हरतालिका तीज व्रत कथा | Hartalika Teej Vrat
विविधताओं (Variations) से भरे भारत वर्ष में हर एक त्योहार (Festival) की अपनी एक विशेषता (Speciality) है। वहीं उन त्योहारों पर रखे जाने वाले व्रत (Fast) का भी अपना एक विशेष महत्व है। कभी परिवार (Family) की सुखहाली के लिए तो कभी संतान (Children) के उत्तम (Great) स्वास्थ्य (Health) के लिए, तो कभी मनचाहे वर के लिए तो कभी पति (Husband) की लंबी उम्र (Age) के लिए रखे जाने वाले व्रत इन त्योहारों की पहचान हैं। हर राज्य (State) में विभिन्न (Different) नामों से ऐसे व्रत-संकल्पों से जुड़े त्योहार सनातन धर्म में मनाए जाते हैं और उन्हीं में से एक है हरितालिका तीज। हरितालिका तीज पर निर्जला-निराहार व्रत से लेकर फलाहार तक के व्रत रखने की परंपरा (Legacy) है। विवाहित (Married) स्त्रियां (Women) इस व्रत को पति की लंबी उम्र और खुशहाल जीवन की कामना से रखती हैं तो वहीं अविवाहित (Unmarried) लड़कियां अच्छे वर की प्राप्ति के लिए यह व्रत रखतीं हैं। हरतालिका तीज का व्रत माता पार्वती से जुड़ा हुआ है, जो उन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तप (Tenacity) के रूप में किया था। मान्यता है इस व्रत-पूजन में हरितालिका व्रत कथा अवश्य (Sure) सुननी चाहिए। पुराणों के अनुसार हरतालिका व्रत कथा स्वयं भगवान शिव ने ही मां पार्वती को सुनाई थी। माता पार्वती द्वारा भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तप की कथा जितनी रोचक (Interesting) है, उतनी ही रोचक है उनके पूर्व जन्म में भगवान शिव से हुए उनके पहले विवाह (Marriage) की कथा। आज के पोस्ट में हम हरितालिका व्रत कथा के साथ ही यह भी जानेंगे कि क्यों माता पार्वती को दोबारा भगवान शिव की अर्द्धांगिनी बनने के लिये पुनर्जन्म लेना पड़ा। और अपनी अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार करने से पहले भगवान शिव ने माता पार्वती की कौन सी परीक्षा ली।
नमस्कार दर्शकों….
हरितालिका तीज-
“ॐ गौरीशंकराय नमः”
हरितालिका तीज भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है। इस दिन सुहागिन (Married Women) महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं। उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार व झारखंड आदि कई राज्यों (States) में मनायी जाने वाली हरतालिका तीज हरियाली और कजरी तीज के बाद मनाई जाती है। ज्योतिषियों (Astrologers) के अनुसार (According) इस बार हरतालिका तीज 18 सितंबर (September) को मनाई जाएगी। हालांकि पंचांग के अनुसार भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि 17 सितंबर 2023 को सुबह (Morning) 11.08 मिनट से 18 सितंबर 2023 को 12.39 तक रहेगी। इस दिन प्रदोष काल पूजा के लिए पहला मुहूर्त शाम 06.23 – शाम 06.47 मिनट तक का भी बताया गया है। इसके अलावा जो महिलाएं हरितालिका तीज की सुबह के समय करती हैं, उनके लिए 18 सितंबर 2023 को सुबह 06.07 से सुबह 08.34 तक पूजा का शुभ मुहूर्त बताया गया है। हरतालिका तीज व्रत सूर्योदय (Sun rise) से शुरू होकर 24 घंटे बाद अगले दिन सूर्योदय पर समाप्त (End) होता है। इसलिए स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए ही इस व्रत को निराजल-निराहार या फलाहार के रूप में रखना चाहिए। मान्यता है कि पहली बार इस व्रत को रखते समय महिलाएं जिस रूप में इसे शुरू करतीं हैं, उन्हें उसी रूप में हर वर्ष इसका पालन करना पड़ता है।
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हरितालिका तीज व्रत कथा-
हरितालिका तीज पर सुनाई जाने वाली कथा कि विशेषता (Speciality) यह है कि इस कथा को स्वयं (Self) भगवान शंकर ने माता पार्वती को यह स्मरण कराने हेतु सुनाई थी कि उन्होंने पूर्व जन्म में कितने तप और व्रत के पश्चात् (After) भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाया था। लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार (According) माता पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति (Husband) रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर्वत पर गंगा तट के समीप (Near) बाल्यावस्था (Childhood) में घोर तप किया। वर्षों के इस कठोर तप में उन्होंने अन्न-जल का भी सेवन (Intake) नहीं किया। पुराणों के अनुसार कई वर्षों तक उन्होंने मात्र वायु (Air) ग्रहण कर अपना जीवन (Life) व्यतीत (Spent) किया था। माता पार्वती के इस कठिन तप और दशा (Condition) देखकर उनके पिता अत्यंत (Extremely) दुखी थे। देखते ही देखते यह चर्चा चारो ओर फैल गयी, तभी एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव (Proposal) लेकर उनके पिता के पास पहुँच गये और कहा कि ‘मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। वह आपकी कन्या (Daughter) पार्वती से विवाह (Marriage) करना चाहते हैं। नारदजी की बात सुनकर माता पार्वती के पिता बोले कि ‘यदि भगवान विष्णु यह चाहते हैं तो भला मुझे कोई आपत्ति (Objection) कैसे हो सकती है। यह तो मेरा सौभाग्य होगा।’
नारद जी द्वारा लाए भगवान विष्णु के प्रस्ताव को उन्होंने तो सहर्ष स्वीकार कर लिया परन्तु विवाह की यह बात जैसे ही पार्वती जी के कानों तक पहुँची, उनके दुःख की कोई सीमा न रही, और वे जोर-जोर से विलाप (Lamentation) करने लगी। पार्वती जी को विलाप करता देख जब उनकी एक सखी (Friend) ने इसका कारण (Reason) पूछा तो उन्होंने बताया कि “मैं तो यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति (Husband) रूप में प्राप्त (Get) करने के लिए कर रही हूँ जबकि मेरे पिता मेरा विवाह (Married) भगवान विष्णु से कराना चाहते हैं। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय (remedy) नहीं बचा है।” इस पर उनकी सखी ने कहा, “प्राण त्यागने की भला क्या आवश्यकता (Need) है? मैं तुम्हें एक घनघोर वन (Dense) में ले चलती हूँ जो साधना स्थली भी है और वहाँ तुम्हारे पिताजी भी तुम्हें कभी नहीं ढूँढ़ पाएंगे।” अपनी सखी की सलाह (Advice) पर माता पार्वती घने वन (Forest) में चली गईं और वहाँ स्थित एक गुफा (Cave) में जाकर भगवान शिव की आराधना (Worships) में लीन हो गई। पुराणों के अनुसार भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन, हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण (Construction) किया और शिव जी की स्तुति में लीन होकर पूरी रात्रि (Night) जाग कर आराधना की। माता पार्वती के इस कठोर तपस्या (PENANCE) से प्रसन्न (Happy) होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए। अपने आराध्य को अपने सम्मुख खड़ा माता पार्वती का जन्म सफल हो गया , उन्होंने कहा ‘हे स्वामी! मैं आपको सच्चे मन से अपना पति (Huband) मान चुकी हूँ। यदि आप वास्तव में मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी (Wife) के रूप में स्वीकार कर लीजिए।” माता पार्वती के इस विनय को सुन भगवान शिव ने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। मान्यता है कि जिस दिन भगवान शिव ने माता पार्वती को पत्नी (Wife) रूप में स्वीकार (Accept) किया था उस दिन भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि ही थी। इसीलिए हर वर्ष इसी तिथि को हरितालिका तीज का व्रत रखा जाता है।
पूर्व जन्म में भगवान शिव से विवाह-
विभिन्न (Different) पुराणों में यह बताया गया है कि माता सती भगवान शिव की पहली पत्नी हैं, जो कि प्रजापति दक्ष महाराज की पुत्री (Daughter) थीं। राजा दक्ष ने अपनी घोर तपस्या से देवी भगवती को प्रसन्न किया था जिसके बाद माता भगवती ने ही सती के रूप में उनके घर में जन्म (Birth) लिया था। देवी भगवती का रूप होने के कारण सती राजा दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक (Divine) थीं और उन्हें सबसे प्रिय भी थीं। बाल्यकाल से ही भगवान शिव की भक्ति में लीन रहने वाली सती ने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने के लिए सच्चे मन से कई वर्षों तक उनकी आराधना की थी, जिसके फलस्वरूप (As a Result) उन्हें भगवान शिव पति के रूप में प्राप्त भी हुए।
हालांकि राजा दक्ष भगवान शिव को अपनी बेटी के लिए एक योग्य (Correct) वर नहीं मानते थे इसलिए माता सती ने उनकी इच्छा के विरुद्ध (Against) भगवान शिव से विवाह (Marriage) कर लिया था।
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राजा दक्ष को भगवान शिव तनिक भी नहीं सुहाते थे, सती के इस निर्णय (Decision) से वे इतने क्रोधित (Angry) हुए कि उन्होंने भगवान शिव को अपमानित (Insulted) करने तक का निर्णय (Decide) कर लिया। उन्होंने इस अपमान के लिए एक यज्ञ का आवाहन (Appeal) किया जिसमें सभी देवताओं, ऋषियों-महर्षियों को आमंत्रित (Invite) किया लेकिन देवो सती तथा भगवान शिव को आमंत्रण नहीं भेजा। इधर माता सती को पिता द्वारा यज्ञ आयोजन (Events) की बात का जैसे ही पता चला वे भगवान शिव से उस यज्ञ में शामिल (Involved) होने के लिए निवेदन करने लगीं। शिव जी ने उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण के किसी भी आयोजन में जाना उचित (Appropriate) नहीं होता। यह कहकर वे ध्यान (Attention) में लीन (Lean) हो गये। देवी सती ने सोचा कि अपने पिता (Father) के घर जाने में कैसा संकोच (Hesitation)? वे भगवान शिव की बात न मानकर अपने पिता (Father) के घर जा पहुँचीं, जहाँ सभी देवी, देवता, ऋषि, मुनि, गंधर्व आदि उपस्थित थे। देवी सती को यह सब देख बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने पिता से इस यज्ञ आयोजन में भगवान शिव तथा स्वयं को न आमंत्रित करने का कारण पूछा (Ask) तो राजा दक्ष सबके समक्ष अपने कटु (Bitter) वचनों से शिवजी के लिए अपमानित शब्दों का प्रयोग (Use) करने लगे। सबके समक्ष इस प्रकार हुए अपने पति (Husband) के अपमान से आहत होकर सती ने यज्ञ के हवन कुंड की अग्नि में आत्मदाह (Self Immosation) कर लिया।
उधर ध्यान मुद्रा में लीन भगवान शिव सती के आत्मदाह करने से अत्यंत (Extremely) क्रोधित हो उठे और राजा दक्ष के घमंड (Pride) को चूर करने का निश्चय कर लिया। भगवान शिव के क्रोध का बाँध टूट गया और उस क्रोध से काल भैरव की उत्पत्ति हुई। उन्होंने उसी क्षण काल भैरव से उस यज्ञ आयोजन में जाकर प्रतिशोध (The Revenge) लेने को कहा। काल भैरव का रौद्र रूप देखते ही यज्ञ स्थल (Place) पर उपस्थित सभी देवी-देवता, ऋषि भयभीत (Fightent) हो उठे। क्रोधित काल भैरव ने राजा दक्ष का सिर (Head) धड़ (Troso) से अलग कर दिया। कुछ ही क्षणों में भगवान शिव भी वहाँ पहुँच गये और सती के पार्थिक शरीर को देखकर उनके दुख और क्रोध की कोई सीमा न रही, वे देवी सती के पार्थिक शरीर को उठाकर पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने लगे जिससे वातावरण प्रलय का रूप लेने लग। शिवजी की इस क्रिया पर विराम (Stop) लगाना अति आवश्यक (Important) था अन्यथा तीनों लोकों का विनाश सुनिश्चित था। ऐसे में भगवान विष्णु ने इस परिस्थिति (Situation) से बचाव हेतु अपने चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़े (Pieces) कर दिए। मान्यता है कि सती के अंग (Organ) पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरे, उन सभी स्थानों पर शक्तिपीठ बन गए। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, काल भैरव उन सभी शक्तिपीठों की रक्षा करते हैं। इसीलिए यहाँ पर की जानेवाली पूजा तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती है जब तक कि अंत में कालभैरव की पूजा न की जाए।
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इधर माता सती ने अपना शरीर का त्याग (Sacrifice) करते समय यह संकल्प किया कि वे राजा हिमालय के यहाँ पुनर्जन्म (Rebirth) लेकर भगवान शिव की अर्धांगिनी बनेंगी। दूसरी ओर भगवान शिव भी अपनी अर्द्धांगिनी देवो सती को सदैव स्मरण (Remembrance) करते रहते थे। कालांतर में माता सती ने पर्वतराज हिमालय की पत्नी मेनका के गर्भ से जन्म लिया। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण ही उन्हें ‘पार्वती’ कहा गया। माता पार्वती, भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए वन में तपस्या करने चली गईं। अनेक वर्षों (Years) तक कठोर उपवास और घोर तपस्या के बाद भगवान शिव ने उन्हें अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया।
मान्यता है कि भगवान शिव को पति रुप में पाने के लिए माता पार्वती ने 108 बार जन्म (Birth) लिया था, और जब पर्वतराज हिमालय की पुत्री (Daughter) के रूप में उनका जन्म हुआ तब नारद जी ने उन्हें पूर्व जन्म में भगवान शिव और उनके संबंध (Relation) का स्मरण कराया था जिसके पश्चात् (After) ही माता पार्वती ने शिव जी को पाने हेतु घोर तपस्या प्रारंभ (START) की थी। हालांकि किशोरावस्थामें ही भगवान शिव के रंग में रंगी पार्वती जी को इस तपस्या में कई परीक्षाएं भी देनी पडी थीं।
देनी पड़ी कठिन परीक्षाएं-
जब देवी पार्वती ने कई वर्षों तक बिना अन्न जल ग्रहण किए कठोर तपस्या में लीन थीं तो इसकी चर्चा तीनों लोकों तक पहुँच चुकी थी। ऐसे में भगवान शिव ने सप्तऋषियों को माता पार्वती को समझाने (Explain) हेतु भी भेजा, परन्तु उनके दृढ़ (Strong) निश्चय (Determination) के सामने किसी की एक न चली। उन्होंने देवी पार्वती के पास जाकर यह समझाने का प्रयास (Attempt) किया कि शिव जी औघड़, अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं और वे तुम्हारे लिए उपयुक्त वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह करके तुम कभी सुखी नहीं रह सकती। परन्तु माता पार्वती के विचार (Think) तनिक भी टस से मस न हुए। उनकी दृढ़ता (Perseverance) को देखकर सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर शिव जी के पास लौट आए। इसके पश्चात् भगवान शिव स्वयं वटूवेश धारण (Holding) कर देवी पार्वती के समक्ष जा पहुँचे और उन्हें समझाने की कोशिश करने लगे कि एक राजकुमारी होकर भला कैसे वो शिव जी साथ रह सकती हैं। भगवान शिव तो कैलाश में वास करते थे उनके पास तो ना कोई महल है और न ही कोई भूमि। पार्वती जी की दृढ़ता तब भी तटस्थ रही और वे अपनी तपस्या में लीन रहीं। माता पार्वती के तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव जी उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए।
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हालांकि इसके उपरांत भी भगवान शिव ने माता पार्वती की एक अंतिम परीक्षा (Exam) ली थी जिसका वर्णन भी कई पुराणों में किया गया है। माता पार्वती को वरदान देने के कुछ ही क्षणों बाद एक घटना घटी। जिस स्थान पर माता पार्वती तप कर रहीं थी उसी के समीप (Near) एक मगरमच्छ ने एक बालक को पकड़ लिया और बालक अपनी सहायता (Help) हेतु पुकारने (Call) लगा। बालक की पुकार सुनकर देवी पार्वती से रहा नहीं गया और वे दौड़ी-दौड़ी नदी के तट पर जा पहुँचीं। उस बालक ने माता पार्वती को देखकर कहा कि ‘मेरा इस संसार (World) में कोई नहीं है माता, आप ही मेरी रक्षा करें।’ पार्वती जी ने मगरमच्छ से विनती (Request) करते उए कहा कि वह इस बालक को छोड़ दे। इस पर मगरमच्छ ने कहा कि “हे देवी! दिन के छठे पहर जो भी मुझे मिलता है उसे ही आहार बनाना मेरा नियम (Rule) है। इसलिए मैं इसे नहीं छोड़ सकता।” परन्तु पार्वती जी के बार-बार विनती करने पर उस मगरमच्छ ने कहा, “ठीक है देवी! बालक को तो मैं छोड़ दूँगा, परन्तु जो आपको अपने तप से वरदान का पुण्य फल प्राप्त (Get) हुआ है, वह इसके प्राण के बदले में मुझे देना होगा।” माता पार्वती का मन तो बालक के प्रति पहले से ही करुणा से भर चुका था इसलिए उन्होंने तनिक भी देरी न करते हुए मगरमच्छ की बात को स्वीकार कर लिया। जिसके फलस्वरूप मगरमच्छ ने बालक को छोड़ दिया और वहाँ से चला गया।
अपने तप के वरदान में मिला पुण्य फल दान करने के पश्चात् माता पार्वती भगवान शिव का आवाहन करने हेतु पुनः तप करने बैठ गईं। भगवान शिव पुनः प्रकट (Reveled) हुए और माता पार्वती से पूछा कि, “हे देवी! तुम अब क्यों तप कर रही हो, मैंने तो पहले ही तुम्हें वरदान दे दिया है।” इस पर देवी पार्वती ने पूरी घटना सुनाते हुए अपने तप से प्राप्त पुण्य फल के दान करने की बात बतायी। पुरी बात सुनकर शिवजी के मुख पर मुस्कान आ गयी और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, “हे देवी! उस मगरमच्छ और बालक दोनों के स्वरूप (Form) में मैं ही था। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम्हारा चित्त प्राणिमात्र में अपने सुख-दुख का अनुभव करता है या नहीं। तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह लीला रचाई थी।”
इस कठिन परीक्षा के फलस्वरूप भगवान शिव माता पार्वती के तप और निःस्वार्थ प्रेम अत्यंत प्रसन्न हुए और अपनी अर्द्धांगिनी के रूप में उन्हें स्वीकार कर लिया।
हमें आशा (Hope) है कि हरितालिका तीज व भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के प्रसंगों पर आधारित नारद टीवी का यह पोस्ट आपको अवश्य पसंद आया होगा। पोस्ट के बारे में अपनी राय हमें कमेंट्स के माध्यम से अवश्य बतायें।
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