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Animal Movie Controversy Explained

सोशल मीडिया पर आये दिन बॉलीवुड (Bollywood) को लेकर कोई न कोई कॉन्ट्रोवर्सी (Controversy) उठ ही जाती है, और ऐसा बीते कुछ सालों से लेकर अब तक ज़ारी है। चाहे वह नेपोटिज्म (Nepotism) के टॉपिक (Topic) पर हो या कुछ एक्टर्स (Actor) के नशे में लिप्त होने का मुद्दा हो, या फिर हालिया रिलीज ब्लाकबस्टर (Blockbuster) फिल्म एनिमल से जुड़ी कॉन्ट्रोवर्सी (Controversy) हो, बॉलीवुड पे उंगलियां बार-बार उठ ही जाती हैं। हालांकि ये कॉन्ट्रोवर्सी हर बार सही ही हो यह ज़रूरी नहीं, क्योंकि कई बार इन्हें जान बूझकर भी क्रिएट (Create) किया जाता है..और ऐसा क्यों किया जाता है यह तो आप भी बख़ूबी समझते ही होंगे। तो क्या एनिमल फ़िल्म को लेकर उठी कॉन्ट्रोवर्सी भी जान बूझकर क्रिएट की गयी है? या फिर यह फ़िल्म वाकई में ग़लत है और ऐसी फिल्में बननी ही नहीं चाहिए? या फिर ये सभी मुद्दे बेमतलब और बेमानी हैं जो कभी उठने ही नहीं चाहिए थे? ऐसे कई सवालों (Questions) पे हम आज अपने और.. शायद आपके भी विचार (Think) रखने वाले हैं, आज के इस ख़ास पोस्ट में। इसलिए रिक्वेस्ट है कि आप इस पोस्ट को पूरा पढ़े और उसके बाद ही हमें कमेन्ट करके बताएं कि आप हमारी बातों से कितने सहमत (Agree) हैं और कितने नहीं।

Animal

 

 

नमस्कार..

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1-एनिमल पर उठे मुद्दे-

एक तरफ जहा एनिमल फ़िल्म दर्शकों (Audience) को खूब एंटरटेन (Entertain) करते हुए ताबड़तोड़ कमाई कर रही है। वहीं, दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें फिल्म के कंटेंट (Contant) से आपत्ति है, जिसे लेकर काफी कॉन्ट्रोवर्सी (Controversy) भी हो रही है। ख़ास बात कि इस फ़िल्म से जुड़े मुद्दे सोशल (Social) मीडिया (Media) से लेकर संसद तक में भी उठाये गये हैं। दरअसल एनिमल (Animal) फ़िल्म में कई ऐसे सीन है, जो नरम दिल लोगों को डिस्टर्ब कर देते हैं और इनकी वज़ह से ही फिल्म को मिसोजिनिस्टिक (misogynistic) का टैग भी मिल चुका है। संदीप वांगा रेड्डी की फिल्म ‘एनिमल’ में जिस तरह का वायलेंस  (violence) दिखाया गया है, वह कुछ लोगों के लिए काफी डरावना (Scary) है। फ़िल्म में एक्शन, ड्रामा, क्राइम, इंटीमेसी और डायलॉग्स सभी कुछ कॉन्ट्रोवर्सी से घिरे हुए हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ की INC MP रंजीत रंजन ने इस फ़िल्म को लेकर संसद में अपनी बात रखी है।
रंजीत रंजन ने राज्य सभा में एनिमल फ़िल्म का लेकर कहा- “सिनेमा समाज का आईना होता है। इसे देखकर हम बड़े हुए हैं, सिनेमा (Cinema) देखकर और युवा काफी इन्फ्लूएंस (influence) होता है आजकल कुछ इस तरह की फिल्में आ रही हैं, अगर आप शुरू करें ‘कबीर’ से लकेर ‘पुष्पा’ और अभी एक पिक्चर चल रही है ‘एनिमल’। मैं आपको कह नहीं पाऊंगी कि मेरी बेटी के साथ बहुत सारी बच्चियां थीं जो कॉलेज (College) में पढ़ती हैं। सेकेंड ईयर में पढ़ती हैं। वो आधी पिक्चर में रोकर हॉल से उठकर चली गई।” इस दौरान उन्होंने संदीप वांगा रेड्डी की ही पिछली फिल्म का एक्ज़ाम्पल (example) देते हुए कहा कि, ‘कबीर सिंह’ फिल्म को ही देख लीजिए, किस तरह वो अपनी वाइफ को ट्रीट (Treat)  करता है, और लोग और समाज और पिक्चर भी उसको जस्टिफाई (Justify) करते हुए दिखा रही है। ये बहुत ही सोचने वाला विषय है। इन पिक्चरों का, इस वायलेंस का, इन निगेटिव रोल को पेश करने में हमारे आजकल 11वीं और 12वीं के बच्चे पर असर होता है। वो इसे रोल मॉडल  (Model) मानने लगे हैं। क्योंकि पिक्चरों में देख रहे हैं, इसलिए समाज में भी हमें इस तरह की हिंसा (violence) देखने को मिल रही है।” उन्होंने फ़िल्म से जुड़े ऐसे कई सारे मुद्दों को उठाने के साथ-साथ यह भी कहा कि “फ‍िल्म में हीरो कॉलेज में बड़े-बड़े हथ‍ियार (Weapon) ले जाकर वो जिस तरह मारता है, वो खराब नजर आता है। कोई कानून उसे सजा तक नहीं दे रहा है, ये सब पिक्चर में दिखाया गया है, जो कि गलत है।”

दोस्तों जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एनिमल फ़िल्म को सेंसर (sensor) बोर्ड ने ए सर्टिफिकेट (certificate) दिया है और इसे बच्चे देख ही नहीं सकते। और जिस उम्र के लोगों के लिए यह फ़िल्म है यानि जिनके बिगड़ जाने की बात की जा रही है, वो तो इससे भी कहीं ज़्यादा वाइलेंस और इंटीमेंसी (intimacy) से भरी फ़िल्में देख चुके होंगे और आगे भी देखते ही रहेंगे, वह भी किसी सिनेमाघर (movie theater) में नहीं, बल्कि अपने फोन की स्क्रीन (Screen) पर वह भी जब चाहे। बहरहाल हम इस बात को आपसे पहले ही क्लीयर कर दें कि हम किसी भी फ़िल्म के सपोर्ट या उसके विरोध में अपनी पर्सनल (Personal) राय नहीं देने वाले हैं, हम यहाँ उन मुद्दों पे अपनी बात रख रहे हैं जो इस फ़िल्म को लेकर उठाये जा रहे हैं। क्योंकि खान-पान हो या इंटरटेनमेंट (Entertenment), सबकी अपनी-अपनी पसंद होती है और उसे किसी पे भी थोपने का हमारा या किसी का कोई राईट नहीं है।

2-क्या पहले नहीं बनीं ऐसी फ़िल्में?

एनिमल या इस फ़िल्म जैसे सीन्स पहले कभी नहीं दिखाये गये यह सवाल उठना भी लाज़मी ही है। दरअसल ऐसी फ़िल्में दुनियाभर में पहले से ही बनायी जा रही हैं, जिनसे इंस्पायर्ड (Inspired) होकर भारत में भी फ़िल्में बन रही हैं। सोशल मीडिया पर तो यहाँ तक दावा किया जा रहा है कि ‘एनिमल’ के कई सीन्स हॉलीवुड (Hollywood) मूवी ‘गॉड फादर’ से लिए गए हैं।जैसे कि एनिमल में रणबीर के जीजा का अनिल (Anil) कपूर यानि रणबीर के पिता की हत्या में शामिल होना और गॉडफादर (godfather) में माइकल कोरलियोन (Corleone) के जीजा वीटो यानि माइकल के पिता की हत्या (the killing) में शामिल होना, इतना ही नहीं एनिमल में रणबीर की बहन (Sister) को यह पता चलने पर कि रणबीर ने ही उसके पति को मार डाला है, उसे पीटना और रोना ठीक गॉडफादर से इंस्पायर्ड (Inspired) है क्योंकि उस फ़िल्म में भी माइकल की बहन को जब यह पता चलता है कि माइकल (michael) ने ही उसके पति को मार डाला है तो वह भी उसी तरह रीएक्ट (React) करती है। फ़िल्म में रणबीर का अपनी पत्नी के लिए चर्च में अपने अपराधों के बारे में पिता के सामने कबूल करना और स्कूल में बंदूक (gun) लाने के बाद रणबीर को घर से निकाल देना जैसे सीन भी गॉडफादर के सीन से ही इंस्पायर्ड हैं बस किरदार और उनकी उम्र को बदल दिया गया है।

ख़ैर यह तो इस फ़िल्म की बात हुई लेकिन क्या बॉलीवुड (Bollywood) में पहले ऐसी फ़िल्में नहीं बनायीं गयीं हैं जिसमें महिलाओं को टॉर्चर (Torcher) किया गया हो? यक़ीन मानिए अगर गिना जाए तो ऐसी सैकड़ों फ़िल्में मिल जाएंगी, लेकिन हम बहुत ज़्यादा पीछे नहीं बस 90s तक ही आपको ले जाएंगे, जिसे रोमांटिक (Romantic) और म्यूजिकल फ़िल्मों का दौर कहा जाता है। दरअसल इस दौर में लगातार तीन ऐसी फ़िल्में आयीं जो एक ही सब्जेक्ट (subject) पर आधारित थीं और तीनों ही एक इंग्लिश फ़िल्म की रीमेक (remake) थीं। इस फ़िल्म में एक आदमी अपनी पत्नी से बेइंतिहा (infinite) प्यार करता है लेकिन साथ ही उसे बड़ी बेरहमी से टॉर्चर भी करता है। हम बात कर रहें हैं जोसेफ रूबेन द्वारा डायरेक्ट (Direct) की हुई फ़िल्म ‘स्लीपिंग विद द एनिमी’ फिल्म की, जिसकी कामयाबी (Success) के बाद दुनिया भर में इसकी रीमेक (Remake) फ़िल्में बनायी गई थीं।

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‘स्लीपिंग विद द एनिमी’ की पहली बॉलीवुड रीमेक (Remake)  फिल्म ‘याराना’ थी जो कि साल 1995 में आई थी। इसके बाद ‘दरार’ और ‘अग्नि साक्षी’ जैसी फ़िल्में बनीं, जो साल 1996 में रिलीज हुई थीं। ख़ास बात कि तीनों ही फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन किया था। अग्निसाक्षी (Agnisakshi) फ़िल्म तो भारी मुनाफे के साथ साल 1996 की दूसरी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म भी बनी थी। दोस्तों इन फ़िल्मों की कमाई से आप समझ सकते हैं कि ऐसी फ़िल्में पहले भी बनती थीं और दर्शकों द्वारा देखी भी जाती थीं। हालांकि इन फ़िल्मों को लेकर लोग अलग-अलग राय तब भी रखते थे, जैसा कि आज एनिमल फ़िल्म को लेकर रखते हैं, लेकिन तब सोशल मीडिया नहीं था। इसलिए मुद्दे उठते थे और ख़ुद ही शांत हो जाते थे, रही बात फ़िल्म की तो, अगर देखने लायक होती थी तो ही चलती थी वरना फ्लाप हो जाती थी। फ़िल्मों के साथ होता आज भी वैसा ही है लेकिन अब शोर ज़्यादा उठता है जबकि पहले यह सब अपनेआप हो जाता था। ज़्यादा पीछे न जाकर कुछ महीने (month) पहले रिलीज़ हुई आदिपुरुष का हश्र हम सबके सामने है। बम्पर ओपनिंग (opening) और एडवांस बुकिंग के बावज़ूद भी उस फ़िल्म को दर्शकों ने नकार दिया। दरअसल फ़िल्म में रामायण (Ramayana) के प्रसंगों और संवादों में ज़रूरत से ज़्यादा छेड़छाड़ कर दिया गया था जिसका विरोध एकदम सही था, क्योंकि यहाँ हमारे धार्मिक भावनाओं और इतिहास (History) की बात थी, जिसे कभी बदला नहीं जा सकता है। बहरहाल हम एनिमल जैसी फ़िल्मों की बात कर रहे थे इसलिए अपने सब्जेक्ट (Subject) पर वापस आ जाते हैं। दोस्तों आपमें से काफी लोग कह सकते हैं कि दो-चार फ़िल्में ही ऐसी बनीं होंगी, तो ऐसा भी नहीं है, दरअसल हमलोग पहले फ़िल्मों को एक कहानी के तौर पे ही देखते थे, जैसे बचपन में जंगली  (Wild) जानवरों की कहानी या फिर भूत-प्रेत की कहानी, इसलिए फ़िल्म को फ़िल्म मानकर ही चलते थे..और आज भी वैसा ही है। साउथ में तो ऐसी फ़िल्में बनती रहती हैं, बेशक़ इतने बड़े पैमाने पर भले न बनी हों। फॉर एक्ज़ाम्पल साउथ की एक फ़िल्म में गदर2 से लाइम्लाइट (Lime Light) में आये मनीष वाधवा पर एक फ़िल्म के सीन में एक्ट्रेस (Actress) साई पल्लवी के ऊपर पेशाब (Urine) करने का सीन फिल्माया गया था, जिसके बाद वह काफी डर गये थे कि कहीं एक्ट्रेस (actress) के फैन मनीष को जान से ही न मार दें, लेकिन फिल्म रिलीज़ (Release) हुई और कोई बवाल नहीं खड़ा हुआ। तो फिर तेलुगू फिल्मों से आये संदीप वांगा रेड्डी का एनिमल में रणबीर कपूर का एक्ट्रेस (Actress) से जुते चटवाने जैसे सीन फ़िल्माना (filming) कौन सी बड़ी बात है। इससे उस किरदार की क्रूरता ही पता चलेगी जो ऐसे काम करता है।

3-क्या वाकई फिल्मों का लोगों पे इतना असर पड़ता है?

चलिए अब भारत की सबसे कामयाब (successful) और सबकी चहेती फ़िल्मों में से एक फ़िल्म शोले की भी बात कर लेते हैं। ग़लती से भी इस फ़िल्म का नाम ज़ुबान पे आये, डाकू गब्बर सिंह का चेहरा और उसके डॉयलॉग (dialogue) जेहन में पहले ही आ जाते हैं। एक ख़ौफ़नाक (dreadful) किरदार को लोग आज भी अमजद ख़ान की बेहतरीन एक्टिंग (acting) के लिए याद रखते हैं, तो क्या उस किरदार से इंप्रेस (Impress) होकर लोगों ने डकैती करनी शुरू कर दी या अपने दुश्मन (Enemy) के हाथ काटने शुरू कर दिये। या फिर जय-वीरू की तरह लोग कभी इस जेल में तो कभी उस जेल में दिखाई देने लगे। बचपन से ही जहाँ हमें बात-बात पर याद दिलाया जाता हो कि, ये फ़िल्म है.. हक़ीक़त नहीं, असल ज़िन्दगी (Life) में ऐसा कुछ नहीं होता है, तो वहाँ इतनी आसानी से महज एक फ़िल्म को देखकर यंग (Young) जनरेशन कैसे बिगड़ सकती है। फ़िल्मों को देखकर लोगों पर इतना ही असर होता तो हमारे देश (Country) में तो कभी कोई समस्या ही नहीं होती क्योंकि हर एक फ़िल्म प्यार, मोहब्बत, भाईचारे और बुराई पर अच्छाई की जीत का ही संदेश (Massage) देती है। अगर फ़िल्मों का असर इतना ही होता तो हम साथ-साथ हैं जैसी फ़िल्म, जिसे लोगों ने बार-बार देखी है, उसके बाद तो किसी घर में बँटवारा ही नहीं होता, सभी ज्वाइंट फैमिली की तरह से रह रहे होते।

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हाल ही में कुछ ऐसी ही बात फ़िल्म मेकर राम गोपाल वर्मा ने भी कही थी। उन्होंने ‘शोले’, ‘सत्या’ और ‘मैड मैक्स’ जैसी हिट फिल्मों का एक्ज़ाम्पल (example) देते हुए कहा कि, “जब आपने ‘मैड मैक्स’ देखी, तो किसी ने भी तेज स्पीड (Speed) से बाइक चलाना शुरू नहीं किया। ‘शोले’ सबसे बड़ी हिट है लेकिन कोई डाकू नहीं बना। ‘सत्या’ चली, कोई गैंगस्टर नहीं बन पाया। इसलिए यह कहना मूर्खतापूर्ण (Silly) तर्क है कि कोई फिल्म किसी पर इतना असर डाल सकती है। अधिक से अधिक, यह लोगों के कपड़ों या हेयर (Hair) स्टाइल को प्रभावित कर सकता है।” बेशक़ फिल्म मेकर की ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ फ़िल्म बहुत बुरी थी लेकिन देखा जाए तो उनकी ये सभी बातें बिल्कुल सही हैं। क्योंकि हममें से 75% लोग तो ऐसे होंगे ही जो किसी न किसी एक्टर के ड्रेसिंग (Dressing) या हेयर स्टाइल से इंप्रेस (Impresion) होकर कभी न कभी वैसा ही लुक बनाने की कोशिश करते रहे होंगे, लेकिन इसका मतलब ये कत्तई नहीं कि राह चलते सभी अपने हीरो की तरह ही 4-6 गुण्डों से अकेले भिड़ जाते होंगे। क्योंकि इतनी अक्ल तो सभी में है कि हीरो बनने से कहीं अच्छा है कि पुलिस (Police) को सूचित कर दिया जाए। सभी जानते हैं कि फ़िल्मों की बात अलग है क्योंकि वहाँ तो 10 गोली खाकर भी हीरो बच ही जाता है। इसलिए फ़िल्मों का असर, जितनी देर तक हम फ़िल्म देखते हैं, बस उतनी ही देर तक रहता है, उसके बाद तो बस एक्टर, गाने व अच्छे-बुरे सीन्स ही याद रह जाते हैं किसी कहानी की तरह। जी हाँ.. बस कहानी की तरह, न कि हक़ीक़त की तरह।

‘एनिमल’ को लेकर न सिर्फ कई दर्शकों (Audience) ने बल्कि कई सेलेब्स ने भी एतराज जताया था और फिल्म को समाज के लिए खतरा तक बताया था। ऐसे में एनिमल फिल्म की एक्ट्रेस तृप्ति (Tripti) डिमरी (Dimri) ने उन सभी को जवाब देते हुए कहा है कि, अगर किसी एक्शन (Action) फिल्म में कोई दर्शक किसी गुंडे को हीरो की पिटाई करते देख रहा है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वह जाए और जिंदगी में जिससे भी नफरत करता हो, उसे मारने लगे। या फिर कोई किरदार अपनी पत्नी या गर्लफ्रेंड (girlfriend) से बदतमीजी से बात कर रहा है, तो ऐसा सीन दर्शकों को यह लाइसेंस (License) नहीं दे देता कि वह भी घर जाकर अपनी पत्नी, या गर्लफ्रेंड, या किसी से भी उसी तरह बात करने लगे। तृप्ति डिमरी ने यह भी कहा कि “अगर कुछ चीजें आपको सही नहीं लग रही है, तो उन्हें मत देखिए।” देखा जाये तो तृप्ति डिमरी की बात दो टूक (license) ही सही लेकिन ग़लत नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे हॉरर (Horror) और एडल्ट (Adult) कॉमेडी फ़िल्मों के दर्शक अलग हैं, हर कोई उन्हें देखना पसंद नहीं करता लेकिन वैसी फ़िल्में बनती ही रहतीं हैं और उनके दर्शक उन्हें देखते भी हैं।

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4-फ़िल्में इंटरटेनमेंट के लिए हैं न कि समाज सुधार के लिए-

जिस तरह तम्बाकू, सिगरेट (Sigrate) और शराब जैसे नशीले प्रोडक्ट्स (Prodructs) का व्यापार सरकारी लाइसेंस पर, धड़ल्ले से हो रहा है। ठीक वैसे ही इस तरह की फ़िल्में भी सेंसर बोर्ड से पास होकर ए सर्टिफिकेट (Certificate)  के साथ रिलीज़ होती ही रहेंगी। क्योंकि फ़िल्मों को इंटरटेनमेंट का एक ज़रिया मानकर ही देखा जाता है। हाँ किसी फैक्ट (Fact) के साथ छेड़छाड़ का विरोध तो होना ही चाहिए, जैसा कि आदिपुरुष (Adipurush) फ़िल्म के दौरान हुआ। फ़िल्मों की बात तो छोड़ ही दीजिये कुछ दिनों पहले धारावाहिक (serial) ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ में बाबुजी का किरदार निभा रहे एक्टर अमित भट्ट ने राइटर (writer) की ग़लती से यह डॉयलॉग बोल दिया कि ‘मुंबई की भाषा हिंदी है’, जिसके बाद मुंबई में इस शो का जमकर विरोध (Oppose) हुआ और शो को बंद कराने तक की धमकी (Threat) दी गयी, और अमित भट्ट को सार्वजनिक (Public) तौर पर माफ़ी माँगनी पड़ी थी। सीधी सी बात है आप कहानी कुछ भी कहिए लेकिन फैक्ट से कोई खिलवाड़ मत कीजिए। आजकल तो सेंसर बोर्ड माँ-बहन की गालियां तक पास कर देता है, एक्शन और एडल्ट सीन तो काफी पहले से ही अलाउड हैं। इसलिए फ़िल्में तो आती ही रहेंगी और यह हमें ख़ुद डिसाइड करना होगा कि कौन सी फ़िल्म हमें देखनी है और कौन सी नहीं।

दर्जनों रियलिस्टिक  (realistic) फ़िल्में भारत में बनीं, कुछ चलीं तो कुछ बिल्कुल भी नहीं चल पायीं लेकिन सालों बाद जब गदर2 अपने पुराने लेकिन एवरग्रीन (Evergreen) देशी अंदाज़ में आयी तो ब्लाकबस्टर (Evergreen) साबित हुई। ‘गदर’ सीरीज की फ़िल्मों को ही ले लें तो दोनों ही फ़िल्में सच्चाई से कोसों दूर हैं लेकिन ब्लाकबस्टर हुईं। तो क्या किसी फैन की इतनी हिम्मत हो सकती है कि वह तारा सिंह की तरह पाकिस्तान (Pakistan)  चला जाएगा और अकेले दम पर वहाँ सबसे भिड़ कर वापस भी आ जाएगा। और सब छोड़ भी दीजिये तो क्या गदर1 के इतने सालों के बाद भी सनी पा जी के किसी फैन ने हैंडपम्प (Handpump) उखाड़ने की झूठी कोशिश भी की? क्योंकि पब्लिक (Public) बेवकूफ नहीं है वह जानती है फ़िल्म, फ़िल्म होती है, वहाँ कुछ भी हो सकता है।

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आपको याद होगा 90s के दौर में अचानक अश्लील (obscene) और डबल मीनिंग्स वाले गानों की भरमार हो गयी थी। लेकिन बाद में गानों की जगह फ़िल्मों में सीधे-सीधे एडल्ट (Adult) सीन डाले जाने लगे जो स्टोरी की डिमांड (demand) के नाम पर सेंसर (sensor) बोर्ड से पास भी होने लगे, एनीमल के सीन उसी का बिगड़ा हुआ या कहें अपग्रेडेड (upgraded) रूप है। फ़िल्मों की मेकिंग में इतना बदलाव क्यों हुआ इसके पीछे भी दर्शकों का बहुत बड़ा तबका है, जो असल मायने में आज के दर्शक हैं। भारत की ही बात करें तो इंटरनेट (Internet) के ज़रिये आज दुनियाभर (Whole world) की फ़िल्में दर्शक घर बैठे ही देख ले रहे हैं। इतना ही नहीं मल्टीप्लेक्स (multiplex) में आये दिन बड़ी से बड़ी विदेशी फ़िल्में भी रिलीज़ की जाती हैं। ऐसे में मेकर्स भी इसका अंदाज़ा लगा लेते हैं कि दर्शक किस तरह की फ़िल्मों को ज़्यादा देख रहे हैं, इसलिए वह भी उसी तरह की फ़िल्म बनाने की होड़ में लग जाते हैं।

5-अच्छी फ़िल्मों को सपोर्ट क्यों नहीं?-

आये दिन लोगों के मुंह से आपने ये बातें सुनी होंगी कि भारत की फ़िल्में टेक्नोलॉजी (Technology) के मामले में हॉलीवुड (Hollywood) से बहुत पीछे हैं। वहाँ सब ओरिजिनल (original) जैसा दिखता है चाहे बोल्ड सीन हो या एक्शन, तो लो भइया अब भारत में भी वैसी ही फ़िल्में बनने लगीं। पहले कई सालों में कृष (Krish) जैसी फ़िल्में आती थीं वो भी गिनती की थीं, तो सबलोग कमियां गिनाने बैठ जाते थे। फिर शाहरुख़ ख़ान की रॉ वन आयी जिसका जमकर मज़ाक उड़ा तो लो अब पठान देखो, जवान देखो.. झेलो, हॉलीवुड स्टाइल की फ़िल्में.. अभी तो लाइन लगेगी ऐसी फ़िल्मों की.. हाँ जब कुछ फ़िल्मों के बाद लोग बोर हो जायेंगे तो वापस लव स्टोरीज़ और फैमिली ड्रामा की ओर लौट आयेंगे, मेकर्स भी और दर्शक (Audience) भी। यह बदलाव ठीक वैसे ही होगा जैसे 80s के एक्शन दौर के बाद 90s का दौर आया था। इससे तो अच्छा है कि हर समय हर तरह की फ़िल्में बनती रहें। रियलिस्टिक (realistic) भी, रोमांटिक भी, एक्शन भी, बोल्ड भी, हॉरर (horror) भी और फैमिली ड्रामा भी, जिसे जो देखना हो वह देखे और बहुत अच्छी हो तो सभी देखें। दरअसल अच्छी कहानियों वाली फ़िल्में हमेशा से ही बनती आ रही हैं लेकिन दर्शकों को इंटरटेनमेंट (Entertainment) के नाम पर सबकुछ चाहिए तो मेकर्स भी मसाले ठूस ठूसकर भर दिया करते हैं, जो कभी-कभी ओवरडाइट (overdiet) भी हो जाता है। बहुत सारी फ़िल्में साफ सुथरी और अच्छी कहानी के बावज़ूद रिलीज़ होते ही क्यों फ्लाप ही जाती हैं, जो बाद में यूट्यूब पे या टीवी पे बार-बार देखी जाती हैं। हालिया फ़िल्मों में एनिमल के साथ ही रिलीज़ हुई फ़िल्म सैम बहादुर इसका एक बड़ा एक्ज़ाम्पल है। जिसकी अब चर्चा तक नहीं हो रही है।

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6-एनिमल की सक्सेस क्या कहती है?

किसी फ़िल्म की सफलता (Success) यह बता ही देती है कि इसे पसंद करने वालों की संख्या विरोध (Oppose) करने वालों से कई गुना ज़्यादा है। कम से कम यह तो साबित हो ही जाता है कि फ़िल्म बहुत कमाल की नहीं तो, उतनी भी बुरी नहीं है, जितना कि इसके बारे में कहा जा रहा है। चलिये माना कि प्रमोशन (promotion) के ज़रिये, गाने के ज़रिये या स्टारकास्ट के ज़रिये कोई फ़िल्म बम्पर ओपनिंग (opening) ले सकती है, लेकिन उसके बाद तो फ़िल्म को उसकी क्वालिटी (quality) ही आगे ले जा पायेगी। और एनिमल के मामले में भी यही बात लागू होती है, वरना महज 15 दिनों में भारत में 500 करोड़ के करीब और वर्ल्ड वाइड 800 के करीब इतनी जल्दी तो क्या, शायद कभी भी कोई हिंदी फ़िल्म नहीं पहुँच सकती थी, अगर इतनी ही बुरी होती तो। लोग इस फ़िल्म में किरदार (character) से कहीं ज़्यादा एक्टिंग और उसका नयापन पसंद कर रहे हैं। बेशक़ ऐसी फ़िल्मों का एक ख़ास दर्शक (the audience) वर्ग है लेकिन बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के हिसाब से यह तो तय है कि यही दर्शक वर्ग सबसे ज़्यादा एक्टिव हैं, जो किसी फ़िल्म को ब्लाकबस्टर (blockbuster) भी बना सकता है और उसका बॉयकाट करके उसे फ्लाप (Flop) भी कर सकता है। यहाँ हम सोशल मीडिया वाले बॉयकाट की बात नहीं कर रहे हैं, यह बॉयकाट कुछ वैसा है जैसे 80s के आख़िर में अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों के साथ हुआ था, जब न सोशल मीडिया था और न ही दुनियाभर के न्यूज (News) चैनल (Channel) थे। दरअसल समय के साथ थियेटर (Theater) में जाने वाले दर्शक बदलते रहते हैं, इसलिए फ़िल्म मेकिंग (making) की स्टाइल में भी बदलाव करना ही होता है और एक्टर को भी समय के साथ बदलना होता है। यही हमेशा से होता आया है और आगे भी होता रहेगा। इसलिए बदलाव नहीं होगा तो नये दर्शक थियेटर (Theater) में नहीं जायेंगे।

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7-एक सनकी कैरेक्टर मानकर देखें न कि आइडियल हीरो

ज़रा सोचिये कि इस फ़िल्म का लीड (lead) रोल रणबीर कपूर की जगह कोई अनजान चेहरा होता तो भी क्या इतना विरोध होता? शायद नहीं होता, क्योंकि तब किसी के पास यह तर्क नहीं होता कि इससे फैन्स पे बुरा असर पड़ सकता है। रणबीर कपूर हो या कोई भी एक्टर, अब पहले की तरह किसी एक्टर (actor) को एक ईमेज में बाँधकर नहीं रखा जाता है। दर्शक अब किसी एक्टर के निगेटिव-पॉजिटिव (positive) रोल पर ध्यान न देकर एक्टर की एक्टिंग और ओवरऑल फ़िल्म की बात करते हैं, इसलिए कोई भी एक्टर अब हर तरह के किरदार (character) करके अपना टैलेंट (Tallent) दिखाना चाहता है। इसलिए जब दर्शक यह भूलकर फ़िल्म देखता है कि स्क्रीन पर कोई हीरो नहीं बल्कि एक सनकी कैरेक्टर है तो वह उससे कभी प्रभावित (Affected) नहीं हो सकता है कि हमें भी वैसा ही बनना है, बल्कि वह यही सोचता है कि इस कैरेक्टर (character) के साथ ऐसा क्यों हुआ। जैसा कि एनिमल फ़िल्म में रणबीर का किरदार (character) है, जो कि अपने पिता से बेपनाह (Unsurpassed) प्यार करता है लेकिन पिता के पास उसके लिए बिल्कुल भी टाइम नहीं है, यहाँ तक कि जिस पिता के लिए वह स्कूल में मार तक खाता है, वही पिता उसको फटकार (Damnation) लगाता रहता है। ख़ुद को नज़र अंदाज़ किये जाने पर वह अकेलेपन (Loneliness) का शिकार होता है और बिगड़ जाता है। ऐसा नहीं ऐसे सभी बच्चे एनिमल के रणबीर कपूर जैसे बन जाते हैं, लेकिन दुनिया (World) में कुछ तो ऐसे लोग हो ही सकते हैं और उन्हीं में से एक की यह कहानी है। यह फ़िल्म और कुछ संदेश (Message) दे या न दे, इतना संदेश तो ज़रूर दे रही है कि आप कितने भी बिजी रहें लेकिन अपने बच्चों के लिए आपको टाइम निकालना ही होगा।

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8-हर फिल्ममेकर की अपना एक स्टाइल होता है-

हर फिल्ममेकर (filmmaker) का अपना एक स्टाइल होता है, अपना एक फ्लेवर होता है, जो हर किसी को पसंद आये ये ज़रूरी नहीं, ऐसे में सबके दर्शक भी अलग-अलग बन जाते हैं, जिन्हें अपने फेवरेट (Favorite) फिल्म मेकर की फिल्म देखनी ही होती है। जैसे कि सूरज बड़जात्या का कहानी कहने का अपना एक अलग स्टाइल है, महेश भट्ट अपने अंदाज़ में फ़िल्में बनाते थे, सबकी फ़िल्में ख़ूब चलीं, ठीक वैसे ही संदीप वांगा रेड्डी का यह अपना स्टाइल है जो शायद हर किसी को पसंद नहीं आयेगा, लेकिन जितने लोगों को पसंद आ रहा है उनके लिये वह काफी है। दरअसल जब इससे पहले संदीप वांगा रेड्डी ने कबीर सिंह फ़िल्म बनायी थी तो भी बहुत कॉन्ट्रोवर्सी (Controversy) हुई थी और फ़िल्म सुपरहिट (superhit) होने के बावज़ूद, आज भी बहुत से दर्शक (Audience) ऐसे हैं जो उस फ़िल्म को वाहियात ही कहते हैं और वैसा ही इस फ़िल्म के साथ भी होगा, लेकिन संदीप हो या कोई और मेकर्स, उन्हें जब अपने दर्शक मिल जाते हैं, तो वह बस उनके लिये ही फ़िल्में बनाते हैं। इसलिए बॉलीवुड (Bollywood) में अब ऐसा ही ट्रेंड (Trade) चलने लगेगा ऐसा भी नहीं, क्योंकि जो दूसरे बड़े डायरेक्टर (Director) और मेकर्स हैं उनकी फ़िल्में भी तो कामयाब हो ही रही हैं, तो वे भी अपने दर्शकों का ध्यान रखकर फ़िल्में बनाते रहेंगे। यहाँ हम डायरेक्टर (Director) सूरज बड़जात्या का ही एक्ज़ाम्पल (Example) एक बार और देंगे जिसके बारे में उन्होंने ख़ुद अपने एक इंटरव्यू (Interview) में बताया था कि जब उन्होंने मैं प्रेम की दीवानी हूँ में अपने डायरेक्शन में बदलाव किया तो उनके दर्शकों ने नकार (Denial) दिया, जिसके बाद उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में विवाह फ़िल्म बनायी जो ब्लाकबस्टर  (Blockbuster) साबित हुई। इस एक्ज़ाम्पल का मतलब बस इतना है कि कोई भी डायरेक्टर न तो अपने दर्शकों को खोना चाहेगा और न ही अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर की फ़िल्म बनाकर रिस्क लेना चाहेगा। इसलिए एनिमल की कामयाबी से कोई ट्रेंड सेट होने वाला है ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।

9-सोशल मीडिया के विरोध से अनजाने में फिल्म का प्रचार

सोशल मीडिया पर कोई ख़बर आयी, और बिना उस पर कोई रिसर्च (Research) किये हुए यूजर्स (Users) फटाफट उसे शेयर (Share) करना शुरू कर देते हैं, जो कि फ़िल्मों के मामले में कभी-कभी मेकर्स के लिए फायदेमंद (Beneficial) साबित हो जाता है। ऐसा ही कुछ पठान फ़िल्म के साथ हुआ था और अब एनिमल के साथ भी हो रहा है। आप किसी भी पोस्ट पर कमेन्ट (Comment) करते है या रिएक्शन भी देते हैं तो समझिये कि आप उसको वायरल (Viral) करने में हेल्प ही कर रहे हैं। भले ही बुराई के बहाने ही सही आप उस सीन (Scene) का या उस फ़िल्म का प्रचार कर देते हैं। मेकर्स (Makers)  को और क्या चाहिए, उन्हें किसी बहाने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी फ़िल्म की बात पहुँचानी है और सोशल मीडिया पर यह काम आसानी से हो जाता है। जो फैन्स हैं वो तो थियेटर (Theatre) जायेंगे ही और फ़िल्म अच्छी लगी तो लोगों को भी बतायेंगे, फिर कमेन्ट में तारीफ देखकर और भी दर्शक (Audience) जायेंगे जिसका फायदा मेकर्स को मुफ्त में मिल जाता है।

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अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि अगर मामला आदिपुरुष (Adipurush) जैसी फ़िल्मों का ना हो तो बेवज़ह विरोध (Oppose) करने का कोई फ़ायदा नही, क्योंकि अगर फ़िल्म बुरी होगी तो ख़ुद ही फ्लाप (Flop) हो जायेगी और मेकर्स बरबाद हो जायेंगे, उसके बाद वैसी फ़िल्में बनाने में सौ बार सोचेंगे। और अगर फ़िल्म ब्लाकबस्टर (Blockbuster) हो रही है तो यह तो तय है कि फ़िल्म में कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर है, जिसे लोग पसंद कर रहे हैं, तो हम दूसरों पे अपनी पसंद थोपने वाले कौन होते हैं। इसलिए होना तो यही चाहिए कि हर तरह की फ़िल्में बनें न केवल भारत के दर्शकों के लिए बल्कि ओवरसीज (Overseas) के लिए भी। सबसे बड़ी बात कि हर तरह की फ़िल्म आने से फ़िल्मों का मज़ा बना रहता है, वरना दर्शक भी बोर हो जाएंगे। याद कीजिए गदर व लगान और दिल व घायल जैसी डिफरेंट (Different) मूड की फ़िल्में जो अपने दौर में एक साथ आयीं और सभी ब्लाकबस्टर (Blockbuster) हुईं। कुछ ऐसा ही इस साल एक साथ रिलीज़ हुई गदर2 और ओएमजी2 के साथ भी हुआ, दोनों कामयाब रहीं, एक ब्लाकबस्टर तो एक सुपरहिट (Superhit) रही। तो दोस्तों हमें उम्मीद है कि आपको हमारा आज का यह पोस्ट ज़रूर पसंद आया होगा। एनिमल फ़िल्म पर और आज के पोस्ट पर आपके क्या विचार हैं, कमेन्ट में ज़रूर बताइयेगा। तो मिलते हैं अगले वीडियो में ऐसे ही किसी अन्य रोचक किस्से के साथ तब तक के लिये नमस्कार….

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