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यूसुफ खान से दिलीप कुमार बनने का किस्सा

“जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा,
किसी चराग का अपना मकाँ नहीं होता | “

भारतीय सिनेमा की कई पीढ़ियों को अपने प्रकाश से रोशन करने वाले एक ऐसे ही चिराग का नाम दिलीप कुमार है। कौनसा संवाद कैसे बोला जाएगा, कितनी हंसी कितनी उदासी और कैसा इमोशन पर्दे पर अभिनीत हो सकता है इस तरह के कई नियमों से भारतीय सिनेमा को रुबरु करवाने वाली एक भरी पुरी किताब है दिलीप कुमार जिसे पढ़कर न जाने कितने अभिनेताओं ने अपनी अदाकारी को संवारा है। आज के इस एपिसोड में हम इसी किताब के बनने की कहानी को पहले पन्ने से जानने कोशिश करेंगें। दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर 1922 को अविभाजित भारत के पेशावर में मशहूर किस्सा ख्वानी बाजार में मोहम्मद सरवर खान और आईशा बीबी के घर हुआ था और इनके बचपन का नाम युसुफ खान था। दिलीप कुमार अपने पिता की 13 संतानों में चौथे स्थान पर पैदा हुए थे और अपने माता-पिता के साथ एक संयुक्त परिवार में रहते थे। सरवर खान पेशावर में एक बड़े फल विक्रेता के रूप में काम करते थे जिन्हें दिलीप कुमार आघाजी कहकर पुकारा करते थे।

आघाजी के पारिवारिक रिश्ते दीवान बशेश्वरनाथ जी और उनके परिवार के साथ बहुत अच्छे थे और उन्हीं के कहने पर दुसरे विश्वयुद्ध के खतरे को देखते हुए सरवर खान का परिवार बम्बई गया था जहां व्यापार करने की स्थिति पेशावर से कहीं ज्यादा अच्छी थी। इसके बाद दिलीप कुमार के बड़े भाई की तबीयत बम्बई में बिगड़ने लगी तो यह परिवार महाराष्ट्र के पहाड़ी स्थान देओलाली में आकर रहने लगा था और अपने पिता के इन्हीं तबादलों के चलते दिलीप कुमार की शुरुआती पढ़ाई अंजुमने इस्लाम हाई स्कूल और बार्न्स स्कूल में हुई थी। माटुंगा की खालसा कॉलेज में पढ़ाई करते समय राजकपूर इनके सहपाठी थे जो दिलीप कुमार के फिल्मी सफर में इनके साथ रहे थे। सरवर खान अपने बेटे को सरकारी नौकरी करते देखना चाहते थे तो वहीं दिलीप कुमार बचपन में सोकर और क्रिकेट खेलना पसंद करते थे और उसी में अपना करियर बनाना चाहते थे। दुसरा विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद आघाजी को अपने काम में आने वाली मुश्किलों और पैसों की तंगी के कारण एक दिन युसुफ खान और इनके पिता के बीच झगड़ा हो गया था जिसके चलते युसुफ खान ने खुद पैसे कमाने का फैसला लिया और 40 रुपए घर से लेकर पुणे आ गए। पुणे पहुंचकर दिलीप कुमार एक रेस्टोरेंट में काम मांगने गए जहां उन्हें एक कैंटीन में फलों, सब्जियों, घी और दुध का स्टोक चैक करने और नया सामान मंगाने का काम मिल गया। एक दिन कैंटीन के मुख्य सैफ की अनुपस्थिति में अंग्रेजी सिपाहियों के मेजर जनरल अपने कुछ साथियों के साथ वहां आए तो उनके लिए दिलीप कुमार ने अपने मैनेजर के कहने पर सैंडविच बनाया जो उन्हें बहुत पसंद आया जिसके लिए मेजर जनरल और उनके साथियों ने मैनेजर की बहुत प्रशंसा की थी।

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इसके बाद जब दिलीप कुमार ने अपने मैनेजर से कैंटीन के क्लब के पास अपनी एक सैंडविच की स्टाल लगाने की इच्छा जताई तो मैनेजर ने खुशी खुशी उन्हें इजाजत दे दी और इसके बाद दिलीप कुमार का यह काम भी अच्छे मुनाफे के साथ आगे बढ़ने लगा। दुसरा विश्व युद्ध अपने चरम पर था और भारत का स्वतंत्रता संग्राम भी जोरों शोरों से जारी था इसी बीच एक दिन किसी सिपाही ने दिलीप कुमार को इन मुद्दों पर एक भाषण तैयार करने को कहा जो उन्हें कैंटीन के सभी सदस्यों के सामने सुनाना था।

दिलीप कुमार ने अपना भाषण तैयार किया और अगले दिन जब उन्होंने अपना भाषण सबको सुनाया तो वहां मौजूद कुछ पुलिस अधिकारियों ने उन्हें पकड़ लिया और यरवदा जेल की कोठरी में कुछ सत्याग्रहियों के साथ बंद कर दिया। कुछ देर बाद सत्याग्रहियों की बातें सुनकर दिलीप कुमार को पता चला कि सरदार वल्लभ भाई पटेल भी इसी जेल की किसी कोटड़ी में बंद है जिनके साथ ये सभी लोग भूख हड़ताल पर बैठे हुए हैं। इतना सुनकर दिलीप कुमार भी उनके साथ भूख हड़ताल में शामिल हो गए और एक रात बिना कुछ खाए पीए रहने के बाद उन्हें अगले दिन किसी आर्मी मेजर के कहने पर रिहा कर दिया गया था। इसके बाद दिलीप कुमार अपनी कमाई के पांच हजार रुपए लेकर वापस बम्बई आ गए और अपने पिता के काम में उनका हाथ बंटाने लगे लेकिन अब भी उनके मन में कुछ नया करने की इच्छा थी और उन्हें लगने लगा था कि वो कुछ बड़ा करने के लिए ही पैदा हुए हैं।

एक दिन जब दिलीप कुमार चर्चगेट स्टेशन पर दादर जाने के लिए ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तब उनकी मुलाकात डॉ मसानी से हुई जो इनके पिता को जानते थे। जब युसुफ खान ने उन्हें बताया कि वो किसी काम की तलाश में हैं तो डाक्टर मसानी ने उन्हें कहा कि मैं बोम्बे टाकीज की मालकिन से मिलने मालाड जा रहा हूं अगर तुम्हें कुछ दिक्कत ना हो तो तुम भी मेरे साथ चलो वहां तुम्हें कोई काम जरूर मिल जाएगा। युसुफ खान जब बोम्बे टोकीज की मालकिन देविका रानी से मिले तो उन्होंने युसुफ खान को उर्दू भाषा में उनकी अच्छी पकड़ को देखते हुए एक एक्टर के तौर पर 1250 रुपए की सैलरी पर उन्हें काम पर रख लिया। कुछ समय तक फिल्मों की शूटिंग देखने और अशोक कुमार से एक्टिंग के गुर सीखने के बाद एक दिन देविका रानी ने युसुफ खान को ज्वार भाटा फिल्म से लोंच करने का मन बनाया जिसके लिए उन्हें एक स्क्रीन नाम की जरूरत महसूस हुई। दिलीप कुमार जो तब तक युसुफ खान थे उनके सामने वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार ये तीन नाम रखे गए जिसमें से इन्होंने तीसरा नाम अपने लिए चुना और इस तरह युसुफ खान बन गए दिलीप कुमार।

Dilip Kumar

दिलीप कुमार की पहली दो फिल्में ज्वार भाटा और प्रतिमा बोक्स ओफीस पर फ्लॉप होने के बाद 1946 में आईं फिल्म मिलन दिलीप कुमार के करियर की पहली हिट साबित हुई। इसके बाद 1947 में आई फिल्म जुगनू के बाद दिलीप कुमार को मिडिया और फ़िल्म प्रशंसकों ने पहचानना शुरू कर दिया और फिर शुरू हुआ शोहरत का वो दौर जो अगले पचास सालों तक बदस्तूर जारी रहने वाला था। एक दिन बशेश्वरनाथ जी आघाजी के घर आए और उन्हें अपने साथ उस जगह ले गए जहां फिल्म जुगनू का एक बड़ा पोस्टर लगा हुआ था जिसे देखकर दिलीप कुमार के पिताजी को पहली बार मालूम हुआ कि उनके बेटे ने उस काम को अपना प्रोफेशन बना लिया है जिसे वो नौटंकी मानते हैं। इस बात ने आघाजी को नाराज कर दिया लेकिन यह नाराजगी लोगों से अपने बेटे के काम की प्रशंसा सुनते ही दुर हो गई। इसी साल आई फिल्म शहीद में दिलीप कुमार जहां कामिनी कौशल के साथ पहली बार नजर आए तो वहीं साल 1948 में आई फिल्म मेला में नरगिस और दिलीप कुमार की जोड़ी को पहली बार पर्दे पर देखा गया था।

मेला फिल्म की रिलीज के बाद नौशाद साहब के कहने पर दिलीप कुमार के पिताजी पहली बार कोई फिल्म देखने सिनेमाघर गए जहां उनके साथ दिलीप कुमार के चाचाजी भी थे। शाम को जब दिलीप कुमार अपने घर पहुंचे तो उनके पिता जी ने उनसे कहा देखो मुझे बताओ वो लड़की कौन थी जिससे तुम शादी करना चाहते हो, मैं उसके माता-पिता से बात करूंगा। कुछ देर बाद दिलीप कुमार को एहसास हुआ कि उनके पिता जी मेला फिल्म की हीरोइन नरगिस की बात कर रहे हैं और फिल्म की कहानी को सच मान बैठे हैं। इसके बाद दिलीप कुमार ने उन्हें समझाया और कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, वो लड़की फिल्म में मेरी हीरोइन थी जिसका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है। इसके बाद नदियां के पार, शबनम और अनोखा प्यार जैसी फिल्मों से यह सिलसिला जारी रहा और फिर साल 1949 में आई फिल्म अंदाज से दिलीप कुमार को भारतीय सिनेमा के ट्रेजेडी किंग का ताज मिल गया।

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साल‌ 1951दिलीप कुमार के करियर में बहुत अहमियत रखता है क्योंकि इस साल‌ आई फिल्म दीदार में उन्हें एक अंधे आदमी का किरदार निभाने को कहा गया था। इस किरदार के लिए दिलीप कुमार ने बम्बई के एक अंधे फकीर को अपना दोस्त बना लिया था और घंटो उसके साथ बैठे रहते थे, जिसका परिणाम यह हुआ कि आज यह किरदार हिंदी सिनेमा में अमर हो गया है। इसके अलावा साल 1951 में तराना फिल्म भी रिलीज हुई थी जिसमें मधुबाला और दिलीप कुमार की जोड़ी को पहली बार पर्दे पर देखा गया था। फिर साल 1952 में दिलीप कुमार ने महबूब खान के साथ आन फिल्म में काम किया जो इनके करियर की पहली रंगीन फिल्म थी और कहा जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसे देखकर सायरा बानो दिलीप कुमार को पसंद करने लगी थी। दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा में एक बड़ा नाम बन चुके थे,लेकिन एक के बाद एक ट्रेजेडी फिल्में और उनके किरदार दिलीप कुमार के दिमाग पर गलत असर डाल रहे थे जिसके चलते इन्होंने कई डोक्टरों से अपना इलाज भी करवाया और हर डोक्टर ने इन्हें ट्रेजेडी फिल्मों की जगह कुछ समय के लिए कोमेडी फिल्मों में काम करने की सलाह दी। इसके बाद दिलीप कुमार साल 1955 में प्राण साहब और मीना कुमारी के साथ फिल्म आजाद में नजर आए थे जो एक कोमेडी फिल्म थी। लेकिन अगले ही साल दिलीप कुमार एक बार फिर फिल्म देवदास के साथ ट्रेजेडी किंग के तौर पर नजर आए जो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के एक नोवेल पर आधारित फिल्म थी।

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साल 1957 में आई फिल्म नया दौर जिसे आज भी इसके शानदार म्यूजिक और इस फिल्म में दिलीप कुमार द्वारा निभाए गए एक तांगेवाले के किरदार के कारण पसंद किया जाता है। फिर आया साल 1960 जिसमें वर्षों के इंतजार के बाद फिल्म मुगल-ए-आजम रिलीज हुई जिसने हिंदी सिनेमा के इतिहास में कमाई के नए आयाम स्थापित कर दिए थे। अपने बेहतरीन संवादो के कारण याद की जाने वाली इस फिल्म के दौरान मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच बातचीत होना भी बंद हो गया था जिसके बाद यह जोड़ी हमें किसी भी फिल्म में नजर नहीं आई। इस फिल्म से जहां दिलीप कुमार एक अभिनेता के तौर पर सभी को अपना दीवाना बना चुके थे तो वहीं अगले साल आई फिल्म गंगा जमुना के साथ दिलीप कुमार एक प्रोड्यूसर के तौर पर भी नजर आए और यहां भी अपने जौहर से सबको अपना मुरीद बना दिया। इसके बाद दिलीप कुमार की लीडर फिल्म बोक्स ओफीस पर नाकामयाब रही लेकिन यह असफलता भी साल 1967 में आई फिल्म राम और श्याम के सामने धुंधली पड़ गई जिसमें दिलीप कुमार ने अपने फन का सबसे नायाब नमूना पेश किया था।

इसी दौरान 11 अक्टूबर 1966 को 44 साल की उम्र में दिलीप कुमार की शादी सायरा बानो से हो गई थी ‌। अपनी बढ़ती उम्र को देखते हुए दिलीप कुमार ने 1976 में आई फिल्म बैराग के बाद अगले पांच सालों तक किसी भी फिल्म में काम नहीं किया और फिर 1981 में मनोज कुमार के डायरेक्शन में बनी फिल्म क्रांति से इनके करियर की दुसरी पारी की शुरुआत हुई।

इसके बाद विधाता, कर्मा और सौदागर जैसी फिल्मों में काम करने के अलावा दिलीप कुमार ने मशाल और शक्ति में भी काम किया। 50 सालों के करियर में लगभग 65 फिल्मों में काम करने के बाद साल 1998 में आई फिल्म किला दिलीप कुमार की आखिरी फिल्म थी जिसके बाद दिलीप कुमार साल 2000 से 2006 तक मेम्बर ओफ पार्लियामेंट भी रहे थे। बात करें अगर दिलीप कुमार को मिले अवार्ड्स की तो आठ फिल्म फेयर पुरस्कार और 1994 में दादा साहेब फाल्के अवार्ड के अलावा दिलीप कुमार को पद्मभूषण, पद्मविभूषण और पाकिस्तान का सबसे बड़ा पुरस्कार निशाने इम्तियाज से भी नवाजा गया है। साल 2014 में दिलीप कुमार की ओटोबायोग्राफी रिलीज हुई जिसका नाम the substance and the shadow है। अपनी हर फिल्म, हर किरदार और हर संवाद को अमर कर देने वाले दिलीप कुमार आज 98 साल के हो गए हैं।

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