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लैंस क्लूजनर: फौजी कैसे बना साउथ अफ्रीका का खूंखार बल्लेबाज

लैंस क्लूजनर
एक फौजी कैसे बना साउथ अफ्रीका का खूंखार बल्लेबाज

लैंस क्लूजनर: दोस्तों ये तो हम जानते ही हैं कि शुन्य की खोज की आर्यभट्ट ने, लॉ ऑफ़ ग्रेविटी की खोज की न्यूटन ने। लेकिन यदि बात हो क्रिकेट की, तो एक शब्द हम यहाँ अक्सर कहते हैं वान मैन आर्मी, मतलब वो खिलाड़ी जो अकेला ही लड़कर अपनी टीम को मैच जीता जाए।उदाहरण के लिए 2014,2016, यहां तक कि 2022 के टी 20 विश्व कप में विराट कोहली, जिन्होंने अपने कंधों पर भारतीय टीम की जिम्मेदारी उठाई और भारत को फाइनल्स में पहुंचाया। यदि मैं आपसे पुछूं कि इस शब्द कि खोज किस खिलाड़ी ने को, या यूं कहें कि किस खिलाड़ी की क्रिकेट का पहला वान मैन आर्मी कौन था, तो शायद आप नहीं जानते होंगे। चलिए आज हम आपको बताते हैं, वो खिलाड़ी ऐसे थे, जो दूसरी टीम की जीत और अपनी हार के बीच अंतर बन जाते थे, उनकी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी दूसरी टीम को नाइटमेयर दे दिया करती। वहीं उनकी गेंदबाज़ी बड़ी बड़ी टीमों को हिलाने का दम खम रखती। जिस वक्त दुनिया को फिनिशिंग की समझ न थी,इस धाकड़ खिलाड़ी ने यह कारनामा रोचक और बेखौफ अंदाज़ में करके दिखाया।यही नहीं, अपने शानदार खेल के दम पर वह दिग्गज 1999 विश्व कप में अपनी टीम को इतनी आगे ले आया था। जी हां,हम बात कर रहे हैं दक्षिण अफ्रीका के महानतम ऑलराउंडर लैंस क्लूजनर की, जिन्होंने दुनिया को क्रंच और फसे हुए मैच जीतना सिखाया। हमारे कई दर्शकों की काफ़ी समय से आ रही बेहद ख़ास डिमांड पर आज हम जानेंगे कि कैसे एक फ़ौजी बना दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट का सबसे कारगर और महत्वपूर्ण सिपाही, लेकिन दक्षिण अफ्रीका को इतना कुछ देने वाले इस क्रिकेटर को न ही वो सम्मान मिला,और न ही फेयरवेल का मौका।और आखिरकार क्यों उनका कैरियर समय से काफ़ी पहले समाप्त हो गया। साथ ही बात करेंगे उस कलंक की, जिसे न मिटा पाने का मलाल आजतक क्लूजनर को सताता है।

कहानी इंग्लैंड के हीरो बेन स्टोक्स की : Biography in hindi

लैंस क्लूजनर का जन्म 4 सितंबर 1971 को दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर के नटाल प्रोविंस में हुआ। उनके पिता भी एक स्पोर्ट्सपर्सन थे जो पोलो के साथ साथ क्रिकेट भी खेला करते। स्पोर्ट्स तो क्लूजनर के खून में ही था। उनके पिता का एक फार्महाउस था, जहां वे गन्ने की खेती किया करते और लैंस को अपने साथ ले जाया करते, जहां वे वहां के वर्करों के बच्चों के साथ फुटबॉल खेला करते, रनिंग किया करते और अपनी फिटनेस, फिसिक पर ध्यान दिया करते। साथ ही उन्हें फिशिंग का भी काफ़ी शौंक था।अब क्योंकि वे वर्कर और उनके बच्चे अधिकतर ज़ुलु में बात किया करते, तो क्लूजनर को भी इस भाषा में अच्छी कमांड प्राप्त हुई, इसी के चलते उन्हें ज़ुलु के नाम से भी जाना गया। उनके पिता ने उनका दाखिला डरबन के एक बोर्डिंग हाई स्कूल में कराया। और अपने फाइनल ईयर में क्लूजनर ने स्कूल टीम की ओर से क्रिकेट खेला,और बतौर बल्लेबाज खेलते हुए अपनी टीम को कई मैच भी जीताए। पढ़ाई पूरी करके वे मिलिट्री की ट्रेनिंग करने चले गए और उसके बाद 3 वर्ष तक उन्होंने फ़ौज में अपनी सेवाएं दी, इसी दौरान खाली वक्त में उन्होंने गेंदबाज़ी करना भी शुरू किया। इस दौरान उन्होंने अपनी एक थ्योरी बनाई कि यदि आप बल्लेबाज के विकेट को हिट नहीं कर सकते तो उनके सिर को हिट करें, इससे आपको विकेट ज़रूर मिलेगा। मिलिट्री की सर्विस पूरी कर उन्होंने क्रिकेट में ही अपना कैरियर बनाने का निर्णय लिया। और कुछ लोकल टीमों में कई लोकल टूर्नामेंट खेल अपने प्रदर्शन और स्किल्स को निखारना भी शुरू किया। ऐसे ही मुकाबलों में गेंदबाज़ी करते हुए,एक बार उनपर नटाल फर्स्ट क्लास क्रिकेट टीम के मैनेजर डेनिस कर्लस्टीन की नज़र पड़ी और उन्होंने ज़ुलु के असली टैलेंट को अपनी पार की नजर से पहचाना और उन्हें अपने क्लब के नेट सैशन में बुलाया।ज़ुलु वहां गए और अपनी बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी स्टाइल से काफ़ी प्रभावित किया। परिणाम स्वरूप 1991 में उन्हें नटाल की टीम से अपने फर्स्ट क्लास करियर का आगाज़ करने का मौका मिला। बाद में मैलकॉम मार्शल भी उनके टैलेंट से काफ़ी वशीभूत हुए। जहां क्लूजनर ने अपने कमाल का खेल दिखाकर खूब जलवा बिखेरा।और 5 साल घरेलू क्रिकेट में अपना दम खम दिखाने के बाद आखिरकार उन्हें 1996 में इंग्लैंड के खिलाफ़ ओडीआई मैच में अपने अंतरराष्ट्रीय करियर में पदार्पण करने का मौका मिला। हालांकि उनका प्रदर्शन बल्ले और गेंद दोनों से 0 था,और वे कुछ खास छाप छोड़ने में नाकाम रहे। लेकिन अपने तीसरे ही मैच में उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़ मैच जिताऊ 88 रन की पारी खेल अपने टीम को 8 विकेट से जीत दिलाई। इसी वर्ष उन्हें भारत के खिलाफ़ टेस्ट में भी डेब्यू करने का अवसर मिला। भले ही वे बल्ले से फ्लॉप रहे, लेकिन दूसरी पारी में गेंद से 8 विकेट चटकाकर भारतीय बल्लेबाजी को तहस नहस कर दिया। और अगले वर्ष भारत के ही खिलाफ़ टैस्ट में महज़ 100 गेंदों पर 13 चौके और एक छक्के की मदद से 102 रन की पारी खेल अपना पहला शतक जड़ बल्ले से भी अपनी उपयोगिता साबित की। उनकी बल्लेबाज़ी का अंदाज़ काफ़ी निराला था।1.5 किलो का भारी भरकम बल्ला, काफ़ी ऊंचा बैकलिफ्ट, और उनका  बेसबॉल स्टाइल स्टांस काफ़ी आकर्षक था।वे गेंद को दूर मारने की क्षमता रखते थे। साथ ही अच्छी लाईन लेंथ पर गेंद को भी लहराते। इसी वर्ष उन्होंने अपना कमल का हरफनमौला खेल दिखाते हुए श्रीलंका के खिलाफ़ एक मुकाबले में मैच जीताया। पहले  बल्ले से 132 के स्ट्राइक रेट से खेलते हुए आतिशी 54 रन जड़,और गेंद से भी 6 विकेट चटकाकर मैन ऑफ द मैच का अवार्ड अपने नाम किया। साल 1999 वो समय आया जब विश्व ने क्लूजनर का रौद्र रुप देखा। वे इस वक्त अपनी पीक पर थे।  विश्व कप में उन्होंने कोहराम मचा दिया था। पहले श्रीलंका के खिलाफ़ 52 रन बनाकर और 3 विकेट, और फिर इंग्लैंड के खिलाफ़ 48 रन 1 विकेट, केन्या के खिलाफ़ 5 विकेट, पाकिस्तान के खिलाफ 46 रन और 1 विकेट लेकर वे 4 मैचों में मैन ऑफ द मैच बने, खासतौर पर पाकिस्तान के खिलाफ काफ़ी क्रंच मैच में दबाव की स्थिति से निकालकर वसीम, रज्जाक और अख़्तर के खतरनाक पेस अटैक को डेथ ओवरों में धो डाला था। लेकिन आगे इस विश्व कप में कुछ ऐसा हुआ जिसका क्लूजनर को आजतक मलाल है।दक्षिण अफ्रीका अपने कप जीतने के सपने के बेहद करीब आ पहुंचा था, और सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया से सामना कर रहा था। पहले इस मैच में उनकी गेंद पर स्टीव वॉ का कैच अजीबोगरीब तरीके से गिब्स ने ड्रॉप किया, जो आगे जाकर टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। बाद में 214 रन का पीछा करते हुए दक्षिण अफ्रीका ने अपने विकेट अंतराल पर गंवा दिए और अंतिम 4 ओवर में उन्हें 30 रन की दरकार थी और 3 विकेट हाथ में थी। और 49वे ओवर में 2 और विकेट गिर चुके थे। अब अंतिम ओवर में 9 रनों की आवश्यकता थी और आखरी विकेट बचा था। और पहली 2 गेंदों पर दो चौके लगाकर क्लूसनर मैच टाई कर गए, और चौथी गेंद सामने खेलते ही सिंगल लेने दौड़ चले। लेकिन वहां नॉन स्ट्राइकर ऐलन डोनाल्ड की नालायकी (जो गेंद को ही देखते रहे और भागे ही नहीं) की वजह से वे रनआउट हो गए और करोड़ों दिल टूट गए। केवल 0.01 के अच्छे रनरेट के चलते ऑस्ट्रेलिया फाइनल में पहुंची और दक्षिण अफ्रीका के माथे पर लगा चोकर्स का धब्बा। गज़ब का प्रदर्शन कर क्लूजनर मैन ऑफ द टूर्नामेंट तो बने(281 रन,17 विकेट), लेकिन ट्रॉफी न जीता सके। वे 8 मैचों में महज़ 2 बार आउट हुए,और अंतिम 10 ओवर में उनका स्ट्राइक रेट 163 का रहा।इस विश्व कप के बाद वे ऑलराउंडर की रैंकिंग में भी पहले स्थान पर आ गए। उन्होंने अपनी बल्लेबाज़ी में काफ़ी सुधार किया और कई  इसी वर्ष कई ताबड़तोड़ पारियां खेली। चाहे वो इंग्लैंड के खिलाफ़ उनकी 174(25*4,6*2) हों, या फिर न्यूजीलैंड के खिलाफ़ 103 रन(8*4,1*6)  की पारी जहां बाकी बल्लेबाज एक के बाद एक करके आउट होते चले गए। इसी वर्ष उन्होंने न्यूजीलैंड के खिलाफ़ मैच में एक गज़ब का फिनिश किया,जब उनकी टीम को 14 गेंद में 27 रन की दरकार थी और केवल 3 विकेट बचे थे। क्लूजनर ने वहां अंतिम गेंद पर छक्का जड़कर टीम को जीत दिलाई।

इसके बाद कुछ समय वे चोटों से काफ़ी परेशान रहे जिससे उनके फॉर्म में थोड़ी गिरावट आई। उनका प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं था जिसके बाद उन्हें टीम से ड्रॉप किया गया।लेकिन 2002 में उन्होंने अपनी कई बेमिसाल पारियों के दम पर टीम में वापसी की। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़ एक ओडीआई में उस वक्त 83 रन की ताबड़तोड़ पारी खेली जब अन्य खिलाड़ी ताश के पत्तों की तरह बिखर गए।ये उस वक्त का नंबर 8 के बल्लेबाज द्वारा सर्वाधिक स्कोर था। की चैंपियंस ट्रॉफी और 2003 के विश्व कप में उन्होंने कमाल का प्रदर्शन किया। यहां भी कहानी पिछ्ले विश्व कप जैसी ही रही। अंत में सारा दारोमदार क्लूजनर के कंधों पर ही होता। वेस्टइंडीज के खिलाफ़ मैच में वे लगभग टीम को जीत के द्वार ले ही आए थे।लेकिन उनके ताबड़तोड़ 57 रनों के बावजूद दक्षिण अफ्रीका 3 रन से हार गई। श्रीलंका के खिलाफ़ भी दक्षिण अफ्रीका के पास सेमिफाइनल में पहुंचने का चांस था।लेकिन क्लूजनर ने 8 गेंदों में केवल एक रन बनाया, जिसके चलते बाउचर पर प्रैशर बनता चला गया। और डकवर्थ लुईस के खराब कैलकुलेशन के चलते दक्षिण अफ्रीका केवल एक रन से हार गई। इसके बाद क्लूजनर की जमकर आलोचना हुई।और विश्व कप के बाद उन्हें इंग्लैड दौरे के लिए टीम से बाहर कर दिया गया।और उन्होंने अपने बोर्ड के खिलाफ़ अर्निंग लॉस के कारण लीगल एक्शन भी ले लिया, क्योंकि उन्होंने अपने देश के लिए काउंटी क्रिकेट का ऑफर ठुकरा दिया था। हालांकि बाद में मामला शांत हो गया और बोर्ड संग उनकी बात सुलझ गई।

क्लूसनर अपने दम पर मैच का रुख पलट दिया करते थे।वैसे तो वे 2004 की चैम्पियंस ट्रॉफ़ी के लिए भी पूर्णतः उपलब्ध/अवेलेबल थे।और उनका चयन भी टीम में हो चुका था।लेकिन इतने शानदार खिलाड़ी होने के बावजूद जब 2003 में ग्रीम स्मिथ को दक्षिण अफ्रीका का कप्तान बने, तो उन्होंने क्लूजनर को ये कहकर टीम में लेने से मना कर दिया कि वे टीम में फूट डालते हैं और एक टीम मैन नहीं हैं।और स्मिथ ने आगे उनके सिलेक्शन के लिए काफ़ी आपत्ति जताई।चैम्पियंस ट्रॉफ़ी के बाद क्लूजनर का करियर महज़ 33 की आयु में ख़त्म हो गया और उन्होंने खेल के सभी प्रारूपों से सन्यास ले लिया। यदि स्मिथ ने अपने इंडिविजुअल डिफरेंस/मनमुटाव से आपत्ति न की होती तो शायद इस दिग्गज का करियर और लंबा और सुनहरी होता और वे 2007 के दो विश्व कप का भी हिस्सा होते। क्लूजनर ने अपने करियर में कुल 49 टैस्ट और 171 एकदिवसीय मुकाबलों में क्रमश: 1906,3576 रन बनाए।साथ ही 80 और 192 विकेट भी चटके।अपने 8 साल लंबे कैरियर में उन्होंने ओडीआई में ताबड़तोड़ तेज़ गति से रन बनाए और अपने समय से कई आगे 90 के स्ट्राइक रेट से ओडीआई में बल्लेबाज़ी की। उनके जैसा खिलाड़ी दक्षिण अफ्रीका को फिर न मिल सका।

इसके अलावा वे 2016–18 तक जिम्बाब्वे टीम के कोच रहे।और 2019 में दक्षिण अफ्रीका के इंटरिम कोच भी रहे।और अफगानिस्तान के भी कोच रह चुके हैं।2022 मार्च में वे दोबारा जिम्बाब्वे के कोच बने।

भले ही वे इतने लाजवाब खिलाड़ी रहे,लेकिन इसके बावजूद उन्हें उनके कारनामों और फिनिशिंग की बजाए 1999,और 2003 विश्व कप में वो एक रन के लिए याद रखा जाता है।जो काफ़ी गलत है।उनकी योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता,ना ही नजरंदाज किया जाना चाहिए। 2014 में, क्लूजनर ने एक साक्षात्कार में कहा कि जो हुआ उसके लिए डोनाल्ड को दोष नहीं देना चाहिए। क्लूजनर ने कहा कि वह अधीर हो गए थे और, गेंदबाज के छोर तक पहुंचे, लेकिन वास्तव में कोई रन नहीं था। मैच के बाद, वह उन्हें काफ़ी दुःख हुआ और उस एक रन न बना पाने का उन्होंने खुद पर खेद व्यक्त किया। ये ज़ख्म आज भी उतना ही गहरा है।

श्रीलंका क्रिकेट की शुरुआत कैसे हुई : History Sri Lanka Cricket

 

तो दोस्तों ये थी कहानी दुनिया के सबसे खूंखार फिनिशर और गेम चेंजर लैंस क्लूजनर की जो अपने दम पर मैच पलट दिया करते।

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