त्रासदी…..
जिसका सीधा सम्बन्ध विनाश से है..
लेकिन जब यह शब्द भोपाल के साथ जुड़ जाता हैँ तो इसका मतलब महाप्रलय हो जाता हैँ,
और जैसे ही “भोपाल गैस त्रासदी ” का नाम हमारे कानों में पड़ता हैँ तो मौत का वो मंजर आँखों के सामने आ जाता हैँ, “जहाँ खून का एक कतरा नहीं और ना ही हथियारों का कोई वार,लेकिन फिर भी लाशों का अम्बार…. और चारों तरफ हाहाकार “
सड़को पर चारों तरफ मची भगदड़.. , हलक से साँस लेने के लिए मशक्कत और किसी भी हाल में हॉस्पिटल पहुँचने कि होड़..
और जो इस होड़ में सड़को पर जहाँ गिरा उसने वही दम तोड़ दिया, जो लोग ये जंग जीतकर हॉस्पिटल पहुँच भी गये उनमे से भी ज्यादातर ज़िंदगी से जंग हार गये | कहने का मतलब यह हैँ कि एक ऐसा हादसा जिसका आगाज भी मौत और अंत भी मौत |
तारीख 2 दिसंबर 1984.. ये इतिहास के पन्ने में भारत ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी के रूप में अपना नाम दर्ज करवाये हुए है, इसी दिन भोपाल के यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के प्लांट नंबर C के टैंकर नंबर 610 में भारी जहरीली गैस, मिथाइल आइसोसाइनाइट का स्राव, भयंकर हथियार बनकर भोपाल के लोगो की खुशहाल ज़िंदगी को मातम मे बदल दिया था | ये ऐसा जख्म था जिसे 3-4 पीढ़ियों बाद आज भी अनुभव किया जा सकता हैँ| उस दिसम्बर की सर्द और काली रात औद्योगिक माफियो और भ्रष्ट नेताओं के काली करतूतों को बयां कर रहीं थीं .
इस घटना ने एक दुर्घटना का लिबास जरूर पहना था लेकिन ये कोई संयोगवश हुआ कोई दुर्घटना नहीं था |बल्कि लापरवाही और अनदेखीयों का विस्फोट था, जो भयंकर तबाही के साथ अब तक ना भरने वाले जख्म दे गया |
ये मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना अचानक आयी कोई आपदा नहीं थी जैसा शुरुआत मे समझा गया | इसे मानवता को शर्मसार करने वाली घटना, क्यों कहा गया इसका स्पष्टीकरण से पहले हम उन पहलुओं की बात करते हैँ जो उस समय तक लोगो के सामने था
भारतीय सांझेदारी से स्थापित कीटनाशक दवाओं की यूनियन कार्बाइड कम्पनी की स्थापना 1969 में हुई थी , शुरूआती सालों में तो सुरक्षा को लेकर सगजता और सावधानी तो बरती गई लेकिन कुछ समय बाद इसे नजरअंदाज किया जाने लगा| फैक्ट्री में लापरवाही का नतीजा उनके आकाओं को अच्छी तरह पता था लेकिन ज्यादा मुनाफे की चाहत इसमें सेंध लगा गयी , सुरक्षा पर किया जाने वाले ख़र्चों में कटौती की जाने लगी |यहाँ तक की पुराने वा कर्मचारियों की जगह कम सैलरी पर अनुभवहीन लोगो को भर्ती किया जाने लगा, बस यहीं से इस विनाशकारी त्रासदी के अंकुर पनपने लगे और आगे चलकर ये अंकुर ज्वालामुखी का रूप लेकर फट गया |
दुर्घट्ना वाला दिन भी, फैक्ट्री और भोपाल के लोगो के लिये दूसरे दिनों की तरह, सुचारु रूप से चल रहा था और लोग आने वाले खतरे से पूरी तरह अनजान थे | उस दिन भी सामान्य दिन की तरह निर्धारित समय पर फैक्ट्री को बन्द किया गया | सिर्फ सुरक्षा कर्मचारी ही फैक्ट्री में मौजूद थे, तभी उन्हें लगभग रात 11: बजकर 15 मिनट पर अचानक किसी गैस के स्राव होने का आभास हुआ | इसके बाद वहां के ऑपरेटर सुमन डे ने तलाश किया तो स्टोर रूम पाईप रिसाव का पता चला, जिसके नीचे मिथाइल आइसोसाइनाइट के 3 टैंक थे, जिनकी क्षमता 68 हजार लीटर के करीब थी, लेकिन सुमन डे ने इसे साधारण समझते हुए जुगाड़ से इसका अस्थाई समाधान कर दिया और वापस लौट आये बस इसी समय से इस विनाशकारी घटना का आगाज हो चूका था | क्योंकि सुमन डे का ये प्रयास, असफल होकर इस महाप्रलय की योजना बना रहा था .
यहाँ आपको बताते चले कि ऐसी गैस स्राव की घटना फैक्ट्री में आये दिन हुआ करती थी और इससे दो महीने पहले अक्टूबर में भी आखिरी बार हुआ था | और लापरवाही का अति तब हो गई जब 2 साल पहले 1982 में टैंक के वातानुकूलित सिस्टम को अतिरिक्त ख़र्च कटौती के नाम पर हटा दिया गया | लेकिन कहते हैँ ना अच्छा सौ दिन होता हैँ और बुरा एक दिन ही..
ये कुछ इस तरह था जैसे नियति भूल सुधारने के कई मौके देते रहीं लेकिन आखिर मे उसके सब्र का बाँध भी टूट गया
करीब 12बजे गैस का रिसाव इतना बढ़ गया की पूरी फैक्ट्री के हवा में फ़ैल गया, अब उसे फैक्ट्री के किसी भी कौने से महसूस किया जा सकता था | उसके बाद इसे रोकने का काफ़ी प्रयास किया गया, गैस के दबाव को कम करने के लिये पानी का छिड़काव किया जाने लगा लेकिन सारे प्रयास असफल रहें, और गैस पाईप से चिमनियों के माध्यम से पुरे शहर में फैलने लगा | आमतौर पर हार ना मानकर कर लगातार प्रयास करने की सीख दी जाती हैँ लेकिन यहाँ यहीं प्रयास लाखों जिंदगियों के बर्बादी का कारण बना , बेहतर होता की शुरुआत में ही शहर के लोगो को जानकारियाँ दी गई होती तो कई ज़िंदगी बचायी जा सकती थी|
उस रात संयोग भी परिस्थिति से विपरीत थी और हवा का रुख भी शहर की और था, आसपास के लोग इसे साधारण गैस स्राव समझ कर पंखे, कूलर आदि चलाकर अपने स्तर पर बचने का उपाय कर रहें थे | फिर कुछ समय में वो क्षण भी आया जब दिल दहला देने वाली हादसे का सबसे भीषण अंजाम हुआ, मिथाइल आइसोसाइनाइट (MIC) और पानी (H2O) के रिएक्शन (अभिक्रिया ) से विस्फोट हो गया . और देखते ही देखते पूरा शहर इसकी चपेट में आ गया, इस जहरीली गैस का प्रभाव इस तरह पड़ा कि सारा शहर खांसने लगा जैसे साँस नली में मानों काँटा चुभने लगा हो, लोग इस दर्द से कराह रहें थे लेकिन मुँह से चीख भी नहीं निकल पा रही थी, निकल रहा था तो लोगो के जिस्मो से रूह, सैकड़ो लोगो ने कुछ मिनट में ही दम तोड़ दिया | हॉस्पिटल पहुँचे लोगो की भी कोई सुध लेने वाला नहीं था | शहर के सबसे नामी -गिरामी हॉस्पिटल पूरी तरह मुर्दाघर में तब्दील हों गए थे |हर क्षण के साथ कई लोग ज़िंदगी से जंग हार रहें थे विडंबना यह था कि जिस फैक्ट्री को शहर के कीड़े-मकोड़े मारने वाले कीटनाशक के उत्पादन के लिए लगाया गया उसी कारण शहर के लोग कीड़े -मकोड़े की तरह मर रहें थे| सुबह होते -होते 3 हजार लोग काल के गाल मे समा गए | और 10हजार से ज्यादा लोग आंशिक या पूर्ण विकलांगता को प्राप्त हों गए , ये आंकड़े सरकार की तरफ से दिए गए थे , लेकिन चर्चा थी कि वास्तविकता 3 से 4 गुना स्तर पर था |
भोपाल ने ऐसा दिन कभी नहीं देखा जब कब्रिस्तान में जगह कम पड़ गया और श्मशान में लकड़ियाँ| और इस हादसे में पशुओ के मरने का आकड़ा इंसानों से कम नहीं था लेकिन जहाँ इंसानों का ये हाल हों वहाँ इन बेजुबानो पर ध्यान कौन देता .उन्हें तो बस कचरों के ढेर के साथ साफ कर दिया गया | हादसे मे लगातार मौत का ये सिलसिला महीनों चला | लगभग 30 हजार लोग इस दुर्घटना से मारे गए और 2 लाख लोग अपंग हो गए और 5 लाख लोगो की जिंदगिया इससे प्रभावित हुईं , आज करीब 35 साल हो गए लेकिन इसका परिणाम अभी तक पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सका || आज 4 पीढ़ी बाद भी उनका जीवन उस काली रात के साये से नहीं उबर सका और समय समय पर इससे पीड़ित लोगो की दर्दनाक कहानी दुनिया के सामने आती रहती हैँ और ये कब तक चलता रहेगा इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं हैँ
लेकिन ये प्रश्न तो सबके मन में आता हैँ कि इनके हंसती खेलती ज़िंदगी को इस तरह ग्रहण लगाने वाले इस घटना का गुनहगार कौन था, हादसे के पीड़ितों को सरकार द्वारा संतोषजनक सहायता नहीं प्रदान की गयी | सरकार द्वारा जो मृतको को मुवावजा के रूप मे प्रदान किया गया वो थी 12हजार 4 सौ की धनराशि | इसके अतिरिक्त पीड़ितों को मिले तो सिर्फ राजनिति के खोखले वादे | लेकिन कुछ ऐसा भी था जिसकी माँग पीड़ितों के साथ पूरा देश कर रहा था, वो था इंसाफ.. लेकिन इंसाफ के नाम पर जो सामने आया वो हमारे भ्रष्ट क़ानून को आईना दिखाते हुये लचर न्याय व्यवस्था का उपहास करता हैँ | इस दुर्घटना के वक्त पुरे भोपाल का हत्यारा यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन वारेन एडरसन उसी शहर मे था जहाँ हजारों लोग जिंदगीऔर मौत के बीच जंग लड़ रहें थे | लेकिन वो भ्रष्ट नेताओं और बिकाऊ नौकरशाहों की सहायता से भाग निकला और उसे सुस्त सरकार कभी भी न्याय के कटघरे में नहीं पायी | आज भोपाल का कातिल ने तो दुनिया छोड़ दी है लेकिन पीड़ितों का दर्द अभी तक उनका पीछा नहीं छोड़ पाया |इस घटना का जिक्र हमेशा क़ानून और न्याय व्यवस्था पर तमाचा लगाती रहेगी और वीरान पङा ये यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री पीड़ितों के दर्द को कुरेदती रहेगीं |
ये घटना हम लोगों को एक सबक देकर गयी है कि विज्ञान का लापरवाही से प्रयोग किस तरह आत्मघाती हो
सकता हैँ, अमृत भी विष से ज्यादा घातक हो सकता हैँ |
लेकिन विचार करने योग्य हैँ कि क्या हम वास्तव में इससे सीख ले पाए हैँ आत्ममंथन करने पर जवाब ना ही आएगा क्योंकि 1984 की गैस त्रासदी से अब तक ऐसी दर्जनों खबरे आई हैँ. और फिलहाल में ही विशाखापत्तनम में 2 महीनें 3 गैस रिसाव की घटना 8मई, 27 जून और 30 जून जिसमे 14 लोग अपनी ज़िंदगी गँवा चुके हैँ | क्या वहाँ एक दूसरे भोपाल गैस त्रासदी की प्रतीक्षा की जा रही | बेहतर होगा कि हमें वक्त रहते सबक ले लेना चाहिए वरना ऐसी घटनाएं संभलने का वक्त नहीं देती, देती हैँ तो कभी ना भरने वाले जख्म……
“शाम तो थी खूब सुहानी,
लेकिन सुबह हुआ तो सब बंजर था |
क़त्ल तो तमाम हुये,
लेकिन किसी हाथ कहाँ खंजर था !
था वहां यमराज का साया,
या अपना खुदा रूठा हुआ |
बेशक़ लाशों के पास नये कफन ना थे,
लेकिन निर्वस्त्र तो शासन हुआ ||”
लेखक-विकास चौहान
