कैसे बर्बाद हुआ हिंदुस्तान में फुटबॉल ?
भारतीय फुटबॉल का इतिहास | Indian Football History |

भारत, खेलों को धर्म और खिलाड़ियों को भगवान की तरह देखने वाला वह देश जहां की हर गली में आपको कोई ना कोई खेल या कोई ना कोई खिलाड़ी मिल ही जायेगा, लेकिन क्या आपने सोचा है खेलों को इतना सम्मान देने वाला यह देश दुनिया के सबसे पसंदीदा खेल फुटबॉल को वह सम्मान और प्यार क्यों नहीं दे पा रहा है।
एक समय था जब भारत के सबसे बड़े दार्शनिक महात्मा विवेकानंद जी ने कहा था कि फुटबॉल खेलों क्योंकि गीता से भगवान मिले ना मिले फुटबॉल खेलने से जरुर मिल जायेंगे। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि एक समय दस से ज्यादा सालों तक एशियन फुटबॉल पर आधिपत्य रखने वाला यह देश फुटबॉल की दुनिया में सिमट गया।
आज हम क्रिकेट से हटकर हमारे देश को फुटबॉल के नजरिए से देखने की कोशिश करेंगे और आपको हमारे देश की फुटबॉल के खेल में महान् विरासत के बारे में बतायेंगे।
फुटबॉल के खेल पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह खेल आज से लगभग आठ सौ से नौ सौ साल पहले बिल्कुल ही अलग ढंग से शुरू हुआ था।

ब्रिटेन को इस खेल का जन्मदाता माना जाता है जहां इस खेल की शुरुआत बारहवीं सदी में हुई थी और उस समय इस खेल को लेकर कोई नियमावली नहीं थी।
आज की फुटबॉल और रग्बी के मिश्रण की तरह शुरू हुए इस खेल को उन्नीसवीं शताब्दी तक कई अलग-अलग देशों में ब्रिटिश सिपाहियों और वहां के लोगों के कारण पहचाना जाने लगा था, ब्रिटेन ने क्रिकेट की ही तरह इस खेल को भी अपनी सभी कोलोनीज में फैलाना शुरू कर दिया था।
हिस्ट्री ऑफ इंडियन फुटबॉल नाम की एक किताब में बताया गया है कि भारत में फुटबॉल का पहला मैच साल 1802 में बोम्बे में आइलैंड इलेवन और मिल्ट्री इलेवन के बीच खेला गया था, लेकिन यह मैच आज की फुटबॉल से बिल्कुल ही अलग था, मैच की समय-सीमा तीस मिनट थी।
भारत में एक नये खेल का आगमन तो हो गया था लेकिन यहां अगले सत्तर सालों तक यह खेल सिर्फ अंग्रेजी अफसर और सिपाही ही खेलते रहे, भारतीय लोगों का जुड़ाव एक लंबे अरसे तक इस खेल में ना के बराबर था।
साल 1848 में पहली बार इस खेल को कुछ नियमों में बांधा गया, धीरे-धीरे यह खेल दुनिया में अपनी जगह बनाने लगा, साल 1872 में भारत की जमीन पर कलकत्ता FC और शारदा FC के नाम से पहले दो फुटबॉल क्लब्स का निर्माण हुआ और अब भारत में भारतीय लोगों के लिए भी यह खेल शुरू हो गया था और इस क्रांतिकारी बदलाव के पिछे नगेन्द्र दास सर्बाधिकारी का योगदान सबसे महत्वपूर्ण है।
साल 1877 में नगेन्द्र दास सर्बाधिकारी एक दिन कुछ अंग्रेजो को फुटबॉल खेलते हुए देखते हैं और फिर अगले दिन स्कूल में जाकर अपने दोस्तों के साथ मिलकर फुटबॉल खरीदने के लिए पैसों का बंदोबस्त करते हैं और फिर अपने प्रोफेसर की सहायता से फुटबॉल की बारीकियां और नियमावली सीखने का सिलसिला शुरू होता है।
एक नये खेल के लिए नौ साल की उम्र में पैदा हुए आकर्षण के कारण नगेन्द्र सर्वाधिकारी ने अपने आसपास की कोलेज और स्कूल के बच्चों को भी अपने साथ जोड़ने का काम शुरू किया और फिर बोयज क्लब नाम से एक फुटबॉल क्लब की नींव रखी जो भारत में भारतीय लोगों के लिए बना पहला फुटबॉल क्लब था।

यहां से भारतीयों को भी स्वतंत्र रूप से फुटबॉल का खेल एक अच्छे स्तर पर खेलने का मौका मिलने लगा, क्लब्स की गिनती में भी इजाफा होने लगा, 1884 में नगेन्द्र वेलिंगटन क्लब का निर्माण करते हैं लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि उनके साथियों ने एक कुम्हार कू बच्चे के साथ फुटबॉल खेलने से मना कर दिया है तो वो नाराज़ हो जाते हैं और क्लब को बंद कर देते हैं।
एक नया सफर शुरु हो गया था लेकिन अभी भी ब्रिटिश फुटबॉल टुर्नामेंट्स में भारतीय लोगों को खेलने की इजाजत नहीं थी, 1887 में नगेन्द्र सोवाबाजार क्लब का निर्माण करते हैं और उसका पहला सदस्य उसी कुम्हार के लड़के को बनाते हैं जिसके साथ बड़ी जाति वाले खिलाड़ियों ने खेलने से मना कर दिया था, इसी बीच डुरंड कप की शुरुआत भी होती है और फिर 1891 में मोहन बागान स्पोर्टिंग क्लब का निर्माण होता है जो आज भारत की धरती पर खड़ा सबसे पुराना फुटबॉल क्लब है।
साल 1892 में पहली बार सोवाबाजार क्लब की टीम को इंग्लिश फुटबॉल टुर्नामेंट ट्रेड्स कप में खेलने के लिए बुलाया जाता है और इस टुर्नामेंट के फाइनल में सोवाबाजार की टीम चैम्पियन बनकर निकलती है, यह पहला मौका था जब किसी भारतीय टीम ने अंग्रेजों को किसी बड़े टुर्नामेंट में हराया था।
अगले साल भारत में फुटबॉल की पहली गर्वनिंग बोडी इंडियन फुटबॉल असोसिएशन का निर्माण होता है लेकिन यहां भी बहुमत अंग्रेजी लोगों के पास ही था, ये लोग एक टुर्नामेंट भी स्पोंसर करते हैं लेकिन उसमें सिर्फ एक ही भारतीय टीम को भाग लेने का मौका दिया जाता है।
बंगाल भारत में फुटबॉल का सबसे बड़ा हब था और यहां स्वंतत्रता आंदोलन भी अपने चर्म पर था ऐसे में फुटबॉल यहां के लोगों के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने का एक बड़ा जरिया बन गया था। कुछ अंग्रेजी विचारकों ने बंगाली लोगों के लिए इस दौरान कहा था कि ये लोग मेहनत पर विश्वास नहीं करते हैं इनकी टांगें पतली है और इन्हें ऐशो आराम की जिंदगी से ही प्यार है, इन बातों का प्रतिउत्तर भी विवेकानंद जैसे महान लोगों ने दिया जिसका जिक्र हम पहले कर चुके हैं।
साल 1899 में दक्षिण भारत को भी अपना पहला फुटबॉल क्लब मिलता है जिसके बाद साल 1900 में सूबेदार मेजर बसु साहब मोहन बागान क्लब के सेक्रेटरी बनते हैं और फिर यहां के खिलाड़ियों की फिटनेस, एजिलिटी और मांइडसेट में बदलाव लाने पर काम शुरू किया गया जिसका परिणाम यह रहा कि 1904, 1905 और 1907 में यह टीम कूच बिहार कप की चैम्पियन बनती है।

साल 1905 में मोहन बागान क्लब टीज्ञ ने डलहौजी क्लब को गलेडस्टन कप के फाइनल में 6 -1 से हराकर सभी का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था, मोहन बागान क्लब की सफलता ने अंग्रेजों का ध्यान भी अपनी तरफ खींचा और फिर इंडियन फुटबॉल असोसिएशन ने साल 1909 में आइएफए शील्ड में खेलने के लिए न्यौता दिया, लेकिन साल 1909 और 1910 में मोहन बागान क्लब का प्रदर्शन यहां बहुत ज्यादा अच्छा नहीं रहता है।
इस खराब प्रदर्शन को देखते हुए टीम के कप्तान शिवदास भादुड़ी टीम में कुछ बदलाव करते हैं और अभिलाष घोष नाम के एक हठ्ठे कट्टे खिलाड़ी को टीम में सेंटर फोरवर्ड के लिए शामिल करते हैं।
10 जुलाई साल 1911 के दिन कुछ नये बदलावों के साथ मोहन बागान क्लब इंडियन फुटबॉल असोसिएशन शील्ड कप में अपना सफर शुरू करते हैं और बहुत सी कमियों के बावजूद भी शानदार प्रदर्शन के साथ नंगे पैर खेलते हुए बारिश में अलग-अलग मैचों में जीतकर फाइनल में अपनी जगह बना लेते हैं।
यह वो दौर था जब भारतीय खिलाड़ी नंगे पैर फुटबॉल खेलने के मशहूर थे और ये खिलाड़ी ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि जूतो की एक जोड़ी की कीमत उस समय किसी टीचर की मंथली सैलरी के बराबर हुआ करती थी।
दो दिन चले सेमीफाइनल में अभिलाष घोष के कारण मोहन बागान की टीम ने बारिश और फिसलन से भरे मैदान के बीच 3-0 से हराया और फाइनल में जगह बनाई।
अब बंगाली लोगों और भारतीय खिलाडियों के लिए यह एक संभावना थी कि वो अंग्रेजों को हरा सकते हैं, 29 जुलाई साल 1911 के दिन मैदान पर लाखों लोगों की भीड़ अपने अपने तरीके से एक ऐतिहासिक क्षण को अनुभव करने के लिए जमा होते हैं, कुछ ग्वाहो की मानें तो उस समय जैसा माहौल किसी मैदान पर आज भी किसी फाइनल के दौरान देखने को मिलना मुश्किल है।

मैच शुरू होता है और आखिरी मिनटों में एक एक की बराबरी पर चल रहे मैच में अभिलाष घोष शानदार तरीके से एक गोल करते हैं और फिर जिस तरह का जश्न अंग्रेजों पर मिली उस जीत के बाद देखने को मिला उस तरह के उदाहरण खेल जगत इतिहास में बहुत कम मिलते हैं।
भारतीय फुटबॉल इतिहास की सबसे बड़ी जीत के बाद देश में फुटबॉल को एक तरह से साइड लाइन कर दिया गया था क्योंकि स्वंतत्रता आंदोलन चर्म पर पहुंच रहा था लेकिन फिर भी साल 1924 में भारतीय टीम ने अपने पहले विदेशी दौरे के रूप में श्रीलंका गई और फिर साल 1937 में आल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन का निर्माण हुआ।
साल 1938 में भारत ने आस्ट्रेलिया का दौरा किया जहां आर लैंस्स्टन ने भारत की तरफ से फुटबॉल में पहली हैट्रिक को अंजाम दिया था।
पराधीन भारत ने फुटबॉल के मैदान पर बहुत से कीर्तिमान स्थापित किए और फिर आजादी के साथ ही देश का फुटबॉल के खेल में स्वर्णिम युग भी शुरू हो गया था।
साल 1948 में हुए लंदन ओलंपिक में भारत ने अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच फ्रांस के खिलाफ खेला जहां भारत की कप्तानी तालिमरीन ने की थी, भारत ने अपने पहले मैच में शानदार प्रदxर्शन किया जिससे प्रभावित होकर टीम को बंकिघम पैलेस में डिनर के लिए इन्वाइट किया गया था।
भारत ने इस ओलम्पिक में अपने मैच नंगे पैरों के साथ खेले थे और जब कप्तान से इस बारे में पुछा गया तो तालिमरीन ने कहा कि भारत में हम बुटबोल नहीं फुटबॉल खेलते हैं।

साल 1950 में होने वाले फुटबॉल विश्वकप के लिए एशिया से तीन टीमें क्वालिफिकेशन के लिए शोर्ट लिस्ट हुई थी जिनमें से भारत को सलेक्ट किया गया था, भारतीय फुटबॉल इतिहास के लिए यह बड़ा मौका था लेकिन भारतीय टीम ने सबको चौंकाते हुए विश्व कप से अपना नाम वापस ले लिया था।
इस निर्णय के पीछे बहुत से कारण थे जिनमें से प्रैक्टिस के लिए टाइम की कमी, विदेशी दौरे पर जाने के लिए आवश्यक पैसों की तंगी और ओलम्पिक को विश्व कप से उपर तरजीह देने जैसे कारण मुख्य थे।
भारतीय फुटबॉल इतिहास में यह पहला और आखिरी मौका रहा जब इस टीम को फीफा ने विश्व कप के लिए बुलाया था।
साल 1951 से 1962 तक के समय को भारतीय फुटबॉल इतिहास का सबसे सुनहरा दौर माना जाता है जिसमें टीम ने महान कोच रहीम की कोचिंग में बहुत से महान खिलाड़ियों की मदद से खुद को सबसे बेहतरीन साबित कर दिया था।
यह वो दौर था जब भारत को एशिया की ब्राजील के रुप में पहचान मिली और यह देश फुटबॉल की दुनिया में एक महाशक्ति बनकर उभरा था।
ओलम्पिक में सेमीफाइनल तक पहुंचने वाली पहली एशियन टीम बनने से लेकर नेवेल डिसूजा की ओलम्पिक हैट्रिक तक भारत ने इस दौर में बहुत सी उपलब्धियां हासिल की और फिर 1962 एशिया कप में साउथ कोरिया को हराकर भारत ने टाइटल अपने नाम किया था।
लेकिन फिर साल 1963 में कोच रहीम के निधन और बहुत से बड़े खिलाड़ियों के संन्यास लेने के कारण भारतीय टीम धीरे धीरे ढलान पर आने लगी थी।
साल 1978 में मोहन बागान की टीम ने आईफए शील्ड टाइटल एक बार फिर अपने नाम किया लेकिन अब जादुई माहौल वो जुनून खत्म हो गया जो एक दौर में हुआ करता था।
साल 1971 में बांग्लादेश युद्ध और इमरेजेंसी जैसी घटनाओं ने भी भारतीय फुटबॉल को ग़लत तौर पर प्रभावित किया था लेकिन साल 1983 में फुटबॉल की लोकप्रियता को भारत में सबसे बड़ा झटका कपिल देव की टीम ने क्रिकेट का विश्वकप जीतकर दिया। यहां से क्रिकेट का खेल भारत में अपने उरूज़ पर पहुंचने लगा था, क्रिकेट को लेकर लोगों में दीवानगी और पागलपन ने फुटबॉल को कहीं ना कहीं दरकिनार कर दिया था।

पैसों की कमी, खराब स्ट्रक्चर और युवाओं का बदलता रुझान भारत में फुटबॉल की फर्श तक पहुंचने की मुख्य वजह बना, 90 के दशक में बाइचुंग भूटिया को भारत के लोगों ने एक सुपरस्टार की हैसियत से स्वीकार किया था।
नई सदी के साथ ही भारत में फुटबॉल को फिर से विकसित करने का प्रयास शुरू हुआ, इस खेल में देश की विरासत को फिर से सबके सामने रखने का काम शुरू हुआ और कुछ बहुत शानदार खिलाड़ी लोगों के सामने आए।
सुनील छेत्री का आगाज और आईएसएल जैसी लीग्स के साथ ही भारत में फुटबॉल को फिर से वो पहचान मिलना शुरू हो गई थी जिसकी इस खेल को जरुरत थी।
सुनील छेत्री ने कई मौकों पर भारत को गौरवान्वित होने का मौका दिया और अब यह देश एक बार फिर विश्व कप क्वालिफिकेशन की दौड़ में शामिल होने के लिए अग्रसर हो रहा है लेकिन अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है।
भारत को अब भी फुटबॉल में अपनी जगह बनाने के लिए एक लंबा सफर तय करना है, इसी उम्मीद के साथ की भारत फिर से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा फुटबॉल में लेकर आयेगा आज बस इतना ही मिलते हैं आपसे में तब तक के लिए नमस्कार।