
दोस्तों कहते हैं कि इस दुनिया में हर इंसान के पास कोई ना कोई प्रतिभा जरुर होती है लेकिन उस प्रतिभा को समय के मुताबिक तराशने वाला व्यक्ति ही जिंदगी में सफल हो पाता है।
रवि शास्त्री एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने विश्व क्रिकेट में अपना आगाज एक गेंदबाज के तौर पर किया था लेकिन गुजरते समय के साथ उन्होंने बल्लेबाजी में भी अपनी महारतता को पहचाना और उसे तराशना शुरू किया जिसका परिणाम यह हुआ कि अपने करियर के आखिर तक उन्होंने विश्व के बेहतरीन पेस अटैक के सामने ओपनर के तौर पर 12 शतक लगा दिए थे।

रविशंकर शास्त्री का शुरुआती जीवन-
27 मई साल 1962 के दिन मुम्बई में पिता एम जयद्रथ शास्त्री और मां लक्ष्मी शास्त्री के घर उनकी इकलौती संतान का जन्म हुआ जिसका नाम रविशंकर शास्त्री रखा गया था।
रवि शास्त्री बताते हैं कि उनकी मां क्रिकेट की बहुत बड़ी शौक़ीन थी, रवि शास्त्री की मां 50 के दशक से क्रिकेट को फोलो करती आ रही थी और उन्होंने डोन ब्रैडमैन से लेकर उस दौर के कई बड़े खिलाड़ियों के दौर को गुजरते देखा था।
रवि शास्त्री की मां अपने घर में खुद के पसंदीदा खिलाड़ियों की तस्वीरें और अखबारों की कंटिग्स भी चिपकाए रखा करती थी और शायद इन्हीं तस्वीरों और अखबारों में लिखे शब्दों को देखकर छोटे रवि शास्त्री के मन में भी इस खेल को जानने की उत्सुकता पैदा हुई थी।
रवि शास्त्री को क्रिकेट का ककहरा उनकी मां ने सिखाया था और उन्हें इस खेल में पारंगत करने का काम मुम्बई की डोन बोस्को स्कूल ने किया था जो उस समय इस खेल के क्षेत्र में उतना बड़ा नाम नहीं था जितना बाद में जाकर बना था।
जब शास्त्री इस स्कूल में अपनी पढ़ाई कर रहे थे उस दौरान साल 1976 में यह स्कूल इन्टर स्कूल कोम्पिटिशन के फाइनल तक पहुंच पाई थी जहां यह स्कूल सेंट मेरीज स्कूल से हार गई थी।

रवि शास्त्री का क्रिकेट में शुरूआत-
अगले साल रवि शास्त्री को अपनी स्कूली टीम का कप्तान बनाया गया और रवि की कप्तानी में डोन बोस्को स्कूल पहली बार इन्टर स्कूल कोम्पिटिशन का विजेता बनने में कामयाब रही थी।
इस जीत की खबर अगले दिन अखबारों की सुर्खियों में दर्ज हो गई थी और यह पहला मौका था जब रवि शास्त्री की तस्वीर को अखबार में जगह मिली थी और यह जीत अखबारों के जरिए रवि शास्त्री को सुनील गावस्कर की नजरों में भी ले आई थी।
अपनी फोटो अखबारों में देखकर रवि शास्त्री के जुनूनी दिल ने इस खेल को प्रोफेशन के तौर पर लेने का फैसला कर लिया और इसीलिए उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए आर ए पोदार कोलेज को चुना जहां क्रिकेट में उन्हें अच्छा माहौल और अच्छे खिलाड़ियों का साथ मिला।
इस दौरान रवि शास्त्री को क्रिकेट के खेल की तकनीकी शिक्षा बी डी देसाई से मिली जो खुद एक जमाने में क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे।
एक क्रिकेटर और कोमर्स के विधार्थी के तौर पर शास्त्री का सफर सही चल रहा था, शास्त्री दोनों जगहों पर अच्छा कर रहे थे लेकिन उनके मन में अब सिर्फ क्रिकेटर के तौर पर ही आगे बढ़ने की बातें चल रही थी।
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रविशंकर शास्त्री मुम्बई टीम में शामिल होने वाले सबसे युवा खिलाड़ी
स्कूल और कॉलेज के क्षेत्र में रवि शास्त्री के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए शास्त्री की जुनीयर कोलेज के आखिरी वर्ष में इन्हें मुम्बई की डोमेस्टिक क्रिकेट टीम की तरफ से भी बुलावा आ गया था, जब रवि शास्त्री को मुम्बई की टीम में शामिल किया गया तब उनकी उम्र महज सत्रह वर्ष और दो सौ बानवे दिन थी और इस तरह से शास्त्री मुम्बई की टीम में शामिल होने वाले सबसे युवा खिलाड़ी बन गए थे।
रवि अपने रणजी करियर के शुरुआती दो सालों में कुछ अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए थे, अपने पहले सीजन के फाइनल मैच में उनके द्वारा 61 रन देकर छह विकेट लेने वाला स्पैल आगे लंबे समय तक रवि शास्त्री का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन गिना जाता रहा था।
रविशंकर शास्त्री का ख़राब प्रदर्शन
अपने रणजी ट्रॉफी करियर के दुसरे सीजन उत्तर प्रदेश के खिलाफ रवि शास्त्री बल्लेबाज और गेंदबाज दोनों क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे थे, मैच की दोनों पारियों में शून्य पर आउट होने के अलावा गेंदबाजी में भी उस मैच में रवि शास्त्री एक भी विकेट नहीं ले पाए थे।

रविशंकर शास्त्री का अंतरराष्ट्रीय टेस्ट क्रिकेट में डेब्यू
उस समय भारत की अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट टीम न्यूजीलैंड दौरे पर थी और यह अचम्भे की बात थी कि बहुत बुरे दौर से गुजर रहे रवि शास्त्री को उस दौरे पर चोटिल दलिप दोशी की जगह बुलाया गया था, रवि मैच से एक रात पहले वेलिंगटन पहुंचे और यहां आकर उनके प्रदर्शन में अचानक सबकुछ बदल गया था।
रवि शास्त्री ने टेस्ट क्रिकेट में अपना पहला ओवर मेडन फेंका और आगे मैच की दुसरी पारी में चार गेंदों में तीन विकेट अपने नाम कर सबको चौका दिया था।
दौरे के तीसरे मैच में रवि शास्त्री को सात विकेट मिले और इस प्रदर्शन की बदौलत उन्हें अपना पहला मैन ऑफ द मैच अवार्ड भी दिया गया था।
रवि शास्त्री भारतीय क्रिकेट टीम में एक स्पिन गेंदबाज की जगह एक स्पिनर के तौर पर शामिल हुए थे लेकिन जैसे जैसे उनका करियर आगे बढ़ा उनके साथ खेलने वाले लोगों को उनकी बैटिंग में भी एक विश्वास देखने को मिलने लगा था और यही वजह रही कि बैटिंग लाइनअप में दसवें नंबर से अपना करियर शुरू करने वाले शास्त्री अगले अठारह महीनों में भारतीय क्रिकेट टीम के ओपनर बल्लेबाज बन गए थे।
इस पोजीशन पर खेलते हुए रवि शास्त्री को जहां अपने हीरो सुनील गावस्कर के साथ पारी शुरू करने का मौका मिल रहा था तो वहीं कुछ मौके ऐसे भी आए जब रवि शास्त्री ने ग्वास्कर के आउट होने के बाद अपने सबसे पसंदीदा खिलाड़ी गुंडप्पा विश्वनाथ के साथ भी कई अहम सांझेदारिया निभाई थी।
साल 1982 में इंजरीज के कारण सीरीज के चार मैचों से बाहर होने के बाद रवि शास्त्री को पाकिस्तान के खिलाफ पाकिस्तान की धरती पर हुई टेस्ट सीरीज के आखिरी मैच में फिर से टीम में शामिल होने का मौका मिला और इस बार एक ओपनर के तौर पर उनके सामने अपने करियर पीक पर चल रहे इमरान खान सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़े थे।
लेकिन शास्त्री को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, वो मैदान पर उतरे और अपना पहला टेस्ट शतक लगा दिया।
रवि शास्त्री संयम और संजीदगी के साथ धीमी बैटिंग करने वाले बल्लेबाज थे लेकिन जरुरत के हिसाब से ये बल्लेबाज अपनी गति बढ़ा भी सकता था और शास्त्री की यही खूबी उन्हें अच्छा ओपनर बल्लेबाज बनाती थी।
आगे रवि शास्त्री ने वेस्टइंडीज के शानदार पेस अटैक के सामने भी शानदार शतक लगाया और इस पारी ने उन्हें विपरीत परिस्थितियों में एक अच्छे बल्लेबाज के तौर पर स्थापित कर दिया था, यही कारण रहा कि एक बल्लेबाज के तौर पर खुद को और बेहतरीन करने के लिए रवि शास्त्री ने अपनी गेंदबाजी पर ध्यान देना कम कर दिया था लेकिन इससे उनकी गेंदबाजी में धार कम नहीं हुई थी।
साल 1981 के इरानी ट्रोफी सीजन के मैच में रवि शास्त्री का 101 रन देकर नौ विकेट लेने वाला स्पैल बीस सालों तक सबसे बेहतरीन गेंदबाजी प्रदर्शन रहा था।

साल 1983 में वर्ल्डकप
आगे शास्त्री को साल 1983 में वर्ल्डकप के लिए इंग्लैंड जाने वाली भारतीय टीम में शामिल किया गया जहां कपिल देव की कप्तानी में भारत विश्व विजेता बना था लेकिन इस विश्व कप में उन्हें मैदान पर उतरने के ज्यादा मौके नहीं मिल पाए थे।
साल 1984 में पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए शास्त्री ने एक बार फिर बड़ियां प्रदर्शन किया लेकिन उसके बाद अगला साल रवि शास्त्री के करियर को नये मुकाम देने वाला समय साबित हुआ।
इस दौरान जहां अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में रवि शास्त्री के किरमानी और अजहरुद्दीन के साथ निभाई साझेदारियां वाह-वाही बटोर रही थी तो वहीं डोमेस्टिक क्रिकेट में भी रवि शास्त्री लगातार कमाल कर रहे थे।
साल 1985 के पहले महीने में बरोदा के खिलाफ खेलते हुए रवि शास्त्री ने सिर्फ 113 मिनटों में अपना दोहरा शतक पूरा कर लिया था और उस समय यह एक वर्ल्ड रिकॉर्ड था।
अपनी इस पारी के दौरान शास्त्री ने तेरह छक्के लगाए जिसमें से छः छक्के रवि शास्त्री ने तिलक राज के एक ओवर में लगाकर गैरी सोबर्स के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली थी।
रवि शास्त्री बताते हैं कि छः छक्के लगाकर जब शाम को वो घर पहुंचे थे तब उन्होंने अपने इस रिकॉर्ड की बात अपनी मां को नहीं बताई थी और उनकी मां को यह बात सब्जी बेचने वाले आदमी से पता लगी थी जिसके चलते रवि शास्त्री की मां उनसे नाराज़ हो गई थी।

मैन ऑफ द सीरीज
1985 के साल में आयोजित हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप ओफ क्रिकेट का फाइनल मैच भारत और पाकिस्तान के बीच खेला गया था जिसमें भारत ने जीत हासिल की थी, रवि शास्त्री को मैन ऑफ द सीरीज चुना गया था और उन्हें अवार्ड के तौर audi 100 गाड़ी दी गई थी।
यह भारत और इस खेल को पसंद करने वाले लोगों के लिए कितनी बड़ी बात थी इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब यह गाड़ी भारत पहुंची तो उस समय इसे देखने के लिए मुम्बई में हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई थी। अपनी उस गाड़ी को शास्त्री ने आज भी संभाल कर रखा हुआ है।
रवि शास्त्री पहली बार विश्व क्रिकेट की नजरों में अपनी कप्तानी के चलते आए थे और उसके बाद से उन्हें किसी भी टीम के कप्तान के लिए एक अच्छा ओप्शन माना जाता रहा था लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उन्हें अपनी इस प्रतिभा को दिखाने के ज्यादा मौके नहीं मिल पाए थे, टेस्ट क्रिकेट में पांच भारतीय कप्तानों के वाइस कप्तान रहे शास्त्री को सिर्फ एक मैच में भारत को लीड करने का मौका मिला जिसमें भारतीय क्रिकेट टीम ने शानदार जीत दर्ज की थी।
इसके अलावा शास्त्री ने भारतीय टीम को वनडे क्रिकेट में भी लीड किया लेकिन एक कप्तान के तौर पर रवि शास्त्री कभी भी अपनी जगह स्थाई नहीं रख पाये थे जिसका एक कारण यह भी था कि वो अपने करियर में लगातार अंतराल पर चोटों से गुजर रहे थे।
साल 1989 में भारत ने वेस्टइंडीज का दौरा किया जिसके दुसरे टेस्ट मैच में रवि शास्त्री ने भारत को 63 के स्कोर पर छः विकेट खोने के बाद 251 के स्कोर तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इस दौरान रवि के बल्ले से निकली 107 रन की पारी को रवि शास्त्री खुद अपने करियर की सबसे शानदार पारी मानते हैं।
साल 1985 में चैम्पियन ओफ चैम्पियनश बनने के बाद रवि शास्त्री के करियर में दुसरी सबसे बढ़िया सीरीज साल 1990 में इंग्लैंड के खिलाफ आई जिसके तीन मैचों में इन्होंने दो शतक लगाए थे।

क़ुतुब मीनार
ओवल में शास्त्री के बल्ले से निकली 187 रनों की पारी को देखने का अनुभव साझा करते हुए हर्षा भोगले ने कहा था कि रवि शास्त्री को खेलते हुए देखना क़ुतुब मीनार को निहारने जैसा है।
आगे साल 1991 में भारत ने आस्ट्रेलिया का दौरा किया जो भारतीय प्रशंसकों और खिलाड़ियों के लिए डिजास्टर साबित हुआ लेकिन इस दौरे के दौरान एक वनडे मैच में शास्त्री ने पन्द्रह रन देकर पांच विकेट लिए थे जो उस समय वनडे क्रिकेट में किसी भारतीय गेंदबाज का सबसे शानदार प्रदर्शन था।

रवि शास्त्री का दोहरा शतक
इस दौरे के तीसरे टेस्ट मैच में रवि शास्त्री ने अपने टेस्ट करियर का इकलौता दोहरा शतक पूरा किया और 206 के स्कोर पर डेब्यूटेंट शेन वार्न की पहली विकेट के रूप में आउट हो गए थे।
इस मैच से शुरू हुए घुटनों के दर्द ने रवि शास्त्री के आगे के करियर को पुरी तरह से प्रभावित कर दिया था, वो या तो टीम में शामिल नहीं होते थे और अगर होते ही थे तो उनका प्रदर्शन सही नहीं रहता था।
आखिरकार घुटने की चोट ने रवि शास्त्री को 31 साल की उम्र में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लेने पर मजबूर कर दिया और दिसंबर साल 1992 को शास्त्री साउथ अफ्रीका के खिलाफ आखिरी बार मैदान पर उतरे थे।
क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद रवि शास्त्री एक लंबे समय तक कोमेंटेटर के तौर पर इस खेल से जुड़े रहे और इस समय के दौरान रवि शास्त्री ने भारतीय क्रिकेट इतिहास के कई स्वर्णिम मौकों को अपनी आवाज़ दी थी।
इसके बाद रवि शास्त्री को भारतीय क्रिकेट टीम का नया हेड कोच बनाया गया और इनकी कोचिंग में भारतीय टीम ने कई ऐतिहासिक कीर्तिमान स्थापित किए थे, बात चाहे बाहर जाकर टेस्ट मैच जीतने की हो या फिर वर्ल्डकप में शानदार प्रदर्शन की या फिर आईसीसी रैंकिंग में शीर्ष पर रहने की, भारतीय क्रिकेट टीम ने बहुत सी उपलब्धियां रवि शास्त्री के दौर में हासिल की थी।
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