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सत्येन कप्पू: हिंदी फिल्मों का मजबूर बाप और ईमानदार पुलिस वाला।

उठो भी के अब दिन हैं बदलने वाले,

मंज़िल पे पहुँच जायेंगे चलने वाले,

दीपक के लिये हठ ऐ पतंगे न कर,

बेआग भी जल जाते हैं जलने वाले।

शायर फ़िराक़ गोरखपुरी जी की इन पंक्तियों के सहारे अपने जीवन की हर कठिन परिस्थितियों का सामना करने वाले और अपने मौलिक अभिनय से फ़िल्मों में एक अलग मुकाम हासिल करने वाले ऐक्टर सत्येन कप्पू जी से भला कौन अपरिचित होगा। सत्येन जी का कॅरियर जितना लम्बा और शानदार रहा है उतना ही प्रेरणादायक उनका संघर्ष भरा जीवन भी रहा है।

लगभग 4 दशकों तक अपने अभिनय का जादू बिखेरने वाले ऐक्टर सत्येन कप्पू जी कभी हिंदी फ़िल्मों का एक ऐसा चेहरा हुआ करते थे कि उनके किसी एक किरदार के बिना कोई फ़िल्म पूरी ही नहीं होती थी। रोल छोटा हो या बड़ा हर डायरेक्टर अपनी फ़िल्म में उनका एक किरदार रखने की कोशिश ज़रूर करता था।

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सत्येन कप्पू का जन्म-

6 फरवरी 1931 को मुंबई में एक ब्राह्मण परिवार में सत्येन कप्पू का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम था बुद्ध सिंह शर्मा और माता का नाम था गंगा देवी। मुंबई में  ‘डिलाइट कुल्फी’ नाम की एक बड़ी आइसक्रीम फैक्टरी लगाने वाले बुद्ध सिंह जी हरियाणा से जब मुंबई आये तो यहीं बस गये। सत्येन के एक बड़े भाई भी थे जिनका नाम था राधे श्याम शर्मा।

दोस्तों सत्येन कप्पू जी का असली नाम था सत्येंद्र शर्मा, चूँकि बचपन में सब उन्हें प्यार से कप्पू-कप्पू बुलाते थे, इसलिए बाद में जब उन्होंने अपना फ़िल्मी नाम सत्येन्द्र की जगह सत्येन रखा तो उसके साथ कप्पू को भी जोड़ लिया।

सत्येन कप्पू जब छोटे थे, तभी उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। बाद में उनके कुछ रिश्तेदारों ने सत्येन कप्पू और उनके भाई को कुरुक्षेत्र के गुरुकुल में छोड़ दिया, जहाँ बेहद कठिन अनुशासन के साथ संस्कृत भाषा में उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई।

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सत्येन कप्पू

सत्येन कप्पू का अभिनय जगत में रुचि –

उस गुरुकुल के वार्षिकोत्सव समारोह में वहाँ के बड़े विद्यार्थी महाभारत पर आधारित नाटक किया करते थे जिसका असर सत्येन पर भी पड़ा और उन्हें भी अभिनय करने का शौक हो गया। बाद में वे एक शादी में पानीपत आये तो गुरुकुल छोड़ आगे की पढ़ाई वहीं करने लगे साथ ही नाटकों से भी जुड़े रहे।

एक इंटरव्यू में सत्येन ने बताया था कि पानीपत में रहने के दौरान उन्होंने रामलीला में सीता और कृष्णलीला में राधा की भूमिका निभाई। लगभग 2 साल पानीपत में रहने के बाद जब वो 16-17 साल के हुए तो अपने बड़े भाई के साथ वे मुंबई आ गये जहाँ वे पैदा हुए थे।

यहां आकर उन्होने पहली बार एक फ़िल्म देखी जो थी लेजेंडरी ऐक्टर अशोक कुमार की सुपरहिट फ़िल्म ‘किस्मत’। इस फ़िल्म देखकर सत्येन को इस टेक्नोलॉजी पर बहुत ताज़्ज़ुब हुआ था क्योंकि आज़ादी के उस दौर में जीती जागती तस्वीरों को देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। 

इसी दौरान उन्होंने पृथ्वी थियेटर का एक नाटक देखा जिसका नाम था ‘दीवार’। इस नाटक को देखने के बाद उन्होंने पूरी तरह से मन बना लिया कि अब ऐक्टिंग को ही अपना कॅरिअर बनायेंगे।

वर्ष 1953 में सत्येन ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ यानि ‘इप्टा’ में शामिल होकर नाटकों में काम करने लगे। सत्येन इप्टा को ही अपना सबसे बड़ा स्कूल मानते थे जहाँ उन्होंने न सिर्फ़ अभिनय को समझा बल्कि जीवन को जीने की कला भी सीखी।

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सत्येन कप्पू

सत्येन कप्पू की पहली फिल्म: नौकरी

थिएटर में अभिनय के दौरान ही उस ज़माने के मशहूर राइटर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और इप्टा के प्रेसिडेंट बिमल रॉय जी ने उन्हें अपनी फ़िल्म ‘नौकरी’ में हरफनमौला किशोर कुमार जी के साथ एक सीन करने का मौक़ा दिया। दोस्तों सत्येन ने जब पहली बार कैमरा देखा और उसके सामने अभिनय किया तो उन्हें बहुत अजीब सा लगा।

वहाँ का पूरा माहौल ही उनको एकदम बनावटी सा लगा क्योंकि थियेटर में तो सामने एक ऐक्टर होता है या दर्शक होते हैं, लेकिन यहाँ तो एक डब्बे के सामने अभिनय करना था।

रिश्तेदार और परिवार के लोग उन्हें एक नकारा लड़का ही समझते थे-

बहरहाल इस फ़िल्म के बाद भी सत्येन थियेटर में लगातार काम करते रहे, हालांकि थियेटर से उन्हें इतने पैसे नहीं मिलते थे कि उनका गुज़ारा हो सके इसलिए रिश्तेदार और परिवार के लोग उन्हें एक नकारा लड़का ही समझते थे। इस दौरान बिमल रॉय ने सत्येन को फिल्म ‘बंदिनी’ और ‘काबुलीवाला’ में भी छोटी-छोटी भूमिकायें दी, बावज़ूद इसके सत्येन ने नाटकों में काम करना नहीं छोड़ा।

वर्ष 1968 में इप्टा के नाटकों में किये उनके अभिनय को देखकर उन्हें 3 और फ़िल्में ऑफर हुईं जो 70 के दशक के शुरुआती वर्षों में रिलीज़ हुईं और बेहद कामयाब भी हुईं, ये फ़िल्में थीं जवानी दीवानी, ‘सीता और गीता’ और ‘कटी पतंग’।

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फ़िल्म जवानी दीवानी

सत्येन कप्पू की फ़िल्म जवानी दीवानी में उनका ‘मामा’ का किरदार-

सत्येन अपनी ज़िन्दगी में फ़िल्म जवानी दीवानी की बहुत अहम भुमिका मानते थे वे कहते थे कि उनकी रोज़ी रोटी इसी फ़िल्म की बदौलत थी। इस फ़िल्म में उनका ‘मामा’ का किरदार इतना मशहूर हुआ था कि उस फ़िल्म से जुड़े कई लोग उन्हें मामा ही कह कर पुकारा करते थे।

इन फ़िल्मों की कामयाबी के बाद सत्येन जी की गाड़ी भी चल निकली। आलम ये हुआ कि उसके बाद हर दूसरी तीसरी फ़िल्म में सत्येन का कोई न कोई किरदार ज़रूर हुआ करता था। सत्येन ने ‘सपनों का सौदागर’, ‘छोटी बहू’, ‘दो गज जमीं के नीचे’, ‘यादों की बारात’, ‘बेनाम’, ‘काला सोना’, ‘शोले’, ‘डॉन’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘दीवार’, ‘खोटे सिक्के’, ‘नसीब अपना अपना’, ‘दिल’ और ‘राजा भैया’ जैसी सैकड़ो सुपरहिट फिल्मों में काम किया।

60 के दशक की शुरुआत से लेकर 2000 के दशक तक सत्येन जी ने 350 से भी अधिक फिल्मों में शानदार और यादगार भुमिकायें निभाईं, जिनमें हिंदी के अलावा राजस्थानी, गुजराती, मराठी, भोजपुरी, अवधी और ब्रजभाषा सहित अन्य भाषाओं की फ़िल्में भी शामिल हैं।

उन्होंने दो हिंदी फिल्मों में डबिंग का काम भी किया है जिनमें से एक थी ‘गहरी चाल’ जिसमें उन्होंने मुख्य खलनायक को शुरुआत में अपनी आवाज़ दी थी और दूसरी फ़िल्म थी ‘सुबह-ओ-शाम’ जिसमें उन्होंने ईरानी ऐक्टर मोहम्मद अली फरदीन के लिये अपनी आवाज़ डब की।

सत्येन जी ने कुछ एक रेडियो नाटकों और टेलिविज़न धारावाहिकों में भी काम किया था जिसमें ‘बाबाजी का बाइस्कोप’ नामक एक शो बहुत ही मशहूर हुआ था।

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फ़िल्म शोले: रामलाल

फ़िल्म शोले: रामलाल

फ़िल्मों में सत्येन ज़्यादातर डॉक्टर, पुलिस अधिकारी, बड़ा भाई और पिता आदि की भूमिकाओं में नज़र आये। हालांकि उनके सबसे मशहूर किरदारों में फ़िल्म शोले में रामलाल की भूमिका सबसे यादगार मानी जाती है।

दोस्तों कम लोगों को ही पता होगा कि शोले में संजीव कुमार की परछाई बनकर रहने वाले सत्येन ने ही संजीव कुमार को मुंबई के थियेटर में पहला मौक़ा दिलवाया था।

एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि वर्ष 1957 में महान ऐक्टर संजीव कुमार जब काम की तलाश में मुंबई आये तो इप्टा में काम करने के लिये उनके पास ही पहुँचे थे और सत्येन के ज़रिये ही इप्टा से जुड़े थे जहाँ उन्होंने सत्येन के साथ कई नाटकों में काम किया था।

अशोक कुमार जी जैसे वर्सेटाइल ऐक्टर को अपना आइडियल मानने वाले सत्येन शुरू से ही एक अभिनेता तो बनना चाहते थे लेकिन वे कभी भी फ़िल्मों में हीरो नहीं बनना चाहते थे, बल्कि ख़ुद को एक कैरेक्टर आर्टिस्ट ही बनाना चाहते थे। इसकी वजह ये थी कि हीरो के हिस्से में सिर्फ रोमांस आता है और कैरेक्टर आर्टिस्ट को हर तरह का अभिनय करने को मिल जाता है।

दोस्तों सत्येन कप्पू जी अपने जीवन के आखिरी दिनों तक अभिनय के क्षेत्र में सक्रिय रहे थे, उनकी आख़िरी फ़िल्म वर्ष 2006 में रिलीज हुई थी जिसका नाम है ‘सरहद पार’।

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सत्येन कप्पू
सत्येन कप्पू का ब्यक्तिगत जीवन-

27 अक्तूबर 2007 को सत्येन कप्पू का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।बताया जाता है कि वे मधुमेह के रोगी थे और उन्हें उच्च रक्तचाप भी था।

दोस्तों सत्येन अक्सर कहा करते थे कि मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं, लेकिन जिंदगी ने मुझे जो अनुभव दिया, उसने मुझे लायक बना दिया। बात करें उनके निजी जीवन की तो वर्ष 8 दिसंबर 1951 को सत्येन कप्पू जी का विवाह हुआ उनकी पत्नी का नाम है कैलाशवती जिनसे उनकी चार बेटियां हुईं उमा, विनिता, दृप्ति और तृप्ति।

हालांकि उनके परिवार में अभिनय के क्षेत्र से तो कोई नहीं जुड़ा लेकिन उनकी बेटी तृप्ति  बतौर राइटर टेलीविजन पर सक्रिय हैं और कई सीरियल्स के लिए स्क्रीनप्ले और डॉयलॉग्स लिख चुकी हैं।

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