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मजरूह सुल्तानपुरी वो गीतकार जिसे नेहरू ने दो साल तक जेल में बंद रखा था।

मजरूह सुल्तानपुरी एक ऐसा शायर जिसने कई हजार फिल्मी गाने भी लिखे। लेकिन, वो अपने गानों को नौटंकी कहता था। सियासत के साथ 36 के आंकड़े ने उन्हें जेल भी पहुंचाया। लेकिन, मार्क्स और लेनिन को पढ़ने वाले इस शायर ने सियासतदानों के आगे सर नहीं झुकाया। मजरूह का  मतलब होता है घायल। और, इस घयल शायर के दिल से जो भी शब्द निकले वो अमर हो गए।

मजरूह सुल्तानपुरी की बात करते हुए जो बात सबसे पहले दिमाग में आती है वो है उनकी अलग-अलग जॉनर में लिख लेने की बड़ी क्षमता। वो शायद इकलौते गीतकार है्ं जो कुंदन लाल सहगल से लेकर आमिर खान तक के लिए सुपर हिट गाने लिख चुके हैं।

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मजरूह सुल्तानपुरी

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म-

फिल्मी गीतों के बेताज बादशाह ‘मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म एक अक्टूबर १९१९ को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में हुआ था। वैसे इनके बचपन का नाम था असरार हसन खां। लेकिन फ़िल्मी दुनिया में इनका नाम पड़ा मजरूह सुल्तानपुरी।

मजरूह का खानदान पुरानी सोच का था। बचपन में उनके लिए तय किया गया कि मजरूह मौलाना बनेंगे। मगर मजरूह मदरसे में फुटबॉल खेलने लगे। जिसके चलते उनके ऊपर फतवा जारी हो गया इसके बाद वो हकीम बनने की बात सोचने लगे।

मजरूह ने हकीमी की तालीम ली और फैज़ाबाद में प्रैक्टिस करने लगे। मगर कुछ दिनों बाद ही फैजाबाद में किसी लड़की से इश्क हो गया। जैसा कि शायरों के साथ अक्सर होता है। इश्क मुकम्मल नहीं हुआ और हकीमी छूट गई शायरी शुरू हो गई।

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मजरूह सुल्तानपुरी का ‘शाहजहां’ फिल्म के लिए गीत लिखने का मौका-

मजरूह सुल्तानपुर वापस आ गए। जिगर मुरादाबादी की संगत में नौजवान मजरूह मुशायरों में पढ़ने लगे। ऐसे ही मुशायरे में उन्हें ‘शाहजहां’ फिल्म के लिए गीत लिखने का मौका मिला। इसके साथ मजरूह सुल्तानपुरी का कुंदन लाल सहगल के लिए गीत लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अकेले हम, अकेले तुम जैसी म्यूजिकल हिट तक चला।

मजरूह के फिल्मी करियर का आगाज फिल्म ‘शाहजहां’  से होता है। ये किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है, हुआ यूं कि मजरूह सुल्तानपुरी एक मुशायरे में बंबई आए थे, बात है 1945 की। मुशायरे में उन्होंने अपनी गजलों से धूम मचा दी। इस मुशायरे में फिल्म प्रोड्यूसर कारदार साहब भी मौजूद थे।

बाद में कारदार साहब ने जिगर मुरादाबादी से मजरूह का जिक्र किया और गीत लिखवाने कि ख्वाहिश जताई। जिगर ने मजरूह को कारदार का पैगाम पहुंचाया तो उन्होंने सुनते ही मना कर दिया ‘नहीं मैं फिल्मों के लिए नहीं लिखूंगा’। फिर जब जिगर मुरादाबादी ने समझाया कि इसमें पैसे खूब मिलते हैं तो समझ गए और इस तरह नौशाद-मजरूह कि जोड़ी ने ‘शाहजहां’ में साथ काम किया।

इस फिल्म का के.एल. सहगल कि आवाज में गाया मजरूह का गीत हमेशा-हमेशा के लिए मशहूर हो गया ‘गम दिए मुस्तकिल कितना नाजुक है दिल, ये न जाना- हाय हाय ये जालिम जमाना’।

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आइये आपको सुनाते हैं वो किस्सा जिसका टाइटल हमने थंबनेल में दिया है।

ये जश्न-ए-आजादी के दौर की बात है। शहर-शहर, गांव-गांव आजादी का जश्न मनाया जा रहा था। खुद मजरूह सुल्तानपुरी ने सन् 1947 में प्रगतिशील लेखकों के साथ मिलकर आजादी का जश्न मनाने के लिए सड़कों पर नाचते हुए बहुत ऊंचा बांस का कलम बनाया। क्योंकि, उनके अनुसार आजाद मुल्क में कलम की आजादी जरूरी थी। शोषितों के लिए धड़कने वाला मजरूह का दिल इस नए आजाद मुल्क में समानता के अधिकार के लिए जंग चाहता था।

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और, एक दिन मजदूरों की एक सभा में मजरूह सुल्तानपुरी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू पर एक शेर सुना दिया।

नेहरू और खादी के खिलाफ लिखे गए इस गीत ने उस दौर की सियासतदानों को आगबबूला कर दिया। मोरारजी देसाई जो की उस समय मुंबई के गर्वनर थे उन्होंने  मजरूह साहब को ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया और गीत के लिए माफी मांगने को कहा।

लेकिन, अपने इरादों में यकीं रखने वाले मजरूह ने माफी मांगने से इनकार कर दिया और 2 साल तक सलाखों के पीछे रहे। लेकिन, जेल की सलाखों के पीछे से भी इस शायर की सफलता का परचम लहरा रहा था। सुल्तानपुरी के गाने देश के बच्चे-बच्चे की जुबां पर लहरा रहे थे। ऐसे में सियासत को थक-हारकर मजरूह को कैद से आजाद करना पड़ा।

अब लौट चलते है अपने मुख्य किस्से पर –

फिल्म शाहजहां के लिए उनका लिखा और के एल सहगल का गाया – ‘जब दिल ही टूट गया, अब जीके क्या करेंगे’ हिंदी फिल्म इतिहास के अमरगीतों में स्थान रखता है। यह उनका शुरुआती गीत था। सहगल को यह गीत इतना पसंद आया था कि वे चाहते थे कि इसे उनके जनाजे में जरूर बजाया जाए।

एक प्रख्यात गायक-अभिनेता के मुंह से मजरूह सुल्तानपुरी के शुरुआती गीत के लिए इससे बड़ी तारीफ भला क्या हो सकती थी। इन्हीं गानों के साथ-साथ मजरूह की दोस्ती नौशाद से भी शुरू हुई और बाद में दोनों रिश्तेदार भी बन गए। मजरूह सुल्तानपुरी की बेटी की शादी नौशाद साहब के बेटे के साथ हुई थी।

बतौर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से जुड़ी एक बेहद खास बात यह है कि उनका सफर तो नौशाद-कारदार-सहगल के जमाने से शुरू हुआ था लेकिन उन्होंने बीते दशक के कुछ जानेमाने संगीतकारों जैसे अनु मलिक, जतिन ललित से लेकर लीज्ले लुईस लेविस तक के लिए गाने लिखे हैं। खान तिकड़ी पर भी उनके गाने फिल्माए जा चुके हैं।

इस लिहाज से देखें तो हिंदी फिल्म गीतों का एक लंबा दौर मजरूह सुल्तानपुरी के नाम रहा है। इसे सालों में मापें तो उनका करियर पचास सालों से ज्यादा लंबा रहा। हिंदी फिल्म इतिहास में यह किसी अजूबे से कम नहीं है।

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मजरूह सुल्तानपुरी

इतना बड़ा कालखंड किसी गीतकार और लेखक के हिस्से यूं ही नहीं आ सकता। ऐसा तभी हो सकता है जब उस कलाकार या रचनाकार के वजूद में बदलते दौर को लेकर एक लचीलापन हो। मजरूह सुल्तानपुरी में नई पीढ़ी के साथ काम करने की इच्छा के साथ-साथ अपने गीतों को स्तरीय बनाए रखने की अद्भुत ललक थी। इसका उदाहरण ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘क़यामत से कयामत तक’, ‘जो जीता वही सिकंदर’, ‘अकेले हम अकेले तुम’ और ‘खामोशी द म्यूजिकल’ जैसी फिल्मों के गीत हैं। इनमें सौन्दर्य भी है, भावनाएं भी और शब्द भी बहुत हद तक सुसंस्कृत हैं।

हालांकि 1960 और 1970 का दशक उनके गीतों का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। ‘चुरा लिया है तुमने। ‘बांहों में चले आओ। ‘ऐसे न मुझे तुम देखो।, ‘अंग्रेजी में कहते हैं’ से लेकर ‘छोड़ो सनम, काहे का गम’ तक हर बार नया कहने का उनका अंदाज नया ही बना रहा। यह वक़्त की नब्ज को पकड़ना भी था और वक़्त के साथ चलना भी। वरना बहुत ही मुश्किल होता  ‘दिल ही टूट गया’, या ‘हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाजार की तरह’  जैसे पुराने चलन लेकिन गहरे अर्थों वाले उर्दूदां गीतों के लेखक के लिए यह सफ़र तय कर पाना।

मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने जीवनकाल में लगभग 300 फिल्मों के लिए 4000 गीत लिखे हैं। फिल्मों की संख्या का गीतों के हिसाब से कम होना दिखाता है कि वे अन्य गीत लेखकों की तरह एक दो गीत के लिए किसी फिल्म से नहीं जुड़े, वे जहां रहे पूरी तरह जुड़कर, पूरे मन से लेकिन अपनी शर्तों पर रहे।

मजरूह सुल्तानपुरी साब कितने खुद्दार थे इसका अंदाजा इस किस्से से लगाया जा सकता है -मजरूह सुल्तानपुरी जब जेल में थे तब  उनका परिवार भारी आर्थिक तंगी में आ गया।

राजकपूर ने उनके परिवार की आर्थिक मदद करनी चाही तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। इसके बाद राजकपूर ने उन्हें अपनी फिल्म के लिए एक गाना लिखने को तैयार किया और इसका मेहनताना उनके परिवार तक पहुंचाया था।

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इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल-

यह गाना था – ‘ इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल ’ इसे राजकपूर ने 1975 में आई अपनी फिल्म धरम-करम में इस्तेमाल किया।

मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी शायरी के लिए ग़ालिब और इकबाल सम्मान जैसे बड़े सम्मान मिले थे। वहीं फ़िल्मी गीतों में दोस्ती फिल्म के गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे’ के लिए उनको फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। दादा साहब फाल्के अवॉर्ड के हकदारों में मजरुह पहले गीतकार रहे हैं।

मजरूह सुल्तानपुरी का ब्यक्तिगत जीवन-

मजरूह सुल्तानपुरी अपने जीवन के अंतिम दिनों में  फेफड़ों की बीमारी से जूझ रहे थे। 24 मई 2000 को बंबई में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मृत्यु के समय उनकी उम्र  80 वर्ष थी। सुल्तानपुर के नगर निगम ने दीवानी चौराहा के पास उनकी याद में एक उद्यान “भी बनवाया है।

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