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Dark Side Of Kota : Truth About IIT JEE in Kota

कोटा – सपनों (Dream) का शहर | एक ऐसा शहर (City) जिसकी हर गली में सपने (Dream) पलते हैं | एक ऐसा शहर जिसके सीने में अरमान (Desires) धडकते हैं | एक ऐसा शहर जिसमें ख्वाहिशें झूमती हैं | यहाँ के छोटे छोटे कमरों (Rooms) में पलते हैं आसमान चूमते सपने | लेकिन इसी शहर की इन्ही गलियों का एक दूसरा रूप भी है | इन्ही गलियों में तमाम सपने दम तोड़ते हैं | अनगिनत (Countless) अरमान खाक होते हैं और कितनों की ख्वाहिशें दम तोडती हैं | यहाँ जिन्दगी की डोर हाथ से छूटती है और तमाम परिवार (Family) बिखरते हैं | जो अपने घर से यहाँ जिन्दगी (Life) बनाने सवांरने के लिए निकला था वो मौत (Death) के आगोश में आखिर क्यों समा जाता है | कुछ तो वजहें होती होंगी वरना कोई अपने सपनों (Dreams) को भला यूँ जलाता है | ये वो सवाल (Question) है जो आज बच्चों, अभिभावकों, समाज, शासन, प्रशासन (Administration) हर किसी को परेशान कर रहा है | ज्यादा चिंता (Worry) की बात ये है कि सवाल तो सबके जेहन में है लेकिन जवाब (Answer) किसी के पास नहीं | पिछले महीने कोटा (Kota) में दो छात्रों (Students) ने अपनी जीवनलीला समाप्त (End) कर ली | उसके बाद से ही ये मुद्दा फिर से गर्म है | आज के इस पोस्ट में हम जानने समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर क्या वजहें हो सकती हैं जिसके चलते कोई इतना मजबूर (Complected) हो जाता है कि वो न केवल अपनी जिन्दगी खत्म कर लेता है बल्कि उससे जुडी तमाम और जिंदगियों को हमेशा हमेशा के लिए अँधेरे में कर जाता है |

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आठ महीने (Months) 24 मौतें | ये वो आंकड़ा (Figure) है जिसे सुनकर हमारे काम सुन्न पड़ जायेंगे हमारा दिमाग बैठ जायेगा और दिल दहल जायेगा | कोटा पुलिस के मुताबिक साल 2015 में 17, 2016 में 16, 2017 में सात. 2018 में 20, 2019 में 8 बच्चों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया | इसके बाद के साल 2020 में सिर्फ एक और 2021 में एक भी बच्चे ने ऐसा नहीं किया | कारण (Reason) – कोरोना के चलते सारे कोचिंग (Coaching) इंस्टिट्यूट (Institute) बंद थे | और जब खुले तो परिणाम (Result) सबके सामने है | क्या ह सकती हैं इसकी वजहें? आइये समझने की कोशिश करते हैं |

सबसे पहले बात छात्र (Students) की | जब एक छात्र या छात्रा पहली बार कोटा (Kota) में कदम रखता है तो उसके साथ होते हैं दो चार भारी भरकम बैग (Bag) | जिसमें उसके कपड़े (Cloths), उसकी किताबें (Book) और जरूरत का तमाम सामान होता है | लेकिन उसके साथ कुछ और भी होता है जो उसे या समाज को नंगी आँखों से कतई दिखाई नहीं देगा | ये वो वजन होता है जो उसके कंधे (Soulder) पर लदे किसी भी बैग यहाँ तक की दुनिया (World) के किसी भी वजन से ज्यादा भारी होता है | और वो वजन है उस पर लदा अपेक्षाओं (Expectations) का बोझ | अपेक्षा उसके माता पिता की, अपेक्षा इस समाज (Society) की, अपेक्षा उसकी खुद की | उसकी खुद की अपेक्षाओं से भी कहीं ज्यादा भारी पड़ती हैं उसके माँ बाप और समाज की अपेक्षाएं | जब उसके माँ (Mother) बाप उसे सपने (Dream) पूरा कराने का दावा करने वाले किसी कोचिंग (Coaching) इंस्टिट्यूट में दाखिला कराकर किसी हॉस्टल (Hostel) में भर्ती कराकर वापस घर (House) के लिए निकलते हैं तो उनकी आँखें अपने बच्चे से यही कह रही होती हैं कि बेटा कामयाब (Successful) होकर हो लौटना | असल में ये कामयाबी उस बच्चे की अकेली की न होकर उसके माँ बाप की भी होगी | माँ बाप अपने बच्चे को सिर्फ उसके सपने (Dream) पूरे करने के लिए कोटा नहीं भेजते बल्कि इससे जुडी होती हैं उनके खुद के सपने | ज्यादातर केसेस (Cases) में माँ बाप अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए अपने बच्चे को वहां भेजते हैं | अब सोचिये महज सोलह सत्रह साल के उस बच्चे की मनोदशा (Mood) क्या होगी | उसके दिमाग को समझने की कोशिश कीजिये | क्या उसे नहीं लगता होगा कि उसे हर हाल में कामयाब (Successful) होना ही होगा | नाकामयाब होने का विकल्प (Option) ही नहीं है |

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उस बच्चे के ऊपर कामयाब होने का जूनून (Obsessions) सवार हो जाता है | वो दिन रात एक कर देता है | कोचिंग, पढाई, किताबें, वीकली टेस्ट, मंथली टेस्ट, यूनिट टेस्ट, फलना टेस्ट, ठिमका टेस्ट (Test) उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं | कब यही सब उसकी दुनिया (Word) बन जाती है उसे पता ही चलता | वो एक रेस (Race) का हिस्सा (Part) बन जाता है | पहले पहल तो उस रेस में आगे निकलने और बने रहने की जीतोड़ कोशिश करता है लेकिन प्रकृति (Nature) का ये नियम (Rule) है कि हर बच्चा अलग होता है और हर एक की अपनी अलग क्षमता होती है | कई बार कुछ बच्चे सपनों (Dream) की रेस (Race) में पीछे छूटने लगते हैं | उन्हें लगने लगता है कि वो इस दौड़ से बाहर हो जायेंगे | और फिर उनके अंदर सवालों (Questions) के ज्वालामुखी उठते लगते हैं | सवाल जो उनके दिलो दिमाग पर हावी हो जाते हैं—

क्या हुआ अगर वो फेल (Fail) हो गया तो?

अपने माँ बाप को क्या मुँह दिखायेगा?

उसके दोस्त, आस पड़ोस के लोग, उसके नाते रिश्तेदार (Relatives) और ये समाज क्या कहेगा?

और यही धधकते सवाल उनको एक जवाब (Answer) की तरफ ले जाता है | एक ऐसा जवाब जो सिहरन पैदा कर दे | एक ऐसा जवाब जो रूह को अंदर तक कंपा दे | एक जवाब जो उसे जिन्दगी (Life) से मौत की ओर ले जाये | एक जवाब जो इन सवालों को सिरे से मिटा दे | न वो रहेगा न इन सवालों के जवाब देने की नौबत आयेगी |

अविष्कार भी अपने और अपने माँ बाप के सपने पूरे करने के लिए कोटा (Kota) आया था | महज सोलह साल का ही तो था | और छह महीने पहले ही उसने महाराष्ट्र (Maharashtra) से कोटा की धरती पे कदम रखा था | पेशे से टीचर (Teacher) माँ बाप एक दम निश्चिंत थे कि बेटा डॉक्टर (Doctor) बनकर समाज में सबका नाम रोशन करेगा | रविवार (Sunday) का दिन था | कोटा एक ऐसा शहर है जो हफ्ते के सातों दिन चलता है | यहाँ छुट्टी (Leave) का कोई दिन नहीं होता | दुनिया के लिए भले संडे (Sunday) छुट्टी का दिन होता हो लेकिन कोटा में संडे यानी टेस्ट (Test) डे | अविष्कार भी हर संडे की तरह उस संडे भी टेस्ट (Test) देने के लिए कोचिंग (Coaching)  पहुंचा | उसने बकायदे टेस्ट दिया रूम (Room) से बाहर निकला | लेकिन वो नीचे नहीं गया बजाय इसके वो बिल्डिंग (Building) के छठे माले पर पहुंचा और वहां से उसने अपने जीवन की आखिरी (Last) छलांग लगा दी | अविष्कार जिसे छलांग लगानी थी जीवन में आगे बढ़ने की, अपने और माँ बाप के अरमान (Desires) पूरे करने की, कैरियर (Career) में बहुत ऊपर तक जाने की आखिर वो ये आखिरी छलांग क्यों लगा बैठा? आखिर क्यों साल (Year) दर साल लगातार ऐसे केसेस (Cases) सामने आ रहे हैं | पहले भी कितने अविष्कार यूँ ही काल के गाल में समाये हैं और न जाने अभी कितने अविष्कार समाने वाले हैं |

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अब बात करते हैं माँ बाप और समाज (Society) की | हर माँ बाप चाहता है कि उसके बच्चे बड़े होकर कुछ बड़ा करें | अच्छा कैरियर (Career) हो | सारी सुख सुविधाएँ हों | इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार (Ready) रहते हैं | बच्चों को बचपन से ही सिखाया बताया जाता है कि उन्हें डॉक्टर (Doctor) बनना है, इंजीनियर (Engineer) बनना है, आईएएस (IAS) बनना है, पीसीएस (PCS) बनना है | असल में यहीं से बच्चों के अंदर अपेक्षाओं के बीज बोना शुरू कर दिया जाता है | आज समाज बेहद प्रतिस्पर्धात्मक (Competitive) हो गया है | कम्पटीशन (Competition)  सिर्फ स्कूल कोचिंग की क्लासेज (Classes) में ही नहीं होता बल्कि समाज (Society) में भी एक कम्पटीशन होता है | एक होड़ होती है एक दौड़ होती है जिसमें सबको सबसे आगे रहना है | यहाँ फैसले अपनी इच्छानुसार या बच्चों के टैलेंट (Talent) के आधार पर नहीं बल्कि समाज के अनुसार होते हैं | फलां पडोसी का बच्चा कोटा गया है तो हमें भी अपने बच्चों को कोटा ही भेजना है | मतलब हम किसी से कम हैं क्या | फिर समाज में ताल ठोंक के पूरे गर्व से बताया जाता है कि हमारा बेटा या बेटी भी कोटा में कोचिंग (Coaching) कर रही है | यकीन मानिये बच्चों को कोटा भेजना अब समाज में एक स्टैट्स (Status) सिंबल बन चुका है | हाल ये है कि जिसके बच्चे कोटा में कोचिंग (Coaching) न कर रहे हों उसे समाज में अजीब नजरों से देखा जाता है |

माँ बाप के साथ समस्या (Problem) ये है कि जब वो अपने बच्चों को कोटा (Kota) छोड़ने जाते हैं तो वो ये नसीहतें तो खूब देते हैं कि बेटा खूब मन लगाकर पढ़ना डॉक्टर (Doctor), इंजीनियर (Engineer) बन के ही लौटना लेकिन वो ये बताना भूल जाते हैं कि अगर कामयाब (Success) न हो सके तो क्या करना | यही वो बात है जो हर माँ बाप को अपने बच्चों को जरूर बतानी चाहिए | उन्हें बताना चाहिए कि अगर फेल (Fail) हो गये तो क्या हुआ कोशिश तो की, फेल हो गये तो क्या हुआ हम तो हैं, फेल हो गये तो क्या हुआ अपना घर (Home) तो है, फेल हो गये तो क्या तुम्हारे आँसू छुपाने के लिए माँ (Mother) की गोद और हौसला (Courage) बढ़ाने के लिए बाप का कंधा तो है | यकीन मानिये जिस दिन हर माँ बाप अपने बच्चों में ये विश्वास (Trust) पैदा कर देंगे कोटा में बच्चों का बिल्डिंग (Building) से छलांगें लगाना, पंखों से लटकना बंद हो जायेगा | जीवन के किसी मोड़ पर या एक इम्तिहान (Examination) में असफल (Fail) होने का मतलब जीवन में असफल होना बिलकुल नहीं है | जीवन में और तमाम मोड़ आएंगे और और तमाम इम्तिहान (Exam) भी होंगे क्या पता कौन सा मोड़ या कौन सा इम्तिहान हमें सफलता (Success) की सीढियों पर पहुंचा दे |

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आइये अब बात कर लेते हैं इस देश के एजुकेशन (Education) सिस्टम की | आजकल देश में नई शिक्षा नीति की खूब चर्चा है | बताया जा रहा है कि देश में छात्रों पर पढाई के बोझ को किस हद तक कम करने पर काम (work) किया जा रहा है | बात करते हैं वर्तमान (Present) की | आज शिक्षा की हालत ये है कि नम्बर (Number) रेवड़ियों की तरह बांटे जा रहे हैं | परीक्षायें तो बस नाम के लिए हो रही हैं | सही मायनों में ये परीक्षा छात्रों की न होकर उन शिक्षकों की ज्यादा है जिन्हें हर हाल में छात्रों (Students) को पास करना ही है | भले ही छात्र ने आंसर (Answer) शीट (Sheet) में कुछ लिखा हो या नहीं | अगर ये कहा जाये कि आज कोई छात्र चाहकर भी फेल नहीं हो सकता तो गलत नहीं होगा | क्योंकि नम्बर तो देने ही हैं भले ही आंसर शीत कोरी हो | एक दौर था जब फर्स्ट (Frist) डिविजन (Division) लाना बहुत गर्व (Proud) की बात हुआ करती थी | समाज (Society) में उसका अलग ही रुतबा हुआ करता था | अच्छे नम्बरों से पास सेकंड (Second) डिविजन लाने वाला भी खुद को गुड सेकंड डिविजन कहता था | थर्ड डिविजन लाने वाला भी खुद को भाग्यशाली (Lucky)  मानता था कि कम से कम फेल (Fail) तो नहीं हुआ | लेकिन आज ये हालत हो गई है कि फर्स्ट डिविजन की कोई वैल्यू (Value) तब तक नहीं है जब तक नम्बर 80 परसेंट से ऊपर न हों | आज हर कोई पास (Pass) हो रहा है वो भी बहुत अच्छे नम्बरों से | हो सकता है हम ज्यादा कह रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि रिजल्ट (Result) आने पर एक बार को तो खुद छात्र (Students) भी हैरान जरूर होता होगा क्योंकि उसे उतने नम्बर मिले होते हैं जितने लायक पेपर (Paper) उसने किया ही नहीं |

सारी समस्या (Problem) की जड़ यही है | 10+2 तक परीक्षाओं (Exam) में मिल रहे नम्बर किसी की योग्यता (Ability) का पैमाना नहीं बल्कि हमारी शिक्षा (Education) व्यवस्था का खोखलापन दिवालियापन (Bankruptcy) ही उजागर करते हैं | जब किसी छात्र (Students) को उसकी क्षमता (Capacity) से ज्यादा नम्बर (Number) मिलते हैं तो उसे बहुत बड़ी गलतफहमी (Misunderstanding) हो जाती है | एक ऐसी गलतफहमी जो उसके कैरियर (Career) और जीवन (Life) पर भारी बहुत भारी पड़ने जा रही होती है | उस छात्र को गलतफहमी होती है अपनी योग्यता (Ability) को लेकर | बात तब गंभीर (Sevege) हो जाती है जब ऐसी ही गलतफहमी उसके माँ बाप को भी हो जाती है | दोनों को ही लगता है कि बच्चा बहुत टैलेंटेड (Talented) है और यही गलतफहमी उन्हें कैरियर के चयन (Choose) में गलत दिशा (Direction) की ओर ले जाती है |

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एक बार फिर से थोड़ा पीछे लौटते हैं | जब एग्जाम (Exam) का मतलब एग्जाम हुआ करता था | और जैसा और जितना लिखा है वैसे और उतने ही नम्बर (Number) भी मिला करते थे | तब आगे भविष्य (Future) में क्या करना है? किस फील्ड (Field) में अपना कैरियर बनाना है ये सब परसेंटेज (Percentage) पर डिपेंड (Depend) करता था | और कहना गलत नहीं होगा कि काफी हद तक वो निर्णय (Decision) सही साबित हुआ करता था | आजकल हर हर कोई अपने बच्चे को डॉक्टर (Doctor) इंजिनियर ही बनना बनाना चाह रहा है तो उसमें गलती छात्र या अभिभावकों की नहीं बल्कि उस गलतफहमी (Misunderstanding) की है जो हमारे नम्बर (Number) सिस्टम ने पैदा की है | ऐसे में छात्र कैरियर (Career) के विकल्प (Option) के रूप में उसे चुन (Choose) लेते हैं जिसके लिए असल में वो योग्य हैं ही नहीं | वो भूल जाता है कि अब वो उस मैदान (Field)  में उतर चुका है जहाँ आगे नम्बर (Number) के रूप में रेवड़ियाँ नहीं बनतीं | अगर नम्बर बाँटना (Deliver) ही शिक्षा व्यवस्था का मकसद (Motive) है तो जरूरत है ऐसी व्यवस्था (Arrangement) में आमूल चूल परिवर्तन (Change) लाने की जहाँ नम्बर रेवड़ियों की तरह बांटे नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर दिए जाते हों |

एक और बात तो बहुत जरूरी (Necessary) है | कभी आपने सोचा है कि IIT ज़ी, एडवांस (Advance) और नीट (Neet) जैसे पेपर (Paper) का स्टैण्डर्ड (Standard) भला कौन तय करता है? भले ही किसी ने मास्टर (Master) डिग्री (degree) ले रही हो पीएचडी (PHD) कर रखी हो लेकिन जब ये पेपर (Paper) उसके सामने रखे जायेंगे तो अच्छे अच्छों के दिमाग ठंडे पड़ जायेंगे | चीजें सिर के ऊपर से निकलेंगी | कहने को भले पेपर में 12th स्टैण्डर्ड के सवाल (Question) पूछे जाते हों लेकिन इससे शायद ही कोई असहमत (Disagree) होगा कि हकीकत इससे एकदम जुदा है | हम अदभुत प्रतिभा वालों की बात नहीं कर रहे लेकिन पढने में ठीक ठाक छात्र (Student) भी बिना कोचिंग (Coaching) किये ऐसे सवालों (Questions) को टस से मस भी नहीं कर सकता | आखिर इतना कठिन (Hard) प्रश्न पत्र (Letter) बनाने का क्या औचित्य (Prosperity) क्या हो सकता है | क्या योग्यता जांचने के लिए कठिन (Har) प्रश्न ही एकमात्र पैमाना है? क्या थोड़ा सरल और 12th स्टैण्डर्ड (Standard) के प्रश्नों को शामिल करके योग्यता नहीं जांची जा सकती? देखा जाये तो इसके तमाम फायदे (Advantages) हैं | इससे न केवल छात्रों पर दबाव (Pressure) कम होगा बल्कि साल दर साल कुकुरमुत्तों की तरह उगे जा रहे कोचिंग संस्थानों (Institution) पर भी लगाम लग सकेगी | जरूरत है इन एग्जाम का पैटर्न (Pattern) और सिलेबस (Syllabus) तय करने वाले जिम्मेदारों (Responsibility) को इस पहलू पर विचार (Thought) करने की |

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देश में कोचिंग (Coaching) सिस्टम (System) ने बहुत गहरे तक अपनी जड़ें जमा ली हैं | आज कोई छात्र (Student) बिना कोचिंग के डॉक्टर इंजीनियर बनने की सोच भी नहीं सकता | कोचिंग अब एक बिजनेस (Business) बन चुका है | जिन्हें मतलब होता है पढाई के बदले वसूली जाने वाली मोटी फीस (Fees) से | ऐसा नहीं है कि वहां पढाई नहीं होती | पढाई जरूर होती है लेकिन जरूरत से ज्यादा | पढाई तो इस कदर होती है कि छात्रों के पास स्कूल (School) तक जाने का समय नहीं होता | हफ्ते (Weeks) में सात दिन और सातों दिन कोचिंग (Coaching) | हर हफ्ते या दो हफ्ते में टेस्ट (Test) | सोचिये उन पर कितना दबाव होता होगा परफॉर्म (Perform) करने का | वो सोते, जागते, उठते बैठते, चलते फिरते चौबीसों घंटे हर पल हर सेकंड बस एक ही चीज सोचता रहता है – पढाई पढाई और सिर्फ पढाई | क्या ये दबाव की अति नहीं है |

असलियत ये है कि इन कोचिंग (Coaching) संस्थानों (Institutes) ने हमारे एजुकेशन (Education) सिस्टम को अपंग बना दिया है | ये पढाई की बजाय दबाव पैदा करने की मशीन (Machine) बनते जा रहे हैं | उन्होंने पूरे सिस्टम (System) का मजाक बना के रख दिया है | हो सकता है आपको हमारी बातें गलत लग रही हों लेकिन आप हमारी बातों पर गौर (Notice) करियेगा आपको हर बात सही लगेगी | इन कोचिंग (Coaching) में दाखिला लेने के बाद छात्र को पढाई के लिए किसी स्कूल (School) या कॉलेज (Collage) जाने की जरूरत नहीं रह जाती | बस फीस (Fees) भरते रहिये और फिर सीधे पेपर (Paper) देने जाइये | फीस भरने के साथ ही क्लास अटेंड (Attend)  करने की जरूरत समाप्त (Finish) हो जाती है | कोटा में कितने स्कूल (School) कॉलेज (Collage) सिर्फ इन्ही कोचिंग इंस्टिट्यूट (Institute) के दम पर ही चल रहे हैं | हैरत की बात तो ये है कि सीबीएसई (Cbse) ने एग्जाम (Exam) में बैठने के लिए न्यूनतम अटेंडेंस का बेहद सख्त (Hard) नियम भी बना रखा है | अगर न्यूनतम अटेंडेंस (Attendance) का मानक पूरा नहीं हुआ तो छात्र को एग्जाम (Exam) देने से रोके जाने का भी प्रावधान है लेकिन कोटा में ये नियम (Rule) लागू (Applicable) नहीं होता | अब अगर छात्र (Students) स्कूल चला गया तो भला कोचिंग में कौन पढ़ेगा और नहीं पढ़ेगा तो तैयारी में पिछड़ जायेगा | अब तो कोचिंग संस्थानों (Institution) ने क्लास 6 से ही फाउंडेशन (Foundation) कोर्स करने शुरू कर दिए हैं | यानी कक्षा छह में पहुँचते ही IIT और नीट की तैयारी शुरू | और इसी के स्कूल (School) जाना भी बंद | ज्यादा गम्भीर बात ये है कि जो बच्चा कक्षा छह से ही तैयारी शुरू कर देगा अगर आखिर में उसका सिलेक्शन (Relation) नहीं हो पायेगा तो उसकी मनोदशा क्या होगी? क्या वो टूटकर बिखर नहीं जायेगा | जिसे पाने के लिए छह सात साल तप किया जाये वही न मिले तो दुःख होना स्वाभाविक है | क्या कोचिंग में इन हालातों का सामना करने की भी तैयारी करवाई जा रही है | जिस तरह से इन परीक्षाओं में एटेम्पट (Attempt) की संख्या निर्धारित (Determined) है उसी तरह तैयारी की न्यूनतम उम्र और कक्षा निर्धारित नहीं होनी चाहिए?

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एक ही दिन में दो दो जिंदगियां ख़त्म हो जाने के बाद देश में चर्चाओं का दौर (Round) चल निकला है | शासन स्तर पर तमाम मीटिंग्स (Meeting) हो रही हैं | तमाम उपाय सुझाये जा रहे हैं | हफ्ते में एक दिन छुट्टी और एक दिन फन (Fun) डे जैसी बातें भी हो रही हैं | स्प्रिंग (Spring) फैन की बातें हो रही हैं | दो महीने तक टेस्ट (Test) लेने पर भी रोक लगा दी गई है लेकिन सवाल (question) ये है कि ये सब अब क्यों? आखिर पहले इन पर विचार (Thought) क्यों नहीं किया गया? क्या हमारे देश के भविष्य (Future) तमाम जिंदगियों का सहारा इन बच्चों (Children) के जीवन (Life) का कोई मोल नहीं? देश का एजुकेशन (Education) सिस्टम ऐसे ही जिंदगियों को लीलता रहेगा और हम हाथ पर हाथ रखकर यूँ ही चुपचाप मुँह सिये सब देखते रहेंगे? जरूरत है इस देश (Country) के जिम्मेदार जागें अपनी जिम्मेदारी (Responsibility) को समझें और देश के भविष्य (Future) को बेहतर सहेज कर रखें ताकि आगे जाकर वो अपने भविष्य के साथ ही देश का भविष्य भी संवारें |

सवाल तमाम हैं, खामियां तमाम हैं लेकिन उनके समाधान (Solution) भी हमें ही ढूढने होंगे | छात्र, माँ बाप, शासन प्रशासन अगर मिलकर अपनी जिम्मेदारियों को समझें तो कोटा (Kota) में कोई बच्चा कभी किसी बिल्डिंग से नहीं कूदेगा, कोई बच्चा कभी किसी पंखे से नहीं लटकेगा | यहाँ की फिजाओं में बिखरेगी तो सिर्फ सुनहरा भविष्य जो छोटी छोटी असफलताओं से टूटेगा नहीं बल्कि और मजबूत होकर दूसरे अवसर की तलाश में निकल पड़ेगा |

धन्यवाद,


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