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जब फारस के एक महान सूफी संत को सरेआम दी गई एक सबसे दर्दनाक मौत

लेखक-धर्मेश कुमार रानू

 

अन-अल-हक

इस शब्द का अगर संस्कृति में तर्जुमा करें तो अर्थ “अहमं ब्रह्मास्मि” के समरूप होगा जिसको भारतीय आध्यात्मिक सिद्धान्त अद्वैत का मूल मंत्र कहा जा सकता है, अहं ब्रह्मस्मि या अन-अल-हक महज़ शब्द नहीं हैं जो कहे या सुनें जा सकें बल्कि ये एक अनुभूति है जो किसी सौभाग्यशाली व्यक्ति का उसके अस्तित्व से परिचय कराती है, यह चंद शब्द उसी प्रकार की किसी चेतन मनः अवस्था से उपजे उस अनुभूति के शब्दिक पर्याय हैं।

पर कैसा हो कि किसी देश, काल या स्थान में इस एक शब्द को बोलने मात्र से इंसान को कत्ल कर दिया जाए, सिर्फ कत्ल ही क्यों….सरे बाज़ार लाखों लोगों का मजमा इकट्ठा करके उसे ज़िल्लतों से भरी मौत नसीब की जाए?

दरहसल नवीं शताब्दी में एक फारस में एक सूफ़ी फ़क़ीर हुआ, नाम था अल हल्लाज “मंसूर”

मंसूर एक पहुंचे हुए सूफ़ी फ़क़ीर जुनैद का शिष्य था, कहा जाता है कि जुनैद की भी उस दौर में काफ़ी प्रसिद्धी हुआ करती थी और मंसूर को जुनैद का सबसे प्रिय शिष्य माना जाता था । स्वभाव से बेबाक और मुंहफट मंसूर दिल का नेक और दयालु इँसान था, हर वक़्त अपनी धुन में मग्न रहता था। पर इधर कुछ दिनों से उसके स्वभाव में एक गंभीरता देखने को मिली थी, घण्टों घण्टों भर बैठे ना जाने किस ख्याल में खोए मंसूर के मुख से सहसा ही निकल पड़ा “अन-अल-हक”

वक्त था शाम की जमावट का,  जुनैद व उनके बाकी शिष्य भी उस वक्त वहाँ मौजूद थे, बाकियों को लगा कि मंसूर  कोई अदना सा मज़ाक कर रहा है क्योंकि कोई भी इंसान खुद को ख़ुदा कैसे घोषित कर सकता है? जबकि पैग़म्बर तो एक हुए हैं और क़ुरआन पाक के संदेश भी आख़िरी संदेश हैं, उसके पढ़ने वाले बड़े इल्मदारों ने कभी ऐसी घोषणा ना कि तो एक तुच्छ फकीर की ऐसी उद्घोषणा तो उन्हें एक बार के लिए मज़ाक ही मालूम पड़ी परंतु जब मंसूर ने दुबारा वही शब्द दोहराए तब, सभी ने सोंचा कि ये खब्ती मंसूर का ज़रूर दिमागी संतुलन बिगड़ गया है,

 पर हद तो तब हो गई जब मंसूर इन्हीं शब्दों को बिना रुके लगातार दोहराता ही रहा, और सारी सभा उसको आश्चर्यचकित होकर देखती रही, उसके रुकने भर की ही देर थी कि सहसा बिना देर किए वहाँ बैठ एक शख्स ने उसे टोका, और कहा मंसूर जनाब लगता है आपका दिमाग फिर गया है, ये क्या अनाब शनाब बक्के जा रहे हैं? भला इतने बड़े पीर जुनैद के सबसे प्रिय शिष्य को ये शोभा देता है कि खुद के ख़ुदा होने का दावा पेश करे? “मेरी सलाह मानिए काबे की परिक्रमा पर जाइये और प्रायश्चित कर लीजिए “ वहाँ बैठे लगभग हर एक ने काबे की परिक्रमा कर प्रायश्चित करने वाली बात पर ज़ोर दिया, तब तक जुनैद बैठे ये सारा वाक्य घटित होते देख रहे थे।

थोड़ी देर बाद जब सबकी सलाहों के दौर पूरे हुए तो मंसूर ने आखिर मुस्कुराते हुए अपने गुरु जुनैद की ओर देखा मानो वो उनसे कोई संवाद स्थापित करना चाह रहा हो, मानो वो उनसे पूछ रहा हो कि आप बताएँ आपकी क्या राय है क्या मुझे सच मे काबे की परिक्रमा करने की सलाह पर गौर फ़रमाना चाहिए, गुरु जुनैद ने सर हिलाते हुए हामी भरी की मानो कह रहे हों इस लोकतांत्रिक निर्णय का मान रखते हुए बिना विलंब और बिना विरोध तुम काबे के मायने इन्हें समझा दो।

और इस तरह गुरु का आदेश पाके मंसूर उठा और अपने गुरु जुनैद की परिक्रमा कर ली और वापस आकर अपने स्थान पर बैठ गया, उस वक्त या उस जगह यदि कबीर होते तो शायद कहते “जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठ” लेकिन शायद कबीर और भी वैसे ही नासमझ मान लिए जाते जैसे उस दिन जुनैद मान लिया गया, लोग उस पर हंसे पर गुरु जुनैद की आँखों में आँसू थे , ख़ुशी के आँसू क्योंकि उन्हें लगा कि सालों की उनकी तपश्चर्या का परिणाम उन्होंने मंसूर को पाकर प्राप्त कर लिया हो।

गुरू जुनैद ने उस वक्त कुछ ना कहा शायद कहने को शब्द भी ना बचे होंगे इसीलिए उस रोज़ की सभा स्थगित कर दी गई।

कहते हैं कि उस रोज के बाद मंसूर सरे बाज़ार एक ही रट लगा कर ऐलान करता था कि, अन-अल-हक!  जो कि आम जनता और उस दौर के मज़हब के तथाकथित इल्मदारों और ठेकेदारों को ना गंवार गुज़रता था, कि कोई कैसे खुद के ख़ुदा होने का ऐलान कर सकता है, बात तो तब बिगड़ जाती जब मंसूर ये कहता कि अन-अल-हक सिर्फ़ उसके लिए नहीं है, बल्कि सभी के हक में है, सभी के लिए है….मंसूर के हिसाब से जो इस बात को समझे वो इसकी अनुभूति मात्र से परमेश्वर या ख़ुदा से इश्क़ या खुद से इश्क़ की ख़ुमारी का गवाह बनेगा।

बस फ़िर क्या था उस वक्त की कमज़र्फ आवाम, जोकि आज की आवाम से किसी मायने में कम ना रही होगी, ने विरोध शुरु कर दिए….बात राजा तक पहुंची कि एक जुनूनी है जो कि खुद के सच होने का, खुद के परमात्मा होने का ऐलान करता फिरता है….जोकि मज़हब के ख़िलाफ़ और ना क़ाबिल-ए-बर्दाश्त बात है। जब खुद पैगम्बर ये ना कह सके तो ये कमीन ज़ात क्या ही चीज़ है?

राजा को जब मालूम चला कि ये खब्ती मंसूर प्रसिद्ध सूफ़ी फ़क़ीर जुनैद का शिष्य है तो राजा ने जुनैद से ये शर्त रखी कि या तो इसका मुह बंद करवाओ तो हम इसे बख्श देंगे या इसको अस्वीकार कर दो वरना इसके कत्ल किये जाने के बाद जनता कहीं तुम्हें (यानि जुनैद को) खुद ही सरे बाज़ार कत्ल ना कर दे।

अगले रोज़ जुनैद ने मंसूर को बुलाया, और उसको समझाने की कोशिश की, कि अगर वो नहीं रुका तो राजा जल्द ही उसके कत्ल का फ़रमान दे देगा। इसलिए अच्छा यही है कि ज़िंदा रहो और मालिक की बंदगी में करो, आख़िर सलामती रही तो ही तुम खुदा के बंदों “हक” सिखा सकोगे?

मंसूर हँस पड़ा और बोला वो प्रयास तो मैं आज भी कर रहा हूँ इनके कानों तक मालिक का ही सन्देश तो पहुँचा रहा हूँ, “अन-अल-हक”

जुनैद बोले “तुम मार दिए जाओगे” मंसूर बोला “कोई भला मरता भी है क्या? हाँ बस ये देह ना रहेगी”

जुनैद को चिंता हुई पर अब किया भी तो क्या जा सकता था, उन्हें पता था कि कितने भी तर्क दिए जाएं मंसूर के आगे कोई काम के ना साबित होंगे तो अन्ततः अपने बाकी के सूफ़ी कुनबे की सलामती के लिए उन्होंने मंसूर का त्याग कर दिया।

और फिर राजा को ये बात पता चली तो उसने सरे बाज़ार लाखों का मजमा इकठ्ठा किया उनके बीच ज़ंजीरों से बंधा हुआ मंसूर खड़ा था, आवाम को उसे कम से कम एक पत्थर मारने के आदेश थे, लोग पत्थर मार रहे थे, और वो मुस्कुरा रहा था, चूंकि उस भीड़ में हर शख्स को कुछ ना कुछ मारना तो था ही, तो उसी भीड़ में खड़े जुनैद ने सोंचा कि पत्थर चोट करेंगे इसलिए फूल फेंक के क्यों ना मारा जाए ताकि राजाज्ञा का भी पालन हो और उसे कोई मलाल भी ना रह जाए।

तो जुनैद ने उसे फूल फेंक कर मारे, अभी तक मुस्कुरा कर पत्थरों की मार झेल रहे मंसूर ने जब गुरु जुनैद को उसे फूल फेंक कर मारते हुए देखा तो अचानक वो रो पड़ा, जब जुनैद ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि “इन पत्थरों ने इतनी चोट नहीं की, जितनी इस फूल ने की,  क्योंकि ये लोग जो पत्थर मार रहे हैं वो तो सच से अनजान हैं, पर जो जानते हैं, वो भी चोट कर गये”

इसके बाद मंसूर कुछ और कह ना सका सिवाय उस अटल मंत्र के जिसे वो बार बार दोहराता था कि “अन-अल-हक”

पहले एक एक कर उसके पैर काटे गए, वो चिल्लाया अन-अल-हक!! फिर उसके हाथ काटे गए वो फिर भी चिल्लाया अन-अल-हक!!! अब ज़ुबान की बारी थी और वो जानता था कि एक बार ज़ुबान कटी तो वो ये कभी ना दोहरा पायेगा इसलिए इस बार पूरा ज़ोर लगा कर वो आख़िरी बार चिल्ला उठा अन-अल-हक!!!!

और ये गूंज फारस की तारीख में एक अमर गुंजन बनकर तारीख के पन्नों की सूनी कब्रों में मुरझाई सी दफ़्न हो गई, जिसे गाहे बगाहे कभी कोई हक परस्पर सजदा कर लिया करता हो शायद!

लेखक-धर्मेश कुमार रानू

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