह से लिया था। दरअसल कादर खान के बेटों को स्कूल में अन्य स्टूडेंट्स चिढ़ाया करते थे कि वे विलेन के बेटे हैं। यहां तक कि एक बार उनके बड़े बेटे का इस चक्कर में किसी लड़के से झगड़ा भी हो गया था। इधर कादर खान की पत्नी भी उन्हें फिल्मों में विलेन बनने से रोकने लगी थीं। इतना ही नहीं उनके कॉलेज के स्टूडेंट्स भी उन्हें पॉज़िटिव रोल करने के लिये दबाव देने लगे थे। बतौर कॉमेडियन कादर खान पहली बार जितेंद्र , श्रीदेवी की 1983  में आई सुपर हिट फिल्म हिम्मतवाला में नज़र आये थे। इस फिल्म में उनके द्वारा निभाया गोपालदास नारायणदास का कॉमिक किरदार दर्शकों ने इतना पसंद किया कि इसके बाद वे जितेंद्र की कई फिल्मो में कॉमेडी करते नज़र आये। उस दौरान अगर वे विलेन भी बनते थे तो उसमें कॉमेडी का टच ज़रूर रहता था, धीरे-धीरे कादर ख़ान बतौर कॉमेडियन मशहूर हो गये। एक दौर तो ऐसा भी था जब कादर खान कई हीरो से ज़्यादा लोकप्रिय थे और पोस्टर पर उनके चेहरे को ही हाइलाइट किया जाता था। शक्ति कपूर, असरानी और अरुणा ईरानी के साथ उनकी जोड़ी को दर्शकों ने ख़ूब पसंद किया था। 90 के दशक में गोविंदा की फ़िल्मों में भी वे ख़ूब नज़र आये। कादर ख़ान 90 के दशक तक सक्रिय रहे थे और उसके बाद के दो दशकों तक भी वे चुनिंदा फ़िल्मों में नज़र आते रहे थे। कादर खान ने लगभग 44 वर्षों के फ़िल्मी करियर में 400 से ज़्यादा फिल्मों में ऐक्टिंग की है। आखिरी बार वे 2015 में आई फिल्म ‘हो गया दिमाग का दही’ में नजर आए थे। राइटर के तौर पर बात की जाये तो कादर खान ने 250 से ज्यादा फिल्मों के संवाद लिखे थे। 90 के दशक तक आते-आते कादर ख़ान ने लिखना तो कम कर दिया लेकिन बतौर ऐक्टर वे डेविड धवन की फ़िल्मों में दिखाई देते रहे, हालांकि तब भी अपने डायलॉग वो ख़ुद ही लिखा करते थे। अवाॅर्ड की बात करें तो कादर ख़ान को साल 1982 में ‘मेरी आवाज़ सुनो’ के लिए और साल 1993 में ‘अंगार’ के लिये बेस्ट डॉयलॉग राइटर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। इसके अलावा साल 1984 से लेकर 1999 के बीच वे 9 बार बतौर कॉमेडियन फिल्मफेयर अवाॅर्ड की ओर से नोमिनेट हुए थे जिसमें साल 1991 में ‘बाप नम्बरी बेटा 10 नम्बरी’ के लिए उन्हें यह अवार्ड हासिल भी हुआ था।

 

अन्य उपलब्धियाँ-

कम लोगों को ही पता होगा कि कादर ख़ान ने फ़िल्मों में काम करने के दौरान ही 4-5 सालों तक पढ़ाई कर हैदराबाद के उस्मानी युनिवर्सिटी से अरबी भाषा में एम ए भी पूरा कर लिया था। जिसके बाद उन्होंने बहुत सी इस्लामी किताबों का अनुवाद किया और विद्यार्थियों के लिये आसान भाषा में कई गाइड्स भी लिखी थी। कादर खान ने कई इस्लामिक अरबी किताबों का अनुवाद करने के साथ-साथ मिर्ज़ा गालिब की ग़ज़लों को समझाने के लिये भी किताबें ‍लिखी थी, जिनमें 100 से भी अधिक ग़ज़लों के मायने उन्होंने सरल शब्दों में लिखे। एक इंटरव्यू में कादर ख़ान ने बताया था कि एक बार वे न्यूयॉर्क में आयोजित एक स्टेज़ प्रोग्राम में गये थे जहाँ कुछ पाकिस्तानी महिलाएं भी बैठी थीं, उन्होंने कादर ख़ान से कहा कि उन्हें ग़ालिब साहब के एक शेर का मतलब समझा दीजिये। कादर ख़ान ने बहुत ही सरल शब्दों में उस कठिन शेर को समझाना शुरू किया और शेर ख़त्म होते-होते उन महिलाओं का हुजूम स्टेज़ पर चढ़ आया और कादर ख़ान से लिपटने के चक्कर में एक महिला उनसे टकरा गई और वे लगभग 15 फीट ऊँचे स्टेज़ से नीचे गिर पड़े। इतना ही नहीं उनके ऊपर एक के बाद एक 10 महिलाएं भी गिर पड़ीं जिससे उनके एक पैर का घुटना इतनी बुरी तरह डैमेज हो गया कि उसे ऑपरेट कराने की नौबत आ गयी। जिसके बाद कादर ख़ान कभी ठीक से चल नहीं सके। साल 2013 में कादर खान को साहित्य शिरोमणि अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। दोस्तों फ़िल्मों में कादर ख़ान द्वारा लिखे डबल मीनिंग और टपोरीपन भरे डॉयलॉग्स की वज़ह से उनकी कई बार आलोचना भी हुई थी। एक अवॉर्ड शो के दौरान कादर ख़ान ने ख़ुद यह बात क़ूबूल भी की थी कि आज जो फ़िल्मों में बिगड़ी हुई भाषा में डॉयलॉग्स सुनने को मिल रहे हैं, हिंदी फ़िल्मों में उसकी शुरुआत उन्होंने ही की थी। उस अवॉर्ड शो में उन्होंने यह भी वादा किया था कि जल्द ही वापसी कर वे फिर से लिखना शुरू करेंगे और आने वाली पीढ़ी को अच्छी ज़ुबान और साफ सुथरे डॉयलॉग्स सुनने को देंगे। मगर अफ़सोस कि ख़राब स्वास्थ्य की वज़ह से वो अपना ये वादा पूरा करने से पहले ही दुनियाँ छोड़कर चले गये। कादर खान लम्बे समय से बीमार चल रहे थे और कनाडा में इलाज करवाने के दौरान 31 दिसम्बर 2018 को 81 वर्ष की आयू में उनका निधन हो गया।

निजी जीवन-

कादर ख़ान ने दो शादियाँ की थीं उनके सबसे बड़े बेटे का नाम अब्दुल कुद्दूस ख़ान था जो कादर ख़ान की पहली पत्नी के बेटे थे। अब्दुल कनाडा के एक एयरपोर्ट पर बतौर सिक्योरिटी ऑफिसर कार्यरत थे, और साल 2021 में ही उनका निधन हो चुका है। कादर खान की दूसरी पत्नी का नाम अज़रा ख़ान था जिनसे उन्हें दो बेटे हैं सरफराज खान और शाहनवाज खान। सरफराज खान ऐक्टर और प्रोड्यूसर हैं। उन्होंने क्या यही प्यार है, ‘तेरे नाम’ और ‘वान्टेड’ सहित दर्जन भर फ़िल्मों में एक्टिंग की है।  2012 में सरफराज ने अपने पिता और भाई के साथ मिलकर ‘कल के कलाकार इंटरनैशनल थिएटर’ की स्थापना की थी। सरफराज भले ही बड़े पर्दे पर हिट न रहे हों लेकिन थियेटर की दुनिया का वे एक जाना माना नाम हैं। कादर ख़ान के छोटे बेटे शाहनवाज खान भी एक एक्टर हैं उन्होंने अपने पिता कादर खान के साथ कुछ नाटकों में भी काम किया है। इसके अलावा शाहनवाज ने ‘मिलेंगे मिलेंगे’ और ‘वादा’ फिल्मों में डायरेक्टर सतीश कौशिक को और राज कंवर को फिल्म ‘हमको तुम से प्यार है’ में असिस्ट भी किया है।

 

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