अपने हृदय को चीरकर माता सीता और प्रभु श्रीराम की छवि दिखाने वाले रामभक्त हनुमान की कथाओं से भला कौन अनभिज्ञ होगा।
परंतु प्रभु श्रीराम हेतु हर बाधा पार करने वाले संकटमोचन हनुमान की एक कथा ऐसी भी है जिसमें स्वयं उनके और उनके आराध्य प्रभु श्री राम के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। वास्तव में यह अत्यंत ही आश्चर्यजनक घटना है।
परंतु इससे भी कहीं अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि जब रामभक्त हनुमान ने श्रीराम से युद्ध करने का निर्णय लिया तब उन्होंने सौगंध भी अपने आराध्य प्रभु श्री राम की ही ली। भला ऐसी कौन सी घटना घटी कि पवनपुत्र को अपने ही प्रभु श्री राम से युद्ध करना पड़ा?
एक बार की बात है सुमेरू पर्वत पर एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें सभी संतों का आगमन हुआ। क्या राजा क्या प्रजा सब संतों के आशीर्वाद हेतु वहाँ पहुँच रहे थे।
ऐसे में कैवर्त देश के राजा सुकंत भी उस सभा में संतों से आशीर्वाद लेने के अपने राज्य से निकल पड़े। सभा स्थल पहुँचने से पहले ही रास्ते में उन्हें देवर्षि नारद मिल गये। राजा सुकंत ने उन्हें झुककर प्रणाम किया।
देवर्षि नारद जी ने उन्हें आशीर्वाद देकर यात्रा का प्रयोजन पूछा। राजा सुकंत ने उन्हें संत सभा के आयोजन के बारे में बताया और कहा कि वे वहाँ संतों के आशीर्वाद हेतु ही जा रहे हैं।
इस पर नारदमुनि ने कहा कि “यह तो बहुत ही शुभकार्य है, संतों की सभा में तो सभी को अवश्य ही जाना चाहिए, आपको मेरा पूरा आशीर्वाद है।”
सुकंत सभा में जाने के लिए प्रस्थान करने लगे तभी नारद जी ने उन्हें रोककर कहा कि “हे राजन! सभा में सभी को प्रणाम करना परंतु ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम कदापि न करना।” इसपर सुकंत ने बड़े ही आश्चर्य भाव से कहा कि “परंतु देवर्षि यह तो उचित नहीं है।”
तब नारद जी ने कहा कि ” हे राजन! तुम भी राजा हो, और विश्वामित्र भी पहले राजा ही थे, भले ही वे अब संत हो गए हैं इसलिए तुम उन्हें प्रणाम मत करना।” राजा सुकंत को देवर्षि नारद की बात समझ में आ गयी इसलिए उन्होंने ठीक वही किया जैसा कि नारद जी ने उन्हें समझाया था।
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उन्होंने सभा में उपस्थित सभी संतों को प्रणाम किया परन्तु महर्षि विश्वामित्र को नहीं किया। राजा सुकंत के इस बर्ताव से महर्षि विश्वामित्र बहुत अपमानित हुये।
सभा समाप्त होते ही वे श्रीराम से पास जा पहुंचे और उनसे पूरी बात बताई। उन्होंने कहा कि वे अपना अपमान तो भूल भी जाते परंतु यह तो समस्त संत परंपरा का अपमान है।
राम जी ने क्रोधित होकर पूछा कि “हे पूज्य गुरुदेव किसने किया है यह पाप मुझे उस पापी का नाम बताइये? मैं आपके चरणों की सौगंध लेकर यह प्रतिज्ञा करता हुँ कि कल उस पापी का वध मैं स्वयं अपने हाथों से करूंगा। क्योंकि जो सिर आपके चरणों में नहीं झुक सका उस सिर को उसके धड़ पर रहने का कोई अधिकार नहीं।”
श्रीराम की इस प्रतिज्ञा के बारे में जैसे ही राजा सुकंत को सूचना मिली वह भयभीत होकर देवर्षि नारद को ढूढ़नें लगे। बहुत देर तक जब नारद नहीं मिले तो राजा सुकंत ने थक कर विलाप करना प्रारंभ कर दिया।
सुकंत की ऐसी अवस्था देख नारद जी से नहीं रहा गया उन्होंने उसी क्षण प्रकट होकर सुकंत से विलाप का कारण पूछा। सुकंत ने हाथ जोड़कर उन्हें सारी व्यथा सुना डाली तथा साथ ही यह भी विनती की कि “आपने ही इस संकट में डाला है अब आप ही इससे मुक्ति दिला सकते हैं।”
इसपर नारद जी ने उन्हें माता अंजनी की शरण में जाने की सलाह दी और कहा कि “यदि उन्होंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा का एक बार वचन दे दिया तो तुम्हारा अहित कोई भी न कर सकेगा स्वयं श्रीराम भी नहीं।” नारद जी ने राजा सुकंत से यह वचन लिया कि वह किसी को यह न बतायें कि सुकंत को यह सलाह उन्होंने दी है।
राजा सुकंत उसी क्षण माता अंजनी के द्वार पर पहुँच गये और विलाप करने लगे। जिसे सुनकर माता अंजनी बाहर निकलीं और सुकंत को देखकर उनकी समस्या पूछी।
राजा सुकंत ने माता अंजनी के चरणों में गिरकर कहा कि “हे माता भूलवश मुझसे महर्षि विश्वामित्र जी का अपमान हो गया है अब आप ही मेरे प्राणों की रक्षा कर सकती हैं।” इस पर माता अंजनी ने सुकंत से उनके प्राण बचाने का वचन देते हुये कहा कि “तुम मेरी शरण में हो, अब तुम्हें कोई नहीं मार सकता। तुम निश्चिंत होकर विश्राम करो”
सायंकाल होने पर हनुमान जी माता अंजनी के कक्ष में पहुंचे तो उन्होंने हनुमान से सारी बात बताई और कहा “तुम सौगन्ध लो कि तुम सुकंत के प्राणों की रक्षा अवश्य करोगे।”
माता का आदेश था तो हनुमान जी को तो पालन करना ही था, हनुमान जी ने उसी क्षण कहा कि “हे माता मैं श्रीराम के चरणों की सौगंध लेता हूँ कि मैं सुकंत के प्राणों की रक्षा अवश्य करुँगा।”
तब माता अंजनी ने राजा सुकंत को बुलाया। हनुमान जी ने पूछा, “हे राजन भला कौन है जो तुम्हें मारना चाहता है? सुकंत ने बताया कि “प्रभु श्रीराम ने उन्हें मारने का संकल्प लिया है।”
इतना सुनते ही माता अंजनी ने बड़े ही आश्चर्य से कहा “परंतु तुमने तो विश्वामित्र जी का नाम लिया था।” राजा ने बताया कि “हाँ उनके कारण ही तो श्रीराम ने मुझे मारने का संकल्प लिया है।”
हनुमान जी बड़े धर्मसंकट में पड़ गये वे उसी क्षण राजा सुकंत को उनकी राजधानी में छोड़कर श्रीराम के दरबार में जा पहुँचे। वहां पहुंचकर उन्होंने श्रीराम से प्रार्थना करते हुए कहा कि “हे प्रभू आप सुकंत को क्षमा कर दें। उसे मत मारिए भले ही कोई और दण्ड दे दीजिये।”
राम जी ने कहा कि वह अपने गुरु की सौगंध ले चुके हैं इसलिए अब पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं उठता। तब हनुमान जी ने कहा “प्रभु मैंने भी उसके प्राणों की रक्षा हेतु आपकी सौगंध ली है, मुझे धर्मसंकट में मत डालिये।
आप ही बताइए कि अब मैं क्या करूँ?” तब श्रीराम ने कहा कि “ठीक है तुम अपना वचन निभाओ, मैं अपना वचन निभाता हूँ।”
हनुमान जी वहाँ से लौटकर राजा सुकंत को अपने साथ लेकर सीधा एक पर्वत पर पहुंच गये और राम नाम का जाप करने लगे। इधर श्रीराम भी राजा सुकंत को ढूढ़ते हुये उसी पर्वत पर जा पहुंचे। श्रीराम को वहाँ देखकर सुकंत भयभीत हो गये।
तब हनुमान ने कहा कि “राम नाम मंत्र का जप करते रहें आपको कुछ नहीं होगा, राम नाम में बहुत शक्ति है।” यह कहकर हनुमान ने सुकंत को राम नाम मंत्र से घेर दिया और कहा कि इसी घेरे में राम नाम का जप करते रहें।
इधर प्रभु श्री राम ने राजा सुकंत पर बाण चलाना शुरू कर दिया परन्तु वह राम नाम के मंत्र के प्रभाव से घेरे से टकराकर विफल हो जाता। श्रीराम को समझ नहीं आ रहा था वे अब क्या करें?
इस दृश्य को देखकर लक्ष्मण जी से नहीं रहा गया क्रोध में आकर उन्होंने स्वयं ही हनुमान जी पर बाण चला दिया।
परंतु तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई वह बाण हनुमान जी को न लगकर, प्रभु श्री राम को लग गया जिससे वे मूर्छित होकर गिर पड़े।
लक्ष्मण जी बड़े ही आश्चर्य में पड़ गये कि ऐसा कैसे हो गया। जैसे ही श्रीराम की मूर्छा टूटी वे हनुमान-हनुमान कहते हुए संकटमोचन हनुमान की ओर दौड़ पड़े और उनकी छाती से बहते रक्त को देखकर अपनी आँखें बंदकर, कभी उनकी छाती पर हाथ रखने लगे तो कभी हनुमान जी के सिर को सहलाने लगे।
इधर जैसे ही हनुमान जी की आँखें खुली तो उन्होंने देखा कि प्रभु आंखें बंद करके कभी उनके छाती पर हाथ रखते हैं तो कभी उनके सिर को सहलाते हैं। उसी क्षण संकटमोचन हनुमान को एक युक्ति सुझी उन्होंने झट से सुकंत को पीछे से खींचकर अपनी गोद में बिठा लिया।
तभी श्रीराम का हाथ सुकंत के सिर पर पड़ गया जिसे उन्होंने हनुमान का सिर समझकर सहला दिया। हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा “हे प्रभु अब तो आपने सुकंत के सिर पर हाथ रख दिया है, अब तो आप इन्हें जीवनदान दे ही दें।”
तब श्रीराम ने कहा कि “हे हनुमान! जिसे तुम अपनी शरण ले लो उसका अहित कैसे हो सकता है। स्वयं मैं भी उसका अहित नहीं कर सकता। परंतु मैंने जो गुरुदेव को वचन दिया है उसका क्या होगा?”
तभी हनुमान जी ने देखा कि महर्षि विश्वामित्र स्वयं इस ओर चले आ रहे हैं। उन्होंने राजा सुकंत से कहा कि “जाओ राजन और अपनी उस भूल को अब सुधार लो, गुरुदेव अवश्य क्षमा कर देंगे।”
राजा सुकंत दौड़कर विश्वामित्र जी के चरणों में गिर गये और क्षमायाचना की। तब विश्वामित्र ने कहा “हे राम! मैंने इसे क्षमा कर दिया है अब तुम भी इसे क्षमा कर दो क्योंकि इसने अपनी भूल स्वीकार कर ली है और संत का काम किसी को दण्डित करना मात्र नहीं होता अपितु उसका सुधार करना होता है।”
महर्षि विश्वामित्र ने सुकंत से पूछा कि “हे राजन! इस तरह किसी संत का अपमान करने की सलाह भला तुम्हें किसने दी थी?”
राजा सुकंत कुछ उत्तर देते तभी वहाँ देवर्षि नारद प्रकट हो गये। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र को उस दिन की सारी घटना सुना दी। विश्वामित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा कि “हे नारद!
आपने सुकंत को ऐसी अनुचित सलाह क्यों दी थी?” तब नारद जी ने उत्तर दिया कि “हे महर्षि! ऐसा मैंने इसलिए किया था ताकि लोगों को उनके इस प्रश्न का उत्तर मिल जाये कि राम बड़े या राम का नाम बड़ा।
इसलिए मैनें सोचा कि क्यों न कोई लीला की जाए, जिससे लोग स्वयं ही राम -नाम की महिमा को समझ लें।”
जय श्री राम!