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भारतीय सिनेमा का इतिहास : History Of Bollywood

भारतीय सिनेमा का इतिहास
भारतीय सिनेमा का इतिहास

दोस्तों भारतीय सिनेमा अपने 109 साल पुरे कर चुकी है और इस सफर के 106 वें साल में यह इंडस्ट्री 2.7 बिलियन यूएस डोलर का ग्रोस कर चुकी है, लेकिन क्या आपको पता है कि इन सबकी शुरुआत कैसे हुई थी।
अरबों रुपए का यह बाजार लाखों और करोड़ों रुपए तक कैसे पहुंचा था और कौन थे वो लोग जिन्होंने इस दुनिया की तरक्की के लिए शुरुआती दांव लगाए थे

Dadasaheb Phalke Bollywood
दादा साहेब फाल्के भारती सिनेमा के पितामह

भारत की सबसे पहली फिल्म ( Bollywood Frist Movie ) :- मई साल 1913 वो ऐतिहासिक दिन रहा जब बम्बई शहर में धुंडिराज गोविंद फाल्के यानि दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्मित भारतीय सिनेमा की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी, चालीस मिनट लंबी इस फिल्म में सभी भूमिकाएं पुरुषों द्वारा निभाई गई थी।
दादा साहेब फाल्के ने फिल्म में राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती का किरदार निभाने के लिए अन्ना सालुंके को 15 रुपए में साइन किया था।
लगभग सात महीने और 21 दिन की अथक मेहनत और 20000 से 25000 रुपए के खर्च पर बनी इस फिल्म को पहले बम्बई, लंदन और फिर पुणे सहित भारत और भारत के बाहर कई शहरों में प्रदर्शित किया गया था जहां इस फिल्म को लोगों का खूब प्यार नसीब हुआ था।
यहां से कारवां चल पड़ा, धीरे-धीरे फीचर फिल्म और शोर्ट फिल्मों की संख्या बढ़ने लगी और फिर आया साल 1917 दादा साहेब फाल्के की एक और फिल्म लंका दहन सिनेमाघरों में रिलीज हुई जिसमें अन्ना सालुंके ने हीरो और हीरोइन दोनों की भूमिकाएं निभाई थी।
इस फिल्म की रिलीज के बाद लोगों में सिनेमा को लेकर एक अजीब सा पागलपन देखने को मिला, कहा जाता है कि इस फिल्म को देखने आए लोगों के जरिए टिकिट खिड़की पर इतने ज्यादा सिक्के इकठ्ठा हो गए थे कि उन्हें प्रोड्यूसर तक पहुंचाने के लिए बैलगाड़ियां तैयार की गई थी।
लंका दहन को लोगों का बेइंतहा प्यार नसीब हुआ था इससे यह साबित हो गया था कि भारत में सिनेमा का भविष्य बहुत अच्छा है और इसे देखते हुए आगे आने वाली सभी फिल्मों के लिए भारत में डिस्ट्रीब्यूटर्स और प्रोड्यूसर आसानी से सिनेमा पर पैसे लगाने के लिए तैयार हो गए थे।
दादा साहेब फाल्के ने ना सिर्फ भारतीय सिनेमा की नींव रखी बल्कि अपनी 95 फिल्मों के जरिए उस नींव को मजबूत बनाने का काम भी बखूबी पुरा किया था जिस पर आज एक महल खड़ा हुआ है।

आर्देशिर ईरानी
आर्देशिर ईरानी

साल 1931 में आर्देशिर ईरानी ने भारतीय सिनेमा को आवाज देने का काम किया और पहली बोलती फिल्म आलम आरा का निर्माण किया।
ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज इस ऐतिहासिक दस्तावेज का कोई भी हिस्सा हमारे पास सुरक्षित नहीं है, लेकिन इस फिल्म को देखने गए लोगों और इतिहासकारों की मानें तो यह फिल्म बोम्बे के सिनेमाघरों में लगातार आठ सप्ताह तक प्रदर्शित हुई थी और इस फिल्म को लेकर लोगों में किस कदर उत्सुकता थी इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इसे देखने के लिए लोग उस समय चार आना से लेकर पांच रुपए तक खर्च करने के लिए भी तैयार थे, बात करें इस फिल्म के बजट की तो इस फिल्म का खर्च कुछ वेबसाइट्स के अनुसार 40000 रुपए था।
ईरानी ने अपने करियर में लगभग 158 फिल्मों का निर्माण किया था जिसमें साल 1937 में रीलिज हुई फिल्म किशन कन्हैया भी शामिल थी जो भारत में बनी पहली कलर फिल्म मानी जाती है, हालांकि बोक्स ओफीस पर इस फिल्म का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा था।

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भारतीय सिनेमा अपनी पराधीनता में धीरे धीरे ही सही लेकिन तरक्की कर रहा था, 40 के दशक से भारतीय फिल्मों की कमाई और खर्च का सुदृढ़ ब्यौरा इंटरनेट पर मिलता है जिसके अनुसार साल 1940 में आई फिल्म जिंदगी ने बोक्स ओफीस पर 55 लाख रुपए की कमाई की थी और यह आंकड़ा देखते ही देखते साल 1942 में 80 लाख तक पहुंच गया था यानि की आज के लगभग 296 करोड़ रुपए अमिया चक्रवर्ती की फिल्म बसंत ने कमाये थे।
अब बात करते हैं साल 1943 में आई फिल्म किस्मत की जो लगातार 187 सप्ताह तक कलकत्ता के रोक्सी सिनेमा हॉल में प्रदर्शित हुई और भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म बनी जिसने बोक्स ओफीस पर 1 करोड़ रुपए कमाए थे।
ये सोचकर कुछ अजीब सा लगता है कि भारत की पहली ब्लोकबस्टर फिल्म को बनाने में 2 लाख रुपए का खर्च ही आया था, इस फिल्म ने अशोक कुमार को अपने समय का सबसे सफल और सबसे महंगे अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया था।

दिलीप कुमार और नूर जहां की फिल्म जुगनू
दिलीप कुमार और नूर जहां की फिल्म जुगनू

इसके बाद साल 1947 में दिलीप कुमार और नूर जहां की फिल्म जुगनू रिलीज हुई जिसकी सफलता ने दिलीप कुमार को हिंदी सिनेमा में पैर जमाने के लिए अच्छी खासी ज़मीन तैयार कर दी थी।
50 के दशक में दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े उभरते अभिनेता थे, इसी समय के दौरान दिलीप कुमार एक फिल्म के लिए एक लाख रुपए चार्ज करने वाले पहले अभिनेता भी बन गए थे।
इसके बाद साल 1949 में बरसात, आवारा और श्री 420 जैसी फिल्मों की भारत और भारत के बाहर सोवियत यूनियन, टर्की और चाइना जैसे देशों में मिली बड़ी कामयाबी ने भारतीय सिनेमा में नरगिस को हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी अभिनेत्रियों में शुमार कर दिया था।

इन सबके बीच भारतीय सिनेमा में सत्यजीत राय का भी आगाज हो गया था जिनकी बंगाली फिल्म पाथेर पांचाली ने भारत को विश्व सिनेमा के नक्शे पर उभारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और इस उभार को दृढ़ करने का काम साल 1957 में आई महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया ने किया जो ओस्कर अवार्ड्स में नोमिनेट होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी और साथ ही भारत में लगभग तीन सालों तक सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई, बोक्स ओफीस से मिले आंकड़ों के अनुसार मदर इंडिया का नेट कलेक्शन 4 करोड़ और ग्रोस कलेक्शन आठ करोड़ रूपए था।
मदर इंडिया मुगल ए आजम से पहले भारतीय सिनेमा की सबसे सफल फिल्म थी जिसे देखने वाले लोगों की संख्या 100 मिलियन आंकी गई थी।

साल 1960 को भारत में सिनेमा के नजरिए से सबसे शानदार साल माना जाता है क्योंकि इसी साल 5 अगस्त के दिन मुगल ए आजम नाम से रिलीज हुई एक फिल्म ने भारत में फिल्म को बनाने, बेचने और देखने से जुड़ी हर बात को बदल कर रख दिया था, लगभग डेढ़ से दो करोड़ की लागत पर बनी इस फिल्म को देखने के लिए लोगों का जो जनसैलाब आज से 62 साल पहले मराठा मंदिर सिनेमाघर के सामने उमड़ा था उसकी दुसरी मिसाल मिलना मुश्किल है।
तीन से पांच सालों तक यह फिल्म मराठा मंदिर में प्रदर्शित हुई और लगभग 11 करोड़ रुपए का बिजनेस किया जो साल 1975 तक एक अटूट रिकॉर्ड बना रहा था।
60 का दशक भारतीय सिनेमा का वो समय भी था जब कलर फिल्मों का चलन आम होने लगा था साथ ही शम्मी कपूर की फिल्म सिंगापुर के साथ विदेशो में शूट होने वाली फिल्मों की संख्या भी बढ़ने लगी थी जिससे फिल्म के बजट पर भारी बढ़ोतरी देखने को मिलने लगी थी।
मनोज कुमार की पूर्ब और पश्चिम और देवानंद की गाइड जैसी बड़े बजट वाली फिल्मों के बीच राजश्री प्रोडक्शन ने बीस लाख के छोटे से बजट में दोस्ती जैसी खुबसूरत और सफल फिल्म बनाकर सबको चौंका दिया था लेकिन फिल्म बनने के बाद इसके प्रोड्यूसर्स ने फिल्म की पब्लिसिटी में भी लगभग 20 लाख रुपए खर्च किए थे क्योंकि इस फिल्म में कोई भी बड़ा अभिनेता नहीं था, बड़े बड़े होर्डिंग्स से लेकर अखबारों में एक पन्ने का एड देने का चलन इस फिल्म से बॉलीवुड में पैर पसारने लगा था, हालांकि अखबार में एक पन्ने का एड सबसे पहले एक साउथ फिल्म चन्द्रलेखा के लिए दिया गया था जो साल 1948 में आई थी।

साल 1964 में राजकपूर की फिल्म संगम दो मध्यांतर होने के बावजूद भी साल की सबसे सफल फिल्म साबित हुई और फिर अगले साल यश चोपड़ा की फिल्म वक्त की बड़ी सफलता ने हिंदी सिनेमा में मल्टीस्टारर फिल्मों की शुरुआत कर दी थी जिसका उत्कर्ष 70 के दशक में आने वाला था।
60 के दशक में दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर अपने ऊरुज पर थे तो वहीं मधुबाला, नूतन और नंदा जैसी अभिनेत्रियां भी एक फिल्म के लिए नब्बे हजार से दो लाख रुपए चार्ज करती थी।
साठ के दशक में फिल्म इंडस्ट्री में धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी जैसे कलाकार अपना वजूद ढुंढ रहे थे जिन्हें सत्तर के दशक में शानदार सफलता हासिल हुई।
साल 1969 में फिल्म आराधना के साथ ही राजेश खन्ना हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े अभिनेता बन गए और फिर जोनी मेरा नाम और सीता और गीता जैसी कुछ फिल्मों के जरिए हेमा मालिनी भी बोलीवुड की बड़ी अभिनेत्रियों की लिस्ट में शामिल हो गई थी।
ये वो समय भी था जब मनमोहन देसाई जैसे फिल्म निर्माताओं ने हिंदी सिनेमा में मल्टी स्टारर फिल्मों की संख्या में बड़ा इजाफा कर दिया था जिन्हें लोगों का बेशुमार प्यार नसीब हुआ था।
साल 1973 में बोबी साल की सबसे बड़ी फिल्म साबित हुई और फिर साल 1975 में आई शोले जो मुगल ए आजम के बाद हिन्दी सिनेमा की सबसे बड़ी फिल्म साबित हुई, फिल्म ने सौ सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली पुरी की और 286 सप्ताह तक प्रदर्शित होने वाली पहली फिल्म बनी, भारत में फिल्म की कमाई का रिकॉर्ड अगले 19 सालों तक कायम रहा था, वेबसाइट्स की मानें तो इस फिल्म का ग्रोस कलेक्शन 40 करोड़ के लगभग था।
राजेश खन्ना की फिल्म हाथी मेरे साथी से लोगों की नजरों में आई सलीम जावेद की जोड़ी ने शोले, जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के जरिए अमिताभ बच्चन को बोलीवुड का सबसे बड़ा सुपरस्टार बना दिया था और यही कारण रहा कि अमिताभ बच्चन दशक के अंत तक आते आते एक फिल्म के लिए एक करोड़ रुपए चार्ज करने वाले पहले अभिनेता बन गए थे और कहा जाता है कि 90 के दशक से पहले अमिताभ बच्चन इतनी फीस लेने वाले एकमात्र अभिनेता थे।
80 के दशक में भारतीय फिल्मों की कहानियों से लेकर संगीत तक हर हिस्से में बड़ा बदलाव देखने को मिला था जो बहुत से फिल्म विशेषज्ञों के अनुसार अच्छा बदलाव नहीं था क्योंकि इस बदलाव में भारतीयता से ज्यादा विदेशी ढंग की छाप अधिक दिखाई देती है।

पैरलेल सिनेमा ने अब तक भारत में अपनी जगह बना ली थी और अपनी अच्छी कहानियों और संगीत के चलते अस्सी के दशक में बहुत सी पैरेलल फिल्मों को भी लोगों ने खूब पसंद किया था।
लेकिन इन सबसे परे साल 1982 में डिस्को डांसर फिल्म रीलीज हुई जिसने सोवियत यूनियन में राजकपूर की फिल्मों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए शानदार बिजनेस किया था, विदेशों में धमाकेदार प्रदर्शन के चलते यह फिल्म सौ करोड़ का ग्रोस कलेक्शन करने वाली पहली भारतीय फिल्म बन गई थी।
साल 1988 में तेजाब के जरिए माधुरी दीक्षित और फिर अगले साल मैंने प्यार किया के जरिए सलमान खान के आगाज ने यह तय कर दिया था कि आने वाला दशक नई पीढ़ी के कलाकारों के नाम होने वाला है, यह वो समय भी था जब संगीत में भी कुछ बड़े नामों की जगह नये नामों ने ले ली थी यानि की सिनेमा की दुनिया अपने सबसे बड़े बदलाव से गुजर रही थी।
आमिर खान, सलमान खान और दीवाना के जरिए दशक के सबसे बड़े अभिनेता शाहरूख ने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रख दिया था, दुसरी तरफ संगीत की दुनिया में समीर और नदीम श्रवण की जोड़ी सुपरहिट एल्बम्स की झड़ी लगा रही थी।
इसी बीच साल 1994 में राजश्री की फिल्म हम आपके हैं कौन रीलीज हुई, पांच फिल्मफेयर अवॉर्ड्स और लगभग एक बिलियन रुपए का ग्रोस कलेक्शन यानि 200 करोड़ रुपए की कमाई ने यह साफ कर दिया था कि मार धाड़ और हिंसा के अलावा भी एक दुनिया है जिसे लोग पर्दे पर देखना पसंद करते हैं।
वेबसाइट्स की मानें तो इस फिल्म के लिए माधुरी दीक्षित को दो करोड़ रुपए दिए गए थे और यह फीस फिल्म के मुख्य अभिनेता सलमान खान से भी ज्यादा बताई जाती है।
फिल्म हम आपके हैं कौन का नशा लोगों के जेहन से उतरा भी नहीं था और अगले साल सदी की सबसे सफल हिंदी फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे सिनेमाघरों में रिलीज हुई, इस बार फिल्मफेयर अवॉर्ड्स की संख्या बढ़कर दस हो गई थी और एक नेशनल अवार्ड भी जुड़ गया था और बोक्स ओफीस की बात करे मुगल ए आजम के लिए मशहूर मराठा मंदिर में यह फिल्म 1000 सप्ताह से भी अधिक समय तक प्रदर्शित हुई थी।
इस फिल्म ने एक बिलियन रुपए के ग्रोस कलेक्शन को हासिल किया और कहा जाता है कि इस फिल्म ने भारतीय सिनेमा में जुबली सेलिब्रेशन को खत्म कर दिया था, बोक्स ओफीस बिजनेस अब फिल्मों की सफलता का सबसे बड़ा पैमाना बन गया था।
अगले पांच सालों में दिल तो पागल है, राजा हिन्दुस्तानी, कुछ कुछ होता है और हम साथ साथ हैं जैसी कुछ बड़ी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ने का काम किया और फिर नई सदी की शुरुआत के साथ ही भारत में मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों का दौर भी शुरू हो गया जिसने फिल्मों के बिजनेस पर बड़ा प्रभाव डाला, नये कलाकारों, नई कहानियों और नये अनुभवों ने इस दौर में भी लोगों को फिल्मों से जोड़े रखा।
शुरुआत मोहब्बतें से हूई जिसके बाद कभी खुशी कभी ग़म, देवदास और वीर जारा जैसी खुबसूरत फिल्में आईं और फिर ओम शांति ओम के जरिए हिंदी सिनेमा ने लोगों को एक अलग तरह की कहानी से मनोरंजित किया जिसमें दीपिका पादुकोण ने अपना डेब्यू किया था।
और फिर साल 2008 में फिल्म गजनी रीलीज हुई जो भारत में सौ करोड़ रुपए कमाने वाली पहली फिल्म बनी जिसके बाद थ्री इडियटस ने यह रिकॉर्ड तोड़ा और 200 करोड़ रुपए कमाए, और यह सिलसिला धूम थ्री, पीके, एक था टाइगर और बजरंगी भाईजान के जरिए जारी रहा।
साल 2016 में नीतिश तिवारी के निर्देशन में दंगल फिल्म रीलीज हुई जिसने भारत में 500 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार किया और दुनियाभर में 2024 करोड़ रुपए की अप्रत्याशित कमाई कर एक नया रिकॉर्ड स्थापित कर दिया था।
अगले साल राजामौली की फिल्म बाहुबली का दुसरा भाग सिनेमाघरों में रिलीज हुआ और इस फिल्म ने हाशिए पर खड़ी साउथ फिल्म इंडस्ट्री को मुख्य धारा में लाकर खड़ा कर दिया, फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड्स की नई बुलंदियों को हासिल किया, अगले साल साउथ सिनेमा एक और बड़े निर्देशक एस शंकर ने अपनी फिल्म रोबोट 2.0 से इस बात को और अधिक मजबूती प्रदान की और फिर देखते ही देखते पुष्पा, केजीएफ और आरआरआर ने बोलीवुड को बोक्स ओफीस पर हर मामले में सबसे पीछे खड़ा कर दिया।
आज भारतीय सिनेमा में सौ करोड़ से लेकर एक हजार करोड़ रुपए का बिजनेस कोई बड़ी बात नहीं है, अक्षय कुमार जैसे अभिनेता सौ करोड़ रुपए से ज्यादा फीस एक फिल्म के लिए चार्ज करते हैं तो वहीं कार्तिक आर्यन जैसे नये लोग भी हर दुसरी फिल्म के बाद अपनी मांग बढ़ा लेते हैं, शाहरुख खान को आज दुनिया के दूसरे सबसे अमीर अभिनेताओं में गिना जाता है तो दुसरी तरफ अभिनेत्रियों से लेकर संगीतकार और गीतकार भी आज पैसों के मामले कहीं भी कम नहीं है, लेकिन इन अरबों खरबों के व्यापार के बीच हमें ये याद रखना चाहिए कि इन सबकी शुरुआत बीस पच्चीस हजार रुपए की लागत से हुई थी जो फाल्के साहब ने अपनी अधिकतर सम्पत्ति गिरवी रखकर तैयार किए थे,

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