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History Of Indian Wicket Keepers क्यों मांगनी पड़ी भीख

Who Is The First Wicket-Keeper Of India
भारतीय विकेटकीपर्स का इतिहास

 Wicket Keepers : भारतीय क्रिकेट इतिहास एक ऐसी भरी पुरी विरासत का नाम है जिसका हर हिस्सा और हर कोना एक ऐसी चमक लिये हुए है जो समय के साथ और भी चमकदार होती रही है।
चाहे बात कप्तानों की हो या फिर बल्लेबाजों की, हमारा देश हर दौर में विश्व क्रिकेट को रौशन करने वाले खिलाड़ियों की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त करता रहा है।
हमारी सीरीज द हिस्ट्री ऑफ इंडियन क्रिकेट में हम इसी गौरवशाली विरासत को आपके सामने रखने का काम करते हैं और इस सीरीज को मिले आपके प्यार को देखते हुए आज हम आपको भारतीय टेस्ट क्रिकेट इतिहास के शानदार विकेटकीपरों के बारे में बताने वाले है।

India First Wicket-Keeper
Janardan Navle (जनार्दन नावले)

भारत के सबसे पहले विकेटकीपर (indian First Wicket-Keeper) 

भारतीय क्रिकेट इतिहास के सबसे पहले विकेटकीपर का नाम जनार्दन नवले था जिनका जन्म साल 1902 में महाराष्ट्र के एक किसान और कपड़ा व्यापारी के घर हुआ था।
साल 1928 में जब बीसीसीआई का गठन हुआ तब तक नवले हिन्दूज की तरफ से खेलते हुए एक ओपनिंग बल्लेबाज और विकेटकीपर के तौर पर इतना सबकुछ कर चुके थे कि उन्हें भारत के पहले अंतरराष्ट्रीय टेस्ट मैच के लिए नजरअंदाज करना नामुमकिन हो गया था।
16 साल की उम्र में अपने करियर की शुरुआत करने वाले इस नवयुवक ने क्रिकेट का ककहरा सीख रहे हमारे देश भारत को मंत्रमुग्ध कर दिया था और यही वजह रही कि जब साल 1932 में भारतीय टीम इंग्लैंड के लिए रवाना हुई तो उस टीम में तीस साल के नवले को भी शामिल किया गया था।
अपने पहले टेस्ट मैच में भारत को पहले फिल्डिंग करने उतरना पड़ा जहां मैच के पहले आधे घंटे में ही नवले ने अपनी उपयोगिता साबित करते हुए फ्रेंक वुली को रनआउट कर सबको चौका दिया था।
इंग्लैंड पहली पारी में सिर्फ 259 रन ही बना पाया और अब भारत को बल्लेबाजी के लिए उतरना था और यहां भी भारतीय क्रिकेट इतिहास के पहले ओपनिंग बल्लेबाज के तौर पर नवले ने पहली गेंद का सामना किया हलांकि वो ज्यादा बड़ा स्कोर नहीं बना पाए और सिर्फ 12 रन बनाकर आउट हो गए थे लेकिन जाते जाते भी नवले ने एक रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया था, नवले भारतीय क्रिकेट इतिहास में आउट होने के मामले में भी सबसे पहले बल्लेबाज बन गए थे।
भारत की दुसरी पारी में भी नवले सलामी बल्लेबाज के तौर पर उतरे और 13 रन बनाकर आउट हो गए थे।
इसके बाद नवले को सिर्फ एक बार और भारतीय टीम की तरफ से खेलने का मौका मिला जिसके बाद उन्हें अपनी बढ़ती उम्र के चलते भारतीय टीम से अपनी जगह को छोड़ना पड़ा, पहले टेस्ट मैच की पहली पारी में डगलस जार्डिन को सीके नायडू की गेंद पर कैच आउट करना अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में नवले की एक मात्र सफलता थी।
नवले ने अपना आखिरी क्रिकेट मैच 1943 में रणजी ट्रॉफी सीजन के दौरान खेला जिसके बाद इस खिलाड़ी का जीवन काफी ग़रीबी और तंगहाली में गुजरा था, कहा जाता है कि नवले ने क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद एक सुगर मील में सिक्योरिटी गार्ड के तौर पर कई साल काम किया था, कुछ वेबसाइट्स का तो यह भी मानना है कि नवले को अपने आखिरी दिनों में भीख मांगते हुए भी देखा गया था।

 खैर साल 1933 में नवले के भारतीय टीम से बाहर हो जाने के बाद भारत को अपना दुसरा विकेटकीपर बल्लेबाज दिलावर हुसैन के रुप में मिला जिन्होंने अपने पहले ही मैच में अर्धशतकीय पारी खेलकर टीम में अपनी जगह को सुदृढ़ बना दिया था।
भारतीय टीम ने साल 1936 में एक बार फिर इंग्लैंड का दौरा किया जहां दिलावर हुसैन को दो अन्य विकेटकीपर्स के साथ टीम में शामिल किया गया था और उन बाकि दो विकेटकीपर्स में से एक का नाम दत्ताराम हिंडेलकर था जो नवले और हुसैन के बाद भारतीय क्रिकेट इतिहास के तीसरे विकेटकीपर बने।
भारतीय टीम को अपना अगला टेस्ट मैच खेलने के लिए 10 साल का इंतजार करना पड़ा और साल 1946 में जब भारतीय टीम मैदान पर उतरी तो रत्नागिरि के एक किसान के बेटे हिंडेल्कर ने सीरीज के सभी मैचों में भारत की तरफ से विकेटकीपिंग की जिम्मेदारी को निभाया।
साल 1947 में भारत आजाद हुआ और यहां आते आते भारतीय क्रिकेट टीम कुल दस टेस्ट मैच खेल चुकी थी जिनमें चार खिलाड़ियों ने भारत के लिए विकेटकीपिंग की बागडोर संभाली थी, भारत के चौथे विकेटकीपर का नाम के आर मेहरुमजी था जिन्होंने भारतीय टीम के लिए सिर्फ एक टेस्ट मैच ही खेला था।
भारतीय टेस्ट क्रिकेट इतिहास में अब तक चार विकेटकीपर्स ने अपना नाम दर्ज करवा लिया था लेकिन उनमें से दिलावर हुसैन के अलावा कोई भी खिलाड़ी 3 से ज्यादा शिकार नहीं कर पाया था, दिलावर हुसैन ने अपने तीन मैचों के करियर में सात डिसमिसल अपने नाम किए थे।
15 अगस्त साल 1947 को भारत आजाद हुआ और लाला अमरनाथ की कप्तानी में आजाद भारत के पहले विकेटकीपर जेनी ईरानी बने जो बल्लेबाजी क्रम में नम्बर ग्यारह के बल्लेबाज हुआ करते थे।
जेनी ईरानी को आस्ट्रेलिया के खिलाफ अपना पहला टेस्ट मैच खेलने का मौका मिला और ईरानी अपने डेब्यू टेस्ट में डक पर आउट होने वाले पहले भारतीय विकेटकीपर बल्लेबाज बन गए थे।
विकेटकीपिंग और बल्लेबाजी दोनों तरफ असफल रहे ईरानी को दो टेस्ट मैचों के बाद टीम से बाहर कर दिया गया और उनकी जगह टीम में प्रोबिर सेन को शामिल किया गया जो भारत की तरफ से टेस्ट क्रिकेट खेलने वाले पहले बंगाली खिलाड़ी थे।
1 जनवरी साल 1948 को अपना टेस्ट डेब्यू करने वाले प्रोबिर सेन अगले चार सालों तक भारतीय टीम का अभिन्न हिस्सा बने रहे और इसी बीच इन्होंने चौदह मैचों में भारतीय टीम की तरफ से विकेटकीपिंग का भार सम्भाला था, यह आंकड़ा सेन से पहले भारतीय क्रिकेट टीम की तरफ से खेल चुके सभी पांच खिलाड़ियों के कुल मैचों से भी ज्यादा था।
सेन ने अपने टेस्ट करियर में कुल 20 कैच और ग्यारह स्टम्प आउट अपने नाम किए थे, इसके अलावा सेन विश्व क्रिकेट के एकमात्र ऐसे विकेट कीपर रहे जिन्होंने डोन ब्रैडमैन को स्टम्प आउट करने का गौरव प्राप्त किया था।
पाकिस्तान के खिलाफ साल 1952 में हुई सीरीज के बाद सेन को अपना स्थान टीम से गंवाना पड़ा और उनका‌ स्थान भरने के लिए अगले कई सालों तक अलग अलग खिलाड़ियों को टीम में शामिल किया गया।
पचास के दशक में सेन के बाद विकेटकीपर का स्थान पाने के लिए कई खिलाड़ियों में खींचतान चल रही थी, नाना जोशी को भारतीय टेस्ट क्रिकेट इतिहास का सातवां विकेटकीपर माना जाता है जिन्होंने साल 1951 से 1960 तक भारत के लिए कुल बारह टेस्ट मैच खेले थे जिनमें जोशी ने 27 डिसमिसल अपने नाम किए थे।
साल 1960- 61 में पाकिस्तान के खिलाफ खेला गया मैच नाना जोशी के करियर का आखिरी मैच साबित हुआ जिसमें इन्होंने रमाकांत देसाई के साथ नौवें विकेट के लिए 149 रनों की साझेदारी निभाई थी लेकिन इसके बावजूद भी मैच के पहले दिन हनीफ मोहम्मद को 12 के स्कोर पर जीवनदान देने की कीमत नाना जोशी को चुकानी पड़ी, हनीफ मोहम्मद ने उस पारी में 160 रन बनाए और उनकी इस पारी ने नाना जोशी के लिए भारतीय टीम के दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर दिए थे।
पचास के दशक के दौरान भारतीय क्रिकेट में विकेटकीपर के तौर पर अपना स्थान बनाने वाले खिलाड़ियों में माधव मंत्री का नाम भी आता है जो महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर के मामा थे, माधव मंत्री ने भारत के लिए तीन टेस्ट मैच खेले जिनमें इनके नाम कुल सात शिकार रहे।
माधव मंत्री और नाना जोशी के अलावा चंद्रकांत पाटनकर और इब्राहिम मका जैसे खिलाड़ियों ने भी टीम में विकेटकीपर के तौर पर अपनी किस्मत आजमाई लेकिन कोई भी नरेन तम्हाने के स्किल, स्टाइल और स्फूर्ति को टक्कर नहीं दे पाया, नरेन तम्हाने ने साल 1955 में अपना टेस्ट डेब्यू किया और अगले छः सालों तक भारतीय टीम का हिस्सा बने रहे और इस दौरान उन्होंने विकेट के पीछे 35 कैच लपके और 16 स्टम्प आउट किये, इस तरह तम्हाने विकेट के पीछे 50 या उससे अधिक शिकार करने वाले पहले भारतीय विकेटकीपर बल्लेबाज बन गए थे।
नरेन तम्हाने के खेल में जो एक बात देखने वाली हुआ करती थी वो ये थी कि तम्हाने ने कभी भी उछल कूद और डाइव वगैरह पर भरोसा नहीं किया था इसके अलावा स्टम्प करते समय तम्हाने सिर्फ एक गिल्ली को ही उड़ाते थे और उनकी यह बात आगे चलकर उनकी पहचान बन गई थी।
60 के दशक में भी विकेटकीपर के स्पोट ‌को लेकर खींचतान का सिलसिला जारी रहा लेकिन इस बार मुकाबला सिर्फ दो विकेटकीपर्स के बीच में ही था जिसमें से पहले खिलाड़ी का नाम बुद्धि कुन्दरन था तो वहीं दूसरे खिलाड़ी फारुख इंजीनियर थे।
बुद्धि कुन्दर्न को भारतीय क्रिकेट इतिहास का चौदहवां विकेटकीपर माना जाता है जो असल‌ में लाला अमरनाथ की खोज थे, लाला अमरनाथ की वजह से बुद्धि कुन्दरन को बिना डोमेस्टिक मैच खेले सीधे भारतीय टीम में जगह मिल गई थी लेकिन जब यह खिलाड़ी अपना पहला टेस्ट मैच खेलने वाला था तब इनके पास अपने ग्लव्स और बैट नहीं थे, ऐसे में तम्हाने ने कुन्दरन को अपना कीटबैग दे दिया था।
साल 1963- 64 में इंग्लैंड के खिलाफ बुद्धि के बल्ले से निकली 192 रनों की पारी अगले पचास सालों तक किसी भी भारतीय विकेटकीपर बल्लेबाज द्वारा खेली गईं सबसे बड़ी पारी बनी रही और यह रिकॉर्ड आगे चलकर महेन्द्र सिंह धोनी ने 224 रन बनाकर अपने नाम किया था।
बुद्धि कुन्दरन ने अपने टेस्ट करियर में कुल 28 शिकार विकेट के पीछे बटोरे थे‌।
साल 1961 में भारतीय टीम में फारुख इंजीनियर की एंट्री हुई और 1967 तक कुन्दरन और इंजीनियर के बीच टीम में शामिल होने की जंग चलती रही और इस दौरान सिर्फ एक ही मौका ऐसा आया था जब ये दोनों खिलाड़ी एक साथ भारत के लिए खेलने उतरे थे।
फारुख इंजीनियर ने कुन्दरन की आक्रामक विकेटकीपिंग की शैली को भारतीय क्रिकेट में न सिर्फ बनाये रखा बल्कि उसे एक कदम आगे भी लेकर गये और अपने चौदह सालों के करियर में कुल 82 शिकार अपने नाम किए थे।
भारतीय क्रिकेट इतिहास के आखिरी पारसी क्रिकेटर रहे फारुख इंजीनियर साल 1974 में भारत की तरफ से वनडे क्रिकेट में पहली बार विकेटकीपिंग करने वाले खिलाड़ी भी बन गए थे।
साल 1975 में फारुख इंजीनियर के संन्यास लेने के बाद भारतीय क्रिकेट को जो अगला बड़ा विकेटकीपर मिला उनका नाम सईद किरमानी था जिन्होंने 1971 और 1974 के इंग्लैंड दौरों पर फारुख इंजीनियर के डेप्युटी विकेटकीपर की भूमिका निभाई थी।
साल 1983 में किरमानी को कुछ ऐसा अनुभव करने का मौका मिला जो उनसे पहले किसी भी भारतीय विकेटकीपर को हासिल नहीं हुआ था, किरमानी विश्व चैंपियन भारतीय टीम के सदस्य थे और साथ ही उन्हें वर्ल्डकप में अपने बेहतरीन प्रदर्शन की बदौलत विश्व के महानतम विकेटकीपर गोडफ्रे इवान्स के हाथों से टुर्नामेंट के सबसे बढ़िया विकेटकीपर का अवार्ड भी दिया गया था।
किरमानी ने दस सालों तक भारतीय क्रिकेट की सेवा की और 88 टेस्ट मैच खेले जिनमें इनके डिसमिसल का आंकड़ा 198 रहा था।
किरमानी के क्रिकेट करियर के दौरान भारत रेड्डी और सदानंद विश्वनाथ जैसे खिलाड़ियों ने भी कुछ मैचों में भारतीय टीम के लिए विकेटकीपिंग की जिसके बाद 80’s के मध्य में भारत को अपना 21 वां टेस्ट विकेटकीपर कीरन मोरे के रुप में मिला।
मोरे ने अपने सात सालों के टेस्ट करियर में 49 मैच खेले और विकेट के पीछे 130 शिकार अपने नाम किए।
साल 1993 में मोरे के संन्यास के पहले दो अन्य विकेटकीपर्स अपनी किस्मत आजमा चुके थे लेकिन वो कहते है ना कि राजा केवल एक ही हो सकता है भारतीय क्रिकेट इतिहास में विकेटकीपर्स के मामले में ये बात हर दौर में सच साबित हुई जहां किसी एक बड़े खिलाड़ी की छांव में दो तीन खिलाड़ियों का करियर बिल्कुल शांत तरीके से खत्म हो गया और वो खिलाड़ी छांव में साये की तरह कहीं खो गये।
मोरे के बाद नयन मोंगिया वो खिलाड़ी रहे जिन्हें याद करने लायक करियर मिल पाया लेकिन मैच फिक्सिंग के साये ने इस खिलाड़ी के करियर को समय से पहले ही खत्म कर दिया था।
मोंगिया ने अपने करियर के दौरान 44 टेस्ट मैच खेले और कुल 107 शिकार अपने नाम किए थे।
नयन मोंगिया के करियर के आखिरी सालों में और उसके बाद एक लम्बे अरसे तक भारतीय क्रिकेट ने एक अच्छे विकेटकीपर की तलाश में कई विकल्प आजमाये और यही कारण रहा कि साल 1999 से 2004 तक नयन मोंगिया के अलावा आठ ऐसे क्रिकेटर सामने आये जिन्होंने इस खोज को खत्म करने का प्रयास किया लेकिन कोई भी सफल नहीं हो पाया।
मोंगिया के बाद भारत की टेस्ट टीम के लिए विकेटकीपिंग करने वाले खिलाड़ियों में एमएसके प्रसाद, दीपदास गुप्ता, अजय रात्रा, सबा करीम, विजय दहिया और समीर धीगे जैसे नाम शामिल रहे लेकिन मौकों की कमी और टीम में चल रही अस्थिरता के चलते इनमें से कोई भी खिलाड़ी अपने करियर को बड़ा नहीं बना पाया।
साल 2002 में भारतीय टीम में सत्रह साल के पार्थिव पटेल शामिल हुए लेकिन कुछ शुरुआती मौकों के बाद यह खिलाड़ी भी टेस्ट क्रिकेट में वो जादू जारी नहीं रख पाया जिसके चलते इन्हें अपने 16 साल के करियर के दौरान सिर्फ 25 मैचों में ही टीम का हिस्सा बनने का मौका मिल पाया था।
पार्थिव पटेल के बाद दिनेश कार्तिक को भी विकेटकीपर के तौर पर टीम में शामिल किया गया लेकिन पार्थिव पटेल की ही तरह दिनेश कार्तिक की भी सबसे बड़ी बदनसीबी यह रही कि उन्होंने एक ऐसे दौर में अपना करियर शुरू किया था जिसमें भारत को अपना सर्वकालिक महान विकेटकीपर बल्लेबाज मिलने वाला था, एक ऐसा खिलाड़ी जिसके आगे विश्व क्रिकेट का हर नाम गौण नजर आता है, जी हां हम महेंद्र सिंह धोनी की बात कर रहे हैं जो भारत की टेस्ट टीम में 33 वें विकेटकीपर बल्लेबाज के रूप में आये और फिर अगले कई सालों तक अपने स्थान पर टिके रहे।
साल 2014 तक धोनी ने कुल 90 टेस्ट मैच खेले और भारतीय टेस्ट क्रिकेट इतिहास में सबसे ज्यादा 294 शिकार बटोरे।
धोनी के संन्यास लेने के बाद एक बार फिर भारत की टेस्ट टीम में विकेटकीपर के स्पोट के लिए खींचतान शुरू हुई जिसके दो मुख्य किरदार ऋद्धिमान साहा और ऋषभ पंत है जो लगातार अपने बड़ियां प्रदर्शन से उस जगह को भरने का प्रयास कर रहे हैं जो धोनी उनके लिए छोड़ गये थे।

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