“सब्र (धैर्य) रखो!” मुश्किल में फँसे शख़्स (इंसान) से ये कहना बहुत आसान होता है। लेकिन, जब चारो तरफ़ से सिर्फ़ निराशा ने घेर रखा हो, तो ऐसी स्थिति में सब्र (धैर्य) का दामन थामे रख पाना भी बहुत मुश्किल है। मगर, कुछ खिलाड़ी ऐसे भी हैं जिनके नसीब में बस सब्र और इंतज़ार लिखा होता है।
हालाँकि, नसीब से दगा मिलने के बावजूद भी मौका पड़ने पर इन खिलाड़ियों ने जमकर तारीफ़ें लूटीं। एक ऐसे ही खिलाड़ी की ज़िंदगी समेटे हुए है नारद टी.वी. के दर्शकों की पसंदीदा श्रृंखला ‘अनसंग हीरोज़ ऑफ़ इंडियन क्रिकेट‘ का ये ख़ास एपिसोड।
वो खिलाड़ी जिसके क्रिकेट प्रेम ने उसे घर छोड़ने पर मजबूर किया। वो खिलाड़ी जिसके जज़्बे और स्पिन के दम पर भारत ने कई मैच जीते। वो खिलाड़ी जिसे हम और आप प्रज्ञान ओझा के नाम से पहचानते हैं।
प्रज्ञान ओझा का शुरुआती जीवन-
दोस्तों! 5 सितम्बर 1986 के दिन उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में जन्मे प्रज्ञान ओझा को बचपन से ही पढ़ाई में अपना कैरियर बनाने के लिये प्रेरित किया गया। क्योंकि, प्रज्ञान के पिता महेश्वर ओझा स्टेट गवर्नमेंट अफ़सर थे और माँ बिदुलता ओझा साहित्य में एम.ए. कर चुकी थी। लेकिन, प्रज्ञान का दिल कभी पढ़ाई में लगा ही नहीं। उन्होंने चंद्रशेखरपुर में अपने स्कूल डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल की ओर से सिर्फ़ 10 साल की उम्र में क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया।
प्रज्ञान अपने सपनों को पूरा करने के लिये घर से दूर हैदराबाद आ-गये-
इस दौरान ही एक समर कैम्प में कोच सासंग एस. दास ने प्रज्ञान की बोलिंग टेक्नीक पर शुरुआती काम किया। फिर, क़रीब 3 साल बाद 13 साल के प्रज्ञान अपने सपनों को पूरा करने के लिये घर से दूर हैदराबाद आ-गये। हैदराबाद में ओझा को बेहतर शिक्षा के साथ, क्रिकेट के लिये अच्छा माहौल भी मिला। वहीं पहली बार पूर्व रणजी क्रिकेटर और कोच विजय पॉल की निगाह प्रज्ञान ओझा पर पड़ी।
कोच विजय पॉल ही वो पहले शख़्स थे, जिन्होंने प्रज्ञान के अंदर छुपे रुस्तम को पहचाना और ओझा की प्रतिभा को निखारने का काम किया। जिसका नतीजा ये रहा कि बायें हाथ के प्रज्ञान की स्पिन के चर्चे हैदराबाद क्रिकेट गलियारों में होने लगे और अंडर-19 क्रिकेट के शानदार ट्रैक रिकॉर्ड के दम पर ओझा को 18 साल की उम्र में ही हैदराबाद रणजी टीम में शामिल कर लिया गया। जहाँ ओझा को महान भारतीय स्पिनर वेंकटपति राजू ने गाइड किया।
रोल मॉडल वेंकटपति राजू-
दोस्तों! यहाँ एक बात हम आपको बताते चलें कि ओझा बचपन से ही वेंकटपति राजू जैसा बनना चाहते थे। ओझा की मानें तो उन्होंने बायें हाथ से गेंदबाज़ी भी राजू को देखकर ही शुरू की थी। ऐसे में कम उम्र में अपने रोल मॉडल से क्रिकेट के गुर सीखना ओझा के खुशनसीब होने की निशानी था। इस खुशनसीबी में प्रज्ञान की मेहनत और लगने ने चार चाँद लगा दिये।
इंडिया-‘ए’ टीम
जिसका नतीजा ये रहा कि प्रज्ञान को 2004-05 रणजी सत्र में रेलवे के विरुद्ध डेब्यू करने का मौका मिला। अपने पहले ही रणजी सत्र में ओझा ने फाइव विकेट हॉल लेकर सनसनी मचा दी। इसके बाद 2006-07 रणजी सत्र में तो सिर्फ़ 21 साल के ओझा ने कमाल की मैच्युरिटी दिखाई और सिर्फ़ 6 रणजी मैचों में 19.88 की शानदार औसत से 29 विकेट हासिल किये। इसके बाद ओझा के नेट्स पर घंटों बहाये गये पसीने का इनाम उन्हें इंडिया-‘ए’ टीम का हिस्सा बनकर मिला।
इस दौरान ओझा ने 2007 नवम्बर में हाशिम अमला, बोयेटा डिपेनर और अश्वेल प्रिंस जैसे सितारों से सजी साउथ अफ़्रीका-‘ए’ के विरुद्ध 8 विकेट लेकर सनसनी मचा दी। ये प्रदर्शन इस बात का सबूत था कि प्रज्ञान ओझा 2007 में ही उड़ान भर चुके थे। अब इंतज़ार था तो बस खुले आसमान का।
प्रज्ञान की मेहनत और प्रदर्शन को देखते हुए सबको लग रहा था कि, साल 2007 के अंत में पाकिस्तान या ऑस्ट्रेलिया के विरुध्द ओझा को इंटरनेशनल डेब्यू करने का मौका मिलेगा। लेकिन, क़ुदरत ने ओझा को इंटरनेशनल स्तर पर उतारने से पहले आईपीएल नाम की भट्टी में तपाने का मन बना लिया था।
इस तरह 2008 आईपीएल में हैदराबाद के लिये खेलते हुए ओझा ने 13 मैचों में 11 विकेट लेकर इंटरनेशनल स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। फिर क्या था! चयनकर्ताओं ने ओझा को भरतीय टीम में शामिल करने में देर नहीं की और एशिया कप में बांग्लादेश के विरुद्ध वनडे मैच से प्रज्ञान ने इंटरनेशनल डेब्यू किया।
अपने डेब्यू मैच में ही प्रज्ञान ने 43 देकर 2 विकेट हासिल किये और ख़ुद की अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का प्रेशर हैंडल करने की काबिलियत को दुनिया से रूबरू करवाया। इसके बाद प्रज्ञान लगातार भारतीय टीम की लिमिटेड ओवर स्क्वाड का हिस्सा रहे। फिर, साल 2009 विश्व कप में ओझा को टी-ट्वेंटी डेब्यू करने का मौका मिला।
जहाँ बांग्लादेश के विरुद्ध पहले मैच में ही 4 विकेट लेकर प्रज्ञान ओझा ने ‘मैन ऑफ़ द मैच’ अवॉर्ड जीता। ओझा का ये प्रदर्शन आज तक किसी भारतीय द्वारा टी-ट्वेंटी डेब्यू में किया गया बेस्ट स्पैल है। उस मैच के बाद प्रज्ञान की जगह टीम में पक्की लग रही थी।
रविन्द्र जडेजा
मगर, इस दौरान डेब्यू हुआ रविन्द्र जडेजा का और भारत को ऐसे ही बायें हाथ के खिलाड़ी की तलाश थी जो टाइट गेंदबाज़ी के साथ वक़्त पड़ने पर रन भी बना सके। इसलिये, प्रज्ञान का वाइट बॉल क्रिकेट से पत्ता जल्दी कट गया। लेकिन, कुदरत का दस्तूर भी निराला है। वो एक हाथ लेता है तो दूसरे हाथ देता भी है और ऐसा ही कुछ हुआ प्रज्ञान ओझा के साथ।
साल 2009 में श्रीलंका के भारत दौरे पर कानपुर टेस्ट में चोटिल अमित मिश्रा की जगह प्रज्ञान को टीम में शामिल किया गया। ओझा ने अपने पहले दो टेस्ट मैचों में लगभग 28 की ठीक-ठाक औसत से 9 विकेट लिये। जिसके बाद ओझा को कप्तान धोनी का साथ मिला और फिर ओझा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। एशियाई पिचों पर ओझा की स्पिन का जादू मैच-दर-मैच बल्लेबाज़ों के सिर चढ़ कर बोलने लगा।
लाइन लेंथ पर तो ओझा का कमाल का नियंत्रण-
दोस्तों! क़रीब 6 फ़ूट लंबे प्रज्ञान ओझा अपनी हाइट के चलते बायें हाथ के अन्य ऑर्थोडॉक्स गेंदबाज़ों से काफ़ी अलग थे। क्योंकि, ओझा को हाइट की वजह से जो बाउंस मिलता था। वो उनकी फ़्लाइट कराने की काबिलयत के साथ मिलकर एक धारदार हथियार बन जाता था। जबकि, लाइन लेंथ पर तो ओझा का नियंत्रण कमाल का था ही।
यही वजह रही कि साल 2013 तक ओझा ऐशिया में हुए क़रीब हर टेस्ट मैच का हिस्सा थे। अपने कैरियर के इस सुनहरे दौर में ओझा ने आईपीएल 2010 में पर्पल कैप जीता, लक्ष्मण के साथ मिलकर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध मोहाली में ऐतिहासिक टेस्ट जितवाया, 3 बार आईपीएल ट्रॉफी जीतने वाली टीम का हिस्सा रहे और अहमदाबाद में इंग्लैंड के विरुद्ध 9 विकेट लेने जैसे कई यादगार प्रदर्शन किये।
लेकिन, ओझा के कैरियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन आया 2013 के नवम्बर महीने की 16 तारीख़ को सचिन तेंदुलकर के आख़िरी टेस्ट में। जब ओझा ने वेस्टइंडीज़ के विरुद्ध टेस्ट मैच में 10 विकेट हासिल करने का कारनामा किया।
मगर, इसके बाद मानो जैसे ओझा को किसी की नज़र लग गयी हो। अपने आख़िरी टेस्ट में 10 विकेट लेकर ‘मैन ऑफ़ द मैच‘ बनने के बावजूद ओझा को फिर कभी टेस्ट खेलने का मौका नहीं मिला। हालाँकि, इसमें ओझा की ख़राब फ़ॉर्म से ज़्यादा बड़ा योगदान उनकी ख़राब किस्मत का था। क्योंकि, 2014 में ओझा को इल्लीगल एक्शन की शिकायत के बाद बैन कर दिया गया।
हालाँकि, ओझा ने अपने ऐक्शन में सुधार किया और साल 2015 से घरेलू क्रिकेट में वापसी की। लेकिन, पूरा 2015 आईपीएल सीज़न ओझा को बैंच पर गुज़ारना पड़ा। अब ओझा के लिये रणजी टीम में वापसी भी मुश्किल लग रही थी।
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जब सौरव गाँगुली ने सख़्ती से मना कर दिया-
उस दौरान ओझा का मनोबल टूट चुका था। कि तभी गाँगुली ने ओझा को बंगाल रणजी टीम से खेलने के लिये कहा। इसके बाद अगले 2 रणजी सत्र ओझा ने बंगाल के लिये खेले। मगर, जब अगले सत्र के लिये ओझा ने हैदराबाद रणजी टीम की ओर से दोबारा खेलने का निर्णय लिया। तो, सौरव गाँगुली ने सख़्ती से मना कर दिया और ओझा को बंगाल के लिये सेवायें देने को कहा।
प्रज्ञान ओझा का क्रिकेट के सभी प्रारूपों से संन्यास-
इस विवाद के बाद ओझा के प्रदर्शन में भी गिरावट आई और एक दिन सब्र का दामन थामे कई सालों से मेहनत कर रहे ओझा ने सिर्फ़ 34 साल की उम्र में क्रिकेट के सभी प्रारूपों से संन्यास ले लिया।
संन्यास के वक़्त आँकड़े ओझा के नाम सिर्फ़ 24 टेस्ट मैचों 113 विकेट और 108 फर्स्ट क्लास मैचों में 424 विकेट दिखा रहे थे। कम मैचों के बावजूद ओझा के विकेटों की ये संख्या बताती है, कि अगर प्रज्ञान ओझा को बेहतर मौके मिले होते तो आज दुनिया ओझा को भारतीय क्रिकेट के अंसंग हीरो नहीं बल्कि ग्रेट प्लेयर के रूप में जानती। लेकिन, ओझा ने कभी भी अपने नज़रंदाज़ किये जाने और सौरव गाँगुली के साथ हुए विवाद पर कोई सवाल खड़े नहीं किये। ओझा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि “मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मेरी क़िस्मत में इतनी ही क्रिकेट थी।”
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