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गोविंद नामदेव: कैसे बने बॉलीवुड के खतरनाक विलेन में से एक

गोविंद नामदेव
250 रुपये से Bollywood के दिग्गज Villain बनने की कहानी

गोविंद नामदेव : असल ऐक्टर वो होता है जिसका अपना एक ख़ास अंदाज़ होता है, औरों से बिल्कुल जुदा…. जिसके द्वारा निभाये किरदार चाहे वो निगेटिव हों या पॉज़िटिव, सिनेमाघरों से निकलने के बाद भी दर्शकों को याद रह जाते हैं…. जिसकी आवाज़ और संवादों की गूँज बरसों-बरस कानों में सुनाई देती रहती है….

अपनी शानदार ऐक्टिंग, दमदार आवाज़ व बेहतरीन संवाद अदायगी के ज़रिये बॉलीवुड में अपना एक अलग मुकाम बनाने वाले ऐसे ही एक ऐक्टर हैं गोविंद नामदेव, जिनके द्वारा निभाये किरदारों को कोई चाहे भी तो भूला नहीं सकता। फिर चाहे वो विलेन की भूमिका हो या कैरेक्टर रोल, दर्शकों के जेहन में अपनी छाप छोड़ने में गोविन्द हमेशा सफल ही रहे हैं। हर तरह के किरदारों को अपनी ऐक्टिंग से जीवंत कर देने वाले गोविन्द नामदेव को बॉलीवुड के सबसे दमदार विलेन्स में से एक माना जाता है। बैंडिट क्वीन’ का ठाकुर श्रीराम हो या प्रेम ग्रंथ का रूप सहाय, ‘विरासत’ का बिरजू ठाकुर हो या ‘सरफरोश’ का वीरन, हर किरदार में जान डाल देने वाले गोविंद नामदेव के परदे पर आते ही कभी एक दहशत सी मच जाती थी। सैकड़ों विलेन्स के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाना वो भी अपनी पहली ही फ़िल्म से, और फिर उसे लम्बे वक़्त तक कायम भी रखना, कोई आसान काम नहीं है। कभी परदे पर ख़ौफ़ का दूसरा नाम बन जाने वाले गोविन्द नामदेव की अपनी कहानी भी बेहद ही दिलचस्प और प्रेरित करने वाली है

शुरुआती जीवन-

गोविंद नामदेव
गोविंद नामदेव

3 सितंबर 1950 को मध्यप्रदेश के सागर में जन्मे गोविन्द के पिता श्रीराम प्रसाद जी भगवान की मूर्तियों के कपड़े सिला करते थे जो कि उनका पुश्तैनी काम हुआ करता था। 6 भाई और 4 बहनों में से एक गोविन्द भी इस काम को थोड़ा बहुत किया करते थे हालांकि तब वे 7वीं कक्षा में थे। गोविंद के पिता रामायण भी गाया करते थे ऐसे में कभी-कभी गोविन्द भी उनके साथ गाते और मंजीरा बजाया करते थे, हालांकि यह सब बस उनके शौक़ का ही एक हिस्सा था। 8वीं कक्षा में गोविन्द ने गाँधीजी की आत्मकथा पढ़ी, जिसका असर उनपे कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें बड़े-बड़े लोगों के बारे में जानने की धुन सवार हो गयी, और उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस व सरोजनी नायडू आदि ढेरों महान विभूतियों की जीवनी को पढ़ डाला और ख़ुद उनके जैसा बड़ा बनने की ठान ली। सबके बारे में जानने के बाद पता नहीं कहाँ से गोविंद के मन में यह बात बैठ गयी कि सफल होने के लिये दिल्ली जाना और किसी बड़े कॉलेज से डिग्री हासिल करना बहुत ज़रूरी है। बस फिर क्या था उन्होंने ठान लिया कि दिल्ली जाना है। समस्या अब ये थी दिल्ली में रहेंगे कहाँ क्योंकि ऐसे तो घरवाले जाने नहीं देते। किस्मत से एक दोस्त के रिश्तेदार का पता उन्हें मिल गया बस फिर क्या था 3 महीने की क्लास करने के बाद भी उन्होंने 8वीं की पढ़ाई छोड़, अपने घर वालों को समझा बुझा कर वे दिल्ली के लिये निकल पड़े। तब सागर से नज़दीक के शहर बीना से एक पैसेंजर चला करती थी जो दिल्ली तक जाया करती थी और उस ज़माने में उनका अपने शहर से दिल्ली जाके पढ़ना ही बहुत बड़ी बात हुआ करती थो। 18 रुपये की टिकट लेकर पैसेंजर से 3 दिन का सफर करते हुए गोविन्द दिल्ली पहुँच ही गये। गोविंद का इरादा पक्का था कि जो करना है उसमें अव्वल आना है नहीं तो नहीं करना है। अपने इरादे को जुनून बनाकर उन्होंने आठवीं के एग्जाम में दिल्ली के 14 स्कूलों के ज़ोन में टॉप किया और स्कॉलरशिप हासिल कर ली। उनके आगे की पढ़ाई भी आसानी स्कॉलरशिप से ही होती गयी। न सिर्फ पढ़ाई बल्कि खेलकूद से लेकर कल्चरल प्रोग्राम और स्काउट व रेड क्रास आदि में भी उनका नाम हमेशा अव्वल रहा।

 

होनहार विद्यार्थी से ऐक्टर बनने की कहानी-

गोविन्द बताते हैं कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे एक ऐक्टर बनेंगे। उन्हें तो बस एक बड़ा और कुछ अलग काम करना था जिससे उनकी अपनी एक पहचान बन सके। 11वीं कक्षा तक आते-आते गोविंद को लगने लगा कि उन्हें कुछ जॉब करनी चाहिए ताकि वे अलग कहीं रह सके क्योंकि वे जिनके साथ रह रहे थे वहाँ रहना अब उन्हें ठीक नहीं लग रहा था। जॉब की तलाश में उनकी नज़र अखबार में छपे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा यानि एनएसडी में दाखिले के इश्तेहार पर पड़ी जिसमें 250 रुपये स्कॉलरशिप मिलने की बात भी लिखी थी। गोविंद को लगा कि इस स्कॉलरशिप से आगे की पढ़ाई भी हो जायेगी और कुछ नया सीखने को भी मिल जायेगा, उन्होंने फॉर्म भर दिया और सेलेक्ट भी हो गये। एनएसडी में एडमिशन मिलने के बाद गोविन्द के साथ एक समस्या और खड़ी हो गयी। दरअसल गोविन्द हिंदी मीडियम थे और वहाँ के टीचर अंग्रेजी में बोला करते थे। इस चक्कर उन्होंने 2-3 महीने तक क्लास बेमन से किया और सोचने लगे कि यह जगह शायद उनके लिये नहीं थी। ख़ैर उनके टीचर्स ने जब उनकी समस्या को समझा तो हिंदी में भी समझाने लगे और गोविंद का मन लग गया। साल 1975 के उनके बैच में अनुपम खेर, करन राजदान, सतीश कौशिक आदि भी उनके साथ थे। 1978 में एनएसडी से पासआउट होने के बाद ज़यादातर लोग मुंबई चले गए लेकिन गोविन्द को लगा अभी उन्हें अभी और सीखना चाहिए इसलिए वे दिल्ली में ही रुक गये। गोविंद अपने सीनियर मनोहर सिंह और सुरेखा सीकरी जैसे दिग्गजों से इतने प्रभावित थे कि उन्हें लगता था कि ऐक्टिंग हो तो ऐसी हो वरना न हो। एनएसडी के ही रिपटरी ग्रुप से जुड़कर गोविन्द ने 11 सालों तक खुद को तराशा और इस दौरान पोलैंड, लंदन, जर्मनी के साथ कई और देशों में नाटक प्रदर्शन करके ख़ूब नाम कमाया। इस दौरान मनोहर सिंह ने अपने द्वारा निभाये 2 बड़े किरदार भी गोविंद को निभाने के मौके दिये जिसने उन्हें थियेटर का दिग्गज कलाकार बना दिया।

 

मुंबई का सफर-

गोविन्द को जब अपने ऐक्टिंग पर पूरी तरह से कॉन्फिडेंस हो गया तो उन्होंने मुंबई जाने का फैसला किया। साल 1990 में जब वे मुंबई जा रहे थे तब उनकी सोच ये थी कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सिर्फ तीन लोगों को ही दर्शक ज्यादा जानते हैं, एक होता है हीरो, दूसरा हीरोइन और तीसरा विलेन। गोविंद जानते थे कि हीरो बनने की उनकी उम्र निकल चुकी थी ऐसे में उन्होंने तय किया कि उन्हें विलेन ही बनना है। बहरहाल मुंबई आने के बाद उन्हें ज्यादा स्ट्रगल करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उन्होंने जितना ड्रामा प्ले किया, उसका पिक्टोरियल एलबम बनाकर वो डायरेक्टर्स मिला करते थे जिसका असर ऐसा पड़ता कि उनके लिये कोई न कोई रोल ज़रूर निकल आता। तीन महीने में ही उन्हें पहली फिल्म परेश रावल के साथ केतन मेहता की ‘सरदार पटेल’ मिल गयी, मज़े कि बात कि इसके लिये उन्हें वापस दिल्ली जाकर ऑडिशन देना पड़ा था। जब गोविन्द सरदार पटेल फ़िल्म में काम कर रहे थे उसी दौरान उनकी मुलाकात पहलाज निहलानी और डेविड धवन से हुई, जो कि उस वक़्त शोला और शबनम बना रहे थे। उन्होंने गोविन्द को फाइनल कर लिया और 1992 में रिलीज़ हुई शोला और शबनम उनकी डेब्यू फिल्म बन गई। सरदार पटेल जो उन्होंने पहले साइन की थी वह 1994 में रिलीज हुई थी।

 

इमेज से घबराये गोविन्द का फैसला-

गोविंद नामदेव बताते हैं कि जब वे फिल्म ‘शोला और शबनम’ की शूटिंग कर रहे थे, तो इस फिल्म में उनके को-स्टार महावीर शाह ने एक बार गोविंद से कहा कि वह उनकी 25वीं फिल्म है और इन सभी फिल्मों में उन्होंने सिर्फ पुलिस इंस्पेक्टर का ही रोल किया है। गोविंद को बहुत ताज्जुब हुआ, उनके ऐसा क्यों? पूछने पर महावीर ने गोविंद को बताया कि वह इसी किरदार में फिट बैठते हैं, तो इसलिए उन्हें कोई दूसरा किरदार ऑफर ही नहीं करता। दोस्तों यह बात सुनकर गोविंद बहुत घबरा गए और उन्होंने तभी फैसला कर लिया कि इस फिल्म के बाद वे इंस्पेक्टर का रोल नहीं करेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए। हुआ भी वही जिसका उन्हें अंदेशा था, फिल्म रिलीज हुई, हिट भी हो गयी उनके काम लोगों ने ख़ूब सराहा भी, लेकिन उनके पास इंस्पेक्टर के ही रोल आने लगे। मजबूरी में उन्होंने इंस्पेक्टर के उस किरदार को चुना जो थोड़ा पॉज़िटिव था। हालांकि इसके बाद भी उनके पास वैसे ही रोल के लिए ऑफर आते रहे जैसा कि उन्होंने पहली फ़िल्म में किया था। ऐसे में उन्होंने मना करना शुरू कर दिया जिसका नतीज़ा यह हुआ कि इंडस्ट्री में ऐसी अफवाहें उड़ने लगी कि गोविंद थोड़े घमड़ी किस्म के इंसान हैं, क्योंकि वह किसी भी बड़े प्रोड्यूसर को डारेक्ट रोल के लिए मना कर देते थे। ख़ैर गोविंद ने तब भी सबसे मिलना-जुलना ज़ारी रखा और इसी दौरान उन्हें प्रेमग्रंथ और बैंडिट क्वीन जैसी फ़िल्में मिलीं जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

 

हालांकि उस दौरान बड़े परदे पर अनिश्चितता को देखते हुये उन्होंने टीवी का रुख़ भी किया और सुख दुःख व परिवर्तन जैसे सीरियल में काम किया। सीरियल परिवर्तन ने उन्हें घर-घर पहचान दिलाई, साथ ही उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि वे हर तरह के रोल निभा सकते हैं। बाद में भी गोविंद फ़िल्मों के साथ कई सीरियल्स में नज़र आते रहे।

बॉलीवुड के 5 खतरनाक विलेन कहा है और क्या कर रहें है

गोविन्द की ख़ास फिल्मों की बात करें तो उनमें शोला और शबनम, बैंडिट क्वीन, विरासत, सरफ़रोश, सत्या और ओह माय गॉड जैसी न जाने कितनी ही फ़िल्मों के नाम शामिल हैं जिन्हें गिनना मुश्किल है। हिंदी फ़िल्मों के अलावा गोविन्द ने साउथ में खूब काम किया है और 100 से ज्यादा शानदार फिल्मों का अहम हिस्सा रहे चुके गोविंद पिछले 32 सालों से लगातार अपनी दमदार अभिनय के दम पर फिल्मों में सक्रिय हैं और उनका जलवा आज तक कायम है। फिल्मों व टीवी के साथ साथ गोविन्द ओटीटी पर भी काम कर रहे हैं। उनके ख़ास शो में से एक है एलियन फ्रैंक नाम की वेब सीरीज जिसमें उन्होंने एडोल्फ हिटलर का किरदार निभाया है जो कि उनका कभी एक सपना था। हिटलर ही नहीं उन्होंने सरदार पटेल बाल गंगाधर तिलक व मोरारजी देसाई जैसी हस्तियों की भूमिकायें भी परदे पर निभाई हैं और उन्हें जीवंत कर दिया है।

 

दोस्तों गोविन्द कहते हैं कि फ़िल्मों में निगेटिव किरदार निभाने का उनके जीवन पर हमेशा पॉज़िटिव असर ही पड़ा है। वे बताते हैं कि उन्होंने फिल्मों में जब भी कोई निगेटिव किरदार किया, वे घर आकर उतना ही अपने बीवी-बच्चों से प्यार करते थे। गाेविंद नामदेव एक बेहतरीन लेखक भी हैं जिसका उदाहरण है उनकी लिखी पुस्तक ‘मधुकर शाह-बुंदेलखंड का नायक’। इस किताब का विमाेचन मुंबई में अमिताभ बच्चन के हाथों हुआ था जिसकी उन्होंने भी ख़ूब सराहना की थी।

अवाॅर्ड-

मशहूर फ़िल्मी अवाॅर्ड्स भले ही गोविंद की झोली में कम आये हों लेकिन साल 2019 में गोविंद नामदेव को ‘दादा साहेब फिल्म फेडरेशन’ अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। गोविंद बताते हैं कि “ऐसा नहीं है कि मुझे बॉलीवुड से अवॉर्ड नहीं मिले। मुझे स्क्रीन अवॉर्ड्स मिले हैं और कईयों बार मुझे फिल्मफेयर अवॉर्ड में नॉमिनेशन भी मिला है लेकिन अब क्या बोलूं। सभी जानते है कि इन अवॉर्ड्स में क्या-क्या होता है, कैसे और किसे अवॉर्ड्स मिलते  हैं। कई बार तो एकदम ऐसा लगा कि इस बार तो यह अवॉर्ड मुझे ही मिलेगा पर वो मेरी झोली में नहीं आया। कुछ वक्त बाद समझ आया कि ये अवॉर्ड एक्टिंग की वज़ह से नहीं मिलते। इनको हासिल करने का कोई और ही तरीका है। बस फिर मेरा मन उचट गया। आज मुझे बॉलीवुड से कोई अवॉर्ड न मिलने का कोई गम नहीं है। दर्शकों का प्यार ही मेरा असली अवॉर्ड है।”

निजी जीवन-

गोविन्द नामदेव की पत्नी का नाम है सुधा नामदेव। दोनों की मुलाक़ात और शादी का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। दरअसल जब गोविन्द एनएसडी में थे, उन दिनों एकेडमी में बच्चों का समर कैम्प लगा था, जहाँ मथुरा की रहने वाली सुधा, दिल्ली में अपनी बहन के घर घूमने आई थीं। वह रोज़ समर कैम्प में अपनी भतीजी के साथ आया करती थीं। साल 1980 में गोविन्द और उनकी पहली बार मुलाकात हुई। धीरे-धीरे नजदीकियां बढ़ती गईं और उसके अगले ही साल 1981 में वे जीवन साथी बन गए। गोविन्द और सुधा जी की 3 बेटियाँ हैं मेघा नामदेव, पल्लवी नामदेव और प्रगति नामदेव।

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