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जब भगवान गणेश ने तोडा राजा जनक का अहंकार

*वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। *
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

श्री गणेश भगवान सभी देवों में प्रथम पूज्य कहे जाते हैं, उनकी पूजा से शुरू किए गए किसी भी काम में कोई बाधा नहीं आती है, इसलिए गणेश जी को विघ्नहर्ता भी कहा जाता है। गणपति महाराज को शुभता, बुद्धि, सुख और समृद्धि का देवता माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जहां भगवान गणेश स्वयं निवास करते हैं, वहीं रिद्धि-सिद्धि, शुभ और लाभ का भी वास होता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार गणेश जी की दो पत्नियां हैं रिद्धि और सिद्धि। इनसे गणेश जी के दो पुत्र हैं। सिद्धि के पुत्र क्षेम यानी शुभ और रिद्धि के लाभ। इन्हें ही शुभ लाभ कहा जाता है। भगवान गणेश का जन्म कैसे हुआ इससे जुड़ी कथाएं तो हम प्रायः सुनते ही रहते हैं। परन्तु उनके बाल्यकाल से जुड़े बहुत से प्रसंग ऐसे भी हैं जो यदा-कदा ही सुनने को मिलते हैं। आज के वीडियो में हम गणपति बप्पा के बाल्यावस्था से जुड़े ऐसे ही कुछ प्रसंगों को लेकर आए हैं। साथ ही जानेंगे पुराणों में लिखित उनके भोजन प्रेम से जुड़े प्रसंगों के बारे में और यह भी जानेंगे कि कैसे भोजन के माध्यम से भगवान गणेश ने कुबेर महाराज और महाराजा जनक के अहंकार को तोड़ा था।

Shri Ganesh Ji

नमस्कार दर्शकों…

हर वर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी मनाई जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन सुख-समृद्धि के देवता भगवान गणेश का जन्म हुआ था।
भगवान गणेश को मोदक बहुत प्रिय हैं, परन्तु उन्हें मोदक ही सबसे प्रिय क्यों है इसके पीछे भी कई कथाएं हैं।

भगवान गणेश का मोदक प्रेम-
पहली कथा के अनुसार एक बार जब भगवान शिव सो रहे थे और उनकी नींद में किसी प्रकार का विध्न न होने पाए इस हेतु गणेश जी पहरा दे रहे थे तभी भगवान परशुराम उधर आए और महादेव से तत्काल मिलने के लिए आगे बढ़ने लगे, परन्तु गणेश जी ने उन्हें रोक दिया जिसपर वह क्रोधित हो उठे। बात इतनी आगे बढ़ी कि उनके मध्य युद्ध तक छिड़ गया जिसमें गणेश जी के दांत का एक भाग टूट गया। बाद में इससे उन्हें खाने में समस्या उत्पन्न हुई तो उनके लिए मोदक बनवाए गए। मोदक को बड़े आराम से ग्रहण कर लिया करते थे। मान्यता है तभी से मोदक उनका प्रिय व्यंजन बन गया था।
वहीं गणेश जी के मोदक प्रेम की एक कथा माता अनुसुइया से जुड़ी हुई है। कथा के अनुसार एक बार गणेश जी भगवान शिव और माता पार्वती के साथ माता अनुसुइया के आवास पर गए। माता अनुसुइया उनके आगमन से अत्यंत प्रसन्न हुईं उन्होंने सोचा पहले बालक गणेशजी को भोजन करा दिया जाए, उसके पश्चात बड़ों की सेवाभगत की जाएगी। गणेश जी आगे भोजन की थाल परोसी गयी परन्तु यह क्या वो तो खाते ही जा रहे थे पर उनका मन तृप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था। इस पर माता अनुसुइया ने एक युक्ति सोची और उनके समक्ष मोदक लाकर रख दिया। मोदक खाते ही न केवल उनका पेट भर गया साथ ही साथ वह डकार भी लेने लगे। माना जाता है तभी से मोदक गणेश जी का प्रिय भोग बन गया था।

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गणेश जी की चोरी-
भगवान गणेशजी के बालपन और उनके भोजन प्रेम से जुड़ी एक बड़ी ही प्रचलित कथा है। विभिन्न पुराणों के अनुसार एक बार गणेश जी अपने मित्र मुनि पुत्रों के साथ खेल रहे थे। खेलते-खेलते अकस्मात ही उन्हें भूख का आभास हो उठा, उन्होंने देखा कि पास में ही ऋषि गौतम का आश्रम था। वह ऋषि गौतम के आश्रम पहुँच गए जहाँ गौतम ऋषि ध्यान में लीन थे और उनकी पत्नी अहिल्या रसोई में भोजन बनाने में व्यस्त थीं। गणेश जी चुपके से रसोई तक पहुँच गये और माता अहिल्या का जैसे ही ध्यान बंटा, सारा भोजन चुराकर ले गए और मित्रों के साथ खाने लगे। इधर जब माता अहिल्या ने देखा कि रसोई का भोजन वहाँ नहीं है तो उन्होंने गौतम ऋषि का ध्यान भंग किया और बताया कि रसोई से सारा भोजन चोरी हो गया है। गौतम ऋषि ने आस-पास देखा और चोर की खोज में वन की ओर बढ़े जहाँ उन्होंने देखा कि गणेशजी अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे। गौतम ऋषि उन्हें पकड़कर माता पार्वती के पास ले गए और सारी घटना उन्हें सुना दी। माता पार्वती ने अपने पुत्र की चोरी की बात सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया उन्होंने बाल गणेश को अपनी कुटिया में ले जाकर बांध दिया। उन्हें बांधकर माता पार्वती कुटिया से बाहर आईं तो उन्हें ऐसा आभास हुआ जैसे गणेश जी उनके गोद में बैठे हैं, परन्तु जैसे ही कुटिया के अंदर गयीं तो देखा गणेश जी तो वैसे ही बंधे हुए थे जैसे उन्हें वे बाँधकर गयीं थीं। माता पार्वती ने सोचा यह कोई भ्रम होगा और अपने काम में लग गईं। परन्तु कुछ क्षण ही बीते होंगे कि उन्हें फिर आभास होने लगा कि गणेश शिवगणों के साथ खेल रहे हैं। वे पुनः कुटिया में दौड़ी दौड़ी गईं तो गणेश जी को वहीं बंधा देखा। इसके पश्चात मां पार्वती को गणेश जी हर ओर दिखाई देने लगे, कभी खेलते हुए, कभी भोजन करते हुए और कभी रोते हुए, उन्हें गणेश हर जगह दिखाई देने लगे। माता पार्वती जब पुन: कुटिया में गईं तो देखा कि गणेश जी तो किसी साधारण बालक की तरह रो रहे हैं और रस्सी से छूटने का प्रयास कर रहे हैं। माता को गणेश जी की इस अवस्था पर दया आ गयी और उनका स्नेह उमड़ पड़ा, उन्होंने तत्काल ही अपने पुत्र को बंधनों से मुक्त कर दिया।

तोड़ा कुबेर का अहंकार-
पुराणों के अनुसार श्री गणेश जी ने कुबेर महाराज का अहंकार तोडा था। जिसके पीछे बहुत ही रोचक कथा और वह भी गणेश भगवान और भोजन से ही जुड़ी हुई है। एक बार कुबेर अपने धन के भंडार को देखकर अहंकार से भर गए। उन्होंने सोचा कि मैं इतना धनवान हूं यह अन्य लोगों को भी पता चलना चाहिए। कुबेर महाराज ने संसार को दिखाने हेतु एक भव्य भोज का आयोजन किया। सबसे पहले वे अपने आराध्य भगवान शिव के पास पहुँचे और देवी पार्वती सहित उन्हें भोज में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। भगवान शिव तो अंतर्यामी थे वे कुबेर के मनोभाव को तुरंत ही समझ गए और मन ही मन कुबेर के अहंकार को दूर करने की योजना बना ली।
शिव जी ने मुख पर मुस्कान लाते हुए कहा कि मैं तो इस भोज में नहीं आ पाऊंगा परन्तु मेरे छोटे पुत्र गणेश जी अवश्य आएंगे। इसके पश्चात कुबेर वहाँ से दूसरे देवों को आमंत्रित करने हेतु आगे बढ़ गये। भोज के दिन भगवान गणेश नियत समय पर कुबेर के आवास पर पहुंच गए। गणेश जी भी बहुत बुद्धिमान और हर स्थिति को भांपने में कुशल थे। वह जानते थे कि उन्हें भगवान शिव ने यहाँ किस प्रयोजन से भेजा है। उन्होंने वहाँ आते ही कहा कि मुझे तेज भूख लगी है जल्दी प्रबंध करें। कुबेर को भी मानो इसी क्षण की प्रतीक्षा थी उन्होंने अपने धन का प्रदर्शन करने के लिए गणेश जी को सोने की थाल में भोजन परोस कर ग्रहण करने की विनती की। गणेश जी झट से उस भरे हुए थाल का भोजन समाप्त कर और भोजन की मांग करने लगे। इस तरह कुबेर उनके आगे भोजन परोसते जाते और गणेश जी उसे तुरंत समाप्त कर देते। दैखते ही देखते हजारों लोगों के लिए बना भोजन गणेश जी ने अकेले ही समाप्त लिया परन्तु इसके पश्चात भी गणेश जी का पेट नहीं भरा। गणेश जी इस पर भी नहीं रुके वे कुबेर की रसोई तक जा पहुंचे और जो कुछ भी रसोई में था उसे भी चट कर गए। इसके पश्चात जब गणेश जी ने कुबेर से और भोजन मांगा तो कुबेर उनसे क्षमा मांगने लगे। इस पर गणेश जी ने कहा ‘जब तुम्हारे पास भोजन का प्रबंध नहीं था तब भोज के लिए बुलाया क्यों।’ कुबेर अपने व्यवहार पर लज्जित हुए और उनका अहंकार चूर चूर हो गया।

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कैसे तोड़ा राजा जनक का अहंकार-
गणेश पुराण में ऐसी ही एक और क‍था मिलती है जो राजा जनक से जुड़ी हुई है। एक बार श्री नारद मुनि गणपति जी से मिथिला नरेश जनक जी महाराज के अहंकार की कथा कहते हैं। वह बताते हैं कि जनक जी स्‍वयं को तीन लोकों का स्‍वामी और रक्षक समझते हैं। यही नहीं वह स्‍वयं का गुणगान भी इसी रूप में करते हैं। तब गणपति जी महाराज मिथिला नरेश का अहंकार चूर करने उनकी नगरी जा पहुंचे। उन्‍होंने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और जनक जी महाराज के द्वार पर पहुंचकर कहा कि वह उनकी महिमा सुनकर आए हैं और बहुत दिनों से भूखें हैं। इसके बाद श्री जनक जी महाराज ने अपने सेवकों को ब्राह्मण देवता को भरपेट भोजन कराने का आदेश दिया। परन्तु गणेश जी तो गणेश जी ठहरे, उनकी क्षुधा तो तभी शांत हो सकती थी जब उनकी स्वयं की इच्छा हो, वरना उनका पेट तो कुबेर भी न भर सके थे। गणेश जी ने यहाँ भी अपनी लीला दिखानी प्रारंभ कर दी। उन्होंने महल के सारे भोज समाप्त करने के पश्चात पूरे नगर का संपूर्ण अन्‍न खा लिया लेकिन उनकी क्षुधा शांत नहीं हुई। महाराज जनक को यह भान हो गया कि अवश्य यह कोई दिव्य पुरुष हैं और उनके अहंकार को तोड़ने ही आये हैं वह हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगते हैं। इसके पश्चात ब्राह्मण वेशधारी श्री गणेश जी मिथिला के ही एक निर्धन ब्राह्मण त्रिशिरस के द्वार पर जा पहुंचते हैं। जहां वह कहते हैं कि वह अत्‍यंत भूखें हैं उन्‍हें भोजन कराएं ताकि उनकी क्षुधा शांत हो जाए। इस पर ब्राह्मण त्रिशिरस की पत्‍नी विरोचना ने श्री गणेश जी महाराज को दूर्वांकुर अर्पित किया। उसे खाते ही भगवान गणेश की क्षुधा शांत हो गई और वह तृप्‍त हो गए। इसके पश्चात अपने वास्तविक रूप में आकर गणपति जी ने दोनों दंपत्ति को आशीर्वाद दिया। मान्यता है कि तब से श्री गणेश जी महाराज को दूर्वांकुर अर्थात दूर्वा अवश्य चढ़ाया जाता है। कहा जाता है कि इससे पार्वती पुत्र प्रसन्‍न होकर भक्‍त पर सदैव ही अपनी कृपा बनाए रखते हैं। गणेश जी को चढ़ाए जाने वाली दूर्वांकुर का महत्‍व इतना है कि उसके आगे कुबेर का कोष भी कोई स्‍थान नहीं रखता। दूर्वा को दूब, अमृता, अनंता, महौषधि कई नामों से भी जाना जाता है। सनातन धर्म में कोई भी मांगलिक कार्य बिना हल्दी और दुर्वा के पूर्ण नहीं माना जाता। इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि दुर्वा किसी मंदिर के बगीचे या साफ जगह पर उगी हुई हो। जहाँ गंदा पानी बहता हो, वहां की दूर्वा भूलकर भी नहीं लेनी चाहिए। भगवान गणेश को दूर्वा चढ़ाने से पहले स्वच्छ जल से इसे धो लेना चाहिए।

भगवान गणेश से जुड़े ऐसे ही अनगिनत प्रसंग और कहानियाँ हैं जिन्हें हम आगे भी लेकर आते रहेंगे। हमें आशा है कि आज का यह वीडियो आपको अवश्य पसंद आया होगा। वीडियो के बारे में अपनी राय कमेंट्स के माध्यम से अवश्य बतायें और चैनल पर नये हों तो…

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