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फूल और काटे का स्टाइलिश विलेन आखिर कैसे बन गया मौलाना।

एक कामयाब ऐक्टर जिसके पास काम की कोई कमी न थी, नेम- फेम- पैसा- रुतबा सब हासिल थे उसे, लेकिन अचानक एक दिन वह फ़ैसला करता है कि अपने मनपसंद काम को छोड़ वह एक गुमनाम ज़िन्दगी जीयेगा।

आख़िर ऐसा क्या हुआ उस ऐक्टर के साथ जो उसे यह फ़ैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा ? क्या बॉलीवुड ने उसके साथ पार्सियलटी की ? या अचानक उसे फ़िल्में मिलनी बंद हो गयीं ? अगर आपके जेहन में ऐसे सवाल आ रहे हों तो उसका एक ही जवाब है और वह है ‘ना’। तो आख़िर क्या है वज़ह और कौन है वह ऐक्टर ?

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फ़िल्म ‘फूल और कांटे में आरिफ खान 

रॉकी 

दोस्तों आपको  90 के दशक की सुपरहिट फ़िल्म ‘फूल और कांटे’ तो याद ही होगी। कॉलेज लाइफ पर आधारित इस फ़िल्म में एक साथ कई नये चेहरे नज़र आये थे जिनमें आज के सुपर स्टार अजय देवगन और बॉलीवुड के साथ-साथ साउथ की कामयाब ऐक्ट्रेस मधू के अलावा एक नाम और शामिल है वह नाम है रॉकी यानि ऐक्टर आरिफ़ ख़ान का। 

जी हाँ अपनी पहली ही फ़िल्म की कामयाबी के बाद उनके किरदार का नाम ही उनकी पहचान बन गया और वो रॉकी के नाम से ही पहचाने जाने लगे थे। इस फ़िल्म में आरिफ खान ने रॉकी नाम के एक विलेन की भूमिका निभाई थी जो कॉलेज के चेयरमैन का बेटा है और कॉलेज में ड्रग्स का कारोबार करने के साथ-साथ फिल्म की नायिका पूजा यानि मधू के पीछे भी पड़ा रहता है।

इस किरदार को आरिफ़ ने इतनी ख़ूबसूरती से निभाया था कि न सिर्फ यह किरदार उनकी पहचान बन गया बल्कि वे हिंदी फ़िल्मों के एक नौजवान विलेन के रूप में भी मशहूर हो गये।

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आरिफ खान का जन्म-

दोस्तों आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि आरिफ़ को न तो ऐक्टिंग की ए बी सी डी आती थी न ही शुरू से वे ऐक्टर ही बनना चाहते थे। दरअसल आरिफ़ के पिता सिलाई का काम करते थे और आरिफ़ ने उनसे ड्रेस डिजाइनिंग का काम सीख रखा था लेकिन मुंबई में पैदा हुए और वहाँ के फ़िल्मी माहौल में पले बढ़े आरिफ इस काम को अपना व्यवसाय बनाने के बजाय मॉडलिंग मे करियर बनाना चाहते थे और इसके लिये वे जगह जगह ऑडिशन भी दिया करते और अपनी फोटोज़ लेकर ऑफिस दर ऑफिस घूमा करते।

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फ़िल्म: फूल और कांटे

फूल और काँटे

हालांकि मॉडलिंग में तो उन्हें काम नहीं मिल सका लेकिन उसी दौरान निर्माता दिनेश पटेल नयी स्टारकास्ट को लेकर अपनी नयी फ़िल्म फूल और काँटे का प्लान कर रहे थे।

इस फ़िल्म के हीरो हिरोइन तो सेलेक्ट हो गये थे लेकिन विलेन के रोल के लिये ऐक्टर का सेलेक्शन करना अभी बाक़ी था। कॉलेज लाइफ पर आधारित ऐक्शन- रोमांस फ़िल्म की कहानी में जहाँ ऐक्टर अजय देवगन और मधु इस फ़िल्म से बॉलीवुड में डेब्यू कर रहे थे तो वहीं विलेन के रोल के लिये भी एक नये चेहरे की तलाश की जा रही थी क्योंकि कहानी और स्टारकास्ट के हिसाब से पहले से स्थापित किसी ऐक्टर को नहीं लिया जा सकता था, उसपर से कॉलेज के लड़के का रोल।

कभी ऐसे कैरेक्टर के लिये शक्ति कपूर और गुलशन ग्रोवर जैसे ऐक्टर एकदम फिट होते थे, ऐसे में इस रोल के लिये नौजवान आरिफ़ एकदम परफेक्ट लगे और उन्हें रॉकी के रोल के लिये साइन कर लिया गया। फिल्म सुपर डुपर हिट हुई और आरिफ़ भी सुपरहिट हो गये।

अजय देवगन के साथ बतौर विलेन आरिफ़ की जोड़ी को लोगों ने ख़ूब पसंद किया। हालांकि आरिफ़ कहते हैं कि इस फ़िल्म में उन्हें और अजय देवगन को देखकर लोगों ये कहते थे कि फ़िल्म में हीरो आरिफ़ को और विलेन अजय देवगन को होना चाहिए था।

 बहरहाल बतौर विलेन कामयाब होने के बाद आरिफ़ दर्जन भर से ज़्यादा फ़िल्मों में नज़र आये और बॉलीवुड के एक व्यस्त ऐक्टर बन गये। मुस्कुराहट, बाग़ी सुल्तान, मोहरा, वीरगति, तेजस्विनी, अहंकार, मोहब्बत और जंग, ज़मीर तथा ब्वाय फ्रेंड जैसी 90 के दशक में आयी फ़िल्मों में आरिफ़ लगातार नज़र आते रहे लेकिन अचानक वे फ़िल्मों से दूर होने लगे।

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फ़िल्म ‘ए माईटी हार्ट’

ए माईटी हार्ट

आख़िरी बार वे वर्ष 2007 में आयी फ़िल्म ‘ए माईटी हार्ट’ में दिखाई पड़े थे इसके बाद उन्होंने फ़िल्मों से पूरी तरह से दूरी बना ली। आरिफ़ उसके बाद कहाँ चले गये किसी को नहीं पता चला और न ही नये ऐक्टर्स की जमघट के बीच मीडिया ने ही उन्हें तलाशने की जहमत की।

तब सोशल मीडिया का दौर भी नहीं था कि उनके बारे में लोगों को अपडेट मिलती रहती लेकिन कुछ वक़्त पहले ही सोशल मीडिया पर हुए उनके कुछ वायरल वीडियो से लोगों को पता चला कि आरिफ़ तबलीगी जमात में शामिल हो गए हैं और इस्लाम का प्रचार प्रसार करने में लगे हुए हैं।

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धार्मिक व्यक्ति

फिल्मी दुनिया से 24 साल से दूर हुए आरिफ़ को अब पहचान पाना भी मुश्किल है। कभी हैंडसम लुक वाले आरिफ़ अब दाढ़ी बढ़ाकर पूरी तरह मौलाना नज़र आते हैं और फिल्मों को छोड़ने के बाद आरिफ़ पूरी तरह से एक धार्मिक व्यक्ति बन गए हैं।

आरिफ़ बताते हैं कि वे पहले इन सब चीज़ों से भागते थे और अपनी फ़िल्मी लाइफ में पूरी तरह से ख़ुश थे। यहाँ तक कि उन्हें ‘दीन’ शब्द तक का मतलब नहीं पता था। वो दीन को दिन-रात वाला दिन समझते थे। दरअसल आरिफ़ के धार्मिक होने के पीछे उनकी माँ, भाई और पत्नी का बहुत बड़ा हाथ था। जहाँ आरिफ़ इन चीज़ों से भागा करते थे वहीं उनके भाई युसुफ़ ख़ान हज करके आने के बाद अपनी बैंक की नौकरी छोड़ धार्मिक व्यक्ति बन गये थे।

हालांकि आरिफ़ के पिता उनकी फिल्मों में कामयाबी और नाम से बहुत ख़ुश थे लेकिन आरिफ़ की माँ को उनका फ़िल्मों में काम करना बिल्कुल पसंद नहीं था। आरिफ़ की पत्नी भी शुरुआत में तो उनके काम को पसंद करती थीं लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी लगने लगा कि आरिफ़ को फ़िल्मों में काम करना छोड़ देना चाहिए।

आरिफ़ बताते हैं कि उनके भाई ने एक बार जमात के एक मौलवी को उन्हें समझाने के लिये भेजा तो वे उसे फ़कीर समझकर पैसे देने लगे। तब उसने आरिफ़ से पूछा कि “मरना है कि नहीं मरना?” आरिफ़ को यह सवाल सुनकर बहुत गुस्सा आया उन्होंने जवाब दिया कि “मुझसे बड़े आप हैं तो पहले तो आप ही मरेंगे।” उस मौलवी न कहा कि “हाँ मैं ही पहले मरूँगा लेकिन यह जवाब दो कि कब्र में तुम्हारे साथ गाड़ी जायेगी या दाढ़ी ?” आरिफ़ चक्कर में आ गये और झल्लाकर बोले “अजीब सवाल है कब्र में गाड़ी कैसे जायेगी वहाँ तो दाढ़ी ही जा पायेगी।” बहरहाल उस मौलवी ने काफी समझाने की कोशिश की कि वे फ़िल्म लाइन और पैसे के पीछे भागना छोड़कर इस्लाम की सेवा में लग जायें लेकिन आरिफ़ को कोई बात नहीं समझ आयी।

हालांकि मौलवी के जाने के बाद आरिफ़ के दिमाग में उसकी कही बात ज़रूर याद आती रही वो बीच बीच में सोचते लेकिन फिर अपने काम में मशरूफ़ हो जाते।

एक दिन आरिफ़ के भाई ने उन्हें एक कार्ड दिया और कहा कि इंग्लैंड से एक जमात आई है जहाँ सभी उनके फैन्स हैं इसलिए एक बार वे जाके उनसे मिल लें। वहाँ एक डॉक्टर साहब भी हैं जो उनसे मिलना चाहते हैं।

आरिफ़ ने कहा “अच्छी बात है चला जाऊँगा।” आरिफ़ बताते हैं कि जब वे डॉक्टर से मिले तो उन्हें समझ नहीं आया कि डॉक्टर मौलाना है या मौलाना डॉक्टर है? बहरहाल उन्होंने अंग्रेजी भाषा में आरिफ़ से बात की और इंग्लैंड से आये नौजवानों से मिलवाया जो जमात में उनके साथ आये थे।

आरिफ़ को देखते ही सभी ने रॉकी- रॉकी कहकर चिल्लाना शुरू कर दिया और उनसे ऑटोग्राफ लेने लगे। तब सेल्फी का दौर नहीं हुआ करता था और अपनी याद के लिये लोग ऑटोग्राफ ही लिया करते थे। ज़ाहिर सी बात है कि आरिफ़ को यह सब अच्छा लगा। वहाँ सभी ने उनसे रिक्वेस्ट की कि आज का खाना हमारे साथ ही खायें जिसे आरिफ़ ने क़ुबूल भी कर लिया।

इस बीच बहुत सी धार्मिक बातें हुईं जिसके बारे में आरिफ़ बताते हैं कि सारी बातें तब उनके सिर के ऊपर से गुज़र गयीं थी। उन्हें तो बस खाना खा के वहाँ से निकलना था।

बहरहाल आरिफ़ ने खाना खाया और खाने के बाद वहां से निकलने लगे तभी डॉक्टर साहब ने रिक्वेस्ट की कि “आज रात यहीं रुक जायें अपने नरम बिस्तर पर तो आप रोज़ सोते हैं एक रात अल्लाह की चटाई पर सो लें।” बार बार अल्लाह के नाम पर आरिफ़ मना न कर सके और अल्लाह नाराज़ न हो जायें इस डर से वे तैयार हो गये आरिफ़ कहते हैं कि तब्लीगी जमात वाले वैसे भी एक बार पकड़ लें तो किसी को अपनो बात समझाये बिना छोड़ते नहीं।

आरिफ़ ने सोचा चलो एक दिन की बात है। आरिफ़ वहाँ के माहौल और उनकी बातों से धीरे-धीरे कन्वेंस होने लगे। आरिफ़ बताते हैं कि तब तक उनके मन में जहन्नुम में जाने का ख़ौफ़ बैठना शुरू हो चुका था।

तभी वहाँ यह चर्चा हुई कि रात में जागकर जमातियों की पहरेदारी कौन करेगा? आरिफ़ ने पूछा “ऐसा करने से क्या होगा?” जवाब मिला कि यह पुण्य का काम है इससे जन्नत का रास्ता खुलता है और अपने गुनाह माफ़ होते हैं।

आरिफ़ ने कहा ठीक है मैं भी जागूँगा रात में। आरिफ़ को थोड़ी देर सोने के लिये कहा गया ताकि बाद में रात भर जागकर पहरा दे सकें। आरिफ़ बताते हैं कि रात को अपने एक साथी के साथ जब वे पहरा दे रहे थे तो अचानक ख़ूब रोने की आवाज़ें सुनाई देने लगी और वे बुरी तरह डर गये तब उनके साथी ने बताया कि ये एक रिवाज़ है।

ख़ैर रात बीती और आने वाली सुबह आरिफ़ की ज़िन्दगी में एक नयी सुबह बन कर आयी थी आरिफ़ की दुनियाँ अब पूरी तरह बदल चुकी थी। उनका डर अब सुकून में बदल चुका था जिसकी शायद वे वर्षों से तलाश कर रहे थे।

ऐसा नहीं है कि आरिफ़ ने आसानी से फ़िल्मी ज़िन्दगी छोड़कर धार्मिक व्यक्ति बन एक सुकून की ज़िन्दगी जीने लगे। उन्होंने फ़िल्मों के ज़रिये जो दौलत कमाई थी वह सब ग़रीबों ज़रूरतमंदों और रिश्तेदारों में बाँटकर थोड़ी बहुत जितने की उन्हें आवश्यकता थी उसे लेकर मुंबई में ही एक छोटा सा शर्बत और जूस सेंटर चलाने लगे।

हालांकि यह कठिन काम था और कभी-कभी आरिफ़ को यह भी सुनना पड़ता कि “ये तो आसमान से गिरा और खजूर में अटका”, लेकिन आरिफ़ तय कर चुके थे कि अब उन्हें फ़िल्मी दुनियाँ में लौटकर नहीं जाना है। उन्होनें इसी दौरान आर्थिक तंगी का भी सामना नही किया और हिम्मत नही हारी और लगभग 3 वर्षों तक ये काम करते रहे।

इसके बाद आरिफ़ ने पूना में एक कपड़े का शो रूम भी खोला और 4-5 सालों तक वहीं रहे। बाद में उन्होनें बंगलौर एक चाय की दुकान खोली और उनका यह धंधा चल निकला। लोग दूर दूर से उनकी चाय पीने आने लगे और सारी दौलत और इज्ज़त जो उन्होंने खोयी थी वो सब उन्हें वापस मिल गयी।

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इस्लाम

फिलहाल आरिफ़ अपनी जिंदगी का एक हिस्सा इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगाते हैं और बाक़ी अपने परिवार और कारोबार को देते हैं।

आरिफ खान जी का ब्यक्तिगत जीवन-

बात करें उनके निजी जीवन की तो उनके 5 बेटे हैं जिनमें से दो जुड़वा भी हैं। दो बेटों की शादी हो चुकी है और बाक़ी 3 में से 2 कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं और एक बिजनेस मैनेजमेंट का कोर्स कर रहे हैं।

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