पुराणों और ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व में मथुरा में हुआ था, उसके पश्चात गोकुल, वृंदावन, नंदगांव, बरसाना और द्वारिका आदि जगहों पर उन्होंने अपना समय बिताया। पुराणों में यह भी बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण ने कुल 125 वर्षों तक धरती पर लीला की।
जिसमें यह भी बताया गया है कि महाभारत युद्ध के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने 36 वर्षों तक द्वारिका पर राज किया। इसके बाद उनकी मृत्यु हो गई और उस समय उनकी आयु 125 वर्ष थी। परंतु भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु का क्या रहस्य है यह आज भी लोगों की जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। कैसे हुई भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु आज हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे इसलिये बने रहें हमारे साथ।
महर्षि वेद व्यास ने जब महाभारत को लिखते समय उसे 18 खण्डों में विभक्त किया तो उसमें श्रीकृष्ण की मृत्यु और द्वारका नगरी के समुद्र में समा जाने की घटना का विस्तृत रूप में वर्णन किया। विभिन्न ग्रंथों पुराणों और महाकाव्यों में भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु के विषय में जिन कथाओं का उल्लेख किया गया है उनमें 2 कथायें सबसे महत्वपूर्ण हैं।
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पहली कथा गांधारी का श्राप
पहली कथा के अनुसार जब महाभारत के युद्ध में दुर्याोधन और उसके भाइयों का अंत हो गया, तो रानी गांधारी अपने बेटे के शव पर शोक व्यक्त करने के लिए रणभूमि में गई थीं और उनके साथ भगवान कृष्ण और पांडव भी गए थे। क्रोध और दुःख से भरी गांधारी ने युद्ध में पांडवों का साथ देने के लिये श्रीकृष्ण को उत्तरदायी मान कर उन्हें श्राप दिया।
गांधारी ने कहा-
“अगर मैंने भगवान विष्णु की सच्चे मन से पूजा की है तथा निस्वार्थ भाव से अपने पति की सेवा की है, तो जैसा मेरा कुल समाप्त हो गया, ऐसे ही तुम्हारा वंश तुम्हारे ही सामने समाप्त होगा और तुम देखते रह जाओगे। द्वारका नगरी तुम्हारे सामने समुद्र में डूब जाएगी और यदु वंश का भी पूर्ण रूप से नाश हो जाएगा।”
भगवान श्रीकृष्ण तनिक भी विचलित न हुए और मुस्कुराते हुए अपने ऊपर लगे अभिशाप को स्वीकार कर लिया और उन्होंने गांधारी से कहा
“ ‘माता’ मुझे आपसे इसी आशीर्वाद की प्रतीक्षा थी, मैं आपके श्राप को ग्रहण करता हूं।
उसके बाद हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो जाने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण द्वारका चले गए।
दूसरी कथा कृष्ण पुत्र साम्ब की शरारत
दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु और यदुवंशियों के नाश का कारण वह श्राप था जो ऋषियों ने यदुवंशियों को उनकी तपस्या भंग करने पर दिया था।
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भागवत पुराण के अनुसार, एक बार श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को एक शरारत सूझी और वे एक स्त्री का वेश धारण कर अपने साथियों के साथ ऋषि-मुनियों से मिलने गए। उन्होंने ऋषियों से कहा कि वे गर्भवती हैं। जब ऋषियों को सांब और उनके साथियों की इस शरारत का अनुमान हो गया तो वे क्रोधित हो गए और उन्होंने स्त्री बने सांब को शाप दिया कि “तुम्हारे पेट से एक ऐसे लोहे के तीर का जन्म होगा, जो तुम्हारे कुल और साम्राज्य के विनाश का कारण बनेगा।
ऋषियों का शाप सुनकर सांब भय से काँप उठे। वे तुरंत उग्रसेन के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई, उग्रसेन ने सोच विचार कर सांब से कहा कि वे उस तीर का चूर्ण बनाकर प्रभास नदी के जल में प्रवाहित कर दें, इस तरह उन्हें उस शाप से छुटकारा मिल जाएगा। सांब ने उग्रसेन के कहे अनुसार सब कुछ कर दिया।
इधर ऋषियों के श्राप के साथ साथ गांधारी का श्राप भी सच होने लगा। द्वारका में मदिरा का सेवन प्रतिबंधित होने के बाद भी लोगों ने इसका सेवन करना प्रारम्भ कर दिया और भोग-विलास में डूबकर अपने अच्छे आचरण, नैतिकता, अनुशासन तथा विनम्रता का त्याग करते चले गये।
कहा जाता है कि इस घटना के बाद द्वारका के विनाश के कई अशुभ संकेत मिलने प्रारम्भ हो गये थे, जैस सुदर्शन चक्र, श्रीकृष्ण का शंख, उनका रथ और बलराम के हल का अदृश्य हो जाना आदि प्रमुख थे।
द्वारिका में चारों ओर अपराध और पाप का वातावरण देख श्रीकृष्ण बहुत दुखी हो गए और उन्होंने अपनी प्रजा को अपने पापों से मुक्ति पाने के लिये प्रभास नदी के तट पर जाने को कहा।
प्रभास नदी के तट पर पहुंच कर सभी मदिरा के नशे में चूर एक दूसरे से बहस करने लगे धीरे-धीरे उनकी बहस ने झगड़े का रूप धारण कर लिया और झगड़ा इतना बढ़ा कि वे वहाँ उगी हुई घास को उखाड़कर सभी एक-दूसरे को मारने लगे।
कहा जाता है कि साम्ब को मिले श्राप की वजह से उगी हुई घासों में जहरीले लोहे के तत्व थे। परिणाम स्वरूप उसी घास से यदुवंशियों का नाश हो गया। इस घटना के कुछ दिनों के बाद ही बलराम ने भी अपने प्राण त्याग दिये।
भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ सभी देवी देवताओं को भी इस बात का ज्ञान हो गया था कि अब धरती से उनकी लीला समाप्त होने का समय अब समीप आ चुका है। सभी देवी-देवता आकाश से प्रभु की लीला देखने के लिये आ पहुँचे।
भागवत पुराण के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण एक दिन एक पीपल के पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे, तभी वहाँ जरा नामक एक बहेलिया आया और उसने जब दूर से प्रभु के चरणों को देखा तो उसे ऐसाा लगा कि वहाँ कोई हिरण बैठा हुआ है।
उसने हिरण समझकर तीर चला दिया और वो तीर सीधा प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों में जा लगा। और जब उसने पास आकर देखा कि तीर किसी हिरण को नहीं बल्कि श्रीकृष्ण को लगा है, तो वह रोते हुए अपने इस दुष्कार्य के लिए उनसे क्षमा मांगने लगा। तब श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि “हे जरा तुम ही तो मेरे राम अवतार के युग में बाली के रूप में थे और तब मैंने तुम्हें भी छुपकर तीर मारा था।
त्रेतायुग से तुमपे तीर मारने का जो आरोप मुझ पर लगा हुआ था आज तुम्हारे तीर चलाने से मैं उससे मुक्त हो गया।” यह कहते हुये भगवान श्रीकृष्ण ने जरा को गले से लगा लिया। अचानक भगवान के शंख, चक्र, कमलपुष्प और गदा सभी एक साथ प्रकट हुए और भगवान श्रीकृष्ण के साथ अंर्तध्यान हो गए।
यहाँ हम आपको याद दिला दें कि ऋषि द्वारा कृष्ण के पुत्र सांब को दिए शाप के अनुसार, श्रीकृष्ण को लगे तीर में उसी लोहे के तीर का अंश था, जो सांब के पेट से निकला था, जिसे उग्रसेन ने चूर्ण बनवाकर नदी में प्रवाहित करा दिया था।
और इस तरह ऋषियों और गांधारी के शाप के अनुसार महाभारत के युद्ध के 36 वर्ष के बाद समस्त यदुवंशियों का नाश हो गया और भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु के साथ द्वारका भी समुद्र में डूब गयी।